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सम्पादकीय

हाशिमपुरा कांड:- जब पीएसी के जवानों ने 42 मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया था

हफ़्ते रोज़ पहले याद था तो राजीव गांधी का जन्मदिन…लेकिन हाशिमपुरा – मलियाना नरसंहार में शहीद हुए 200 से ज़्यादा मुसलमान नहीं, जिनका इसी राजीव गांधी की सरकार में नरसंहार हुआ था।

22 मई 1987 की तारीख़ थी, रमज़ान का महीना चल रहा था अलविदा जुमे की नमाज़ पढ़ने घर से मुस्लिम नौजवान निकले थे, तक़रीबन 50 मुस्लिम युवकों को पीएसी की गाड़ी में पीछे भरा गया लेकिन वो दिख नही रहे थे वो अंदर बैठे थे, दिख रहा था तो सिर्फ राइफल वो राइफल जिनसे कुछ वक़्त बाद उन मुसलमान नौजवानों के बदन को छलनी करना था, वो क़त्तई डरे हुए नही थे उन्होंने ये मान लिया था कि उन्हें मारा जायेगा वो मरने वाले हैं, आखिर वक़्त में जब उन्हें कुछ नही सुझा तो उन्होंने अल्लाह को याद किया और पीएसी वालों के साथ हाथापाई इसलिए की कि अब आख़री कोशिश यही थी लेकिन हुआ क्या उस हाथापाई के बदले पीएसी वालों ने 42 मुसलमानों को गोलियों से भून डाला और फिर उन्हें दिल्ली से सटे मकनपुर में पीएसी ट्रक में भर कर लाया गया और नदी-नाले में फेंक दिया गया।

बाबूदीन बताते हैं मकनपुर पहुंचने के लगभग 45 मिनट पहले एक नहर पर ट्रक को मेन सड़क से उतारकर नहर की पटरी पर कुछ दूर ले जाकर रोक दिया गया, पीएसी के जवान कूद कर नीचे उतर गए और उन्होंने ट्रक पर सवार मुसलमानों को नीचे उतरने का आदेश दिया, अभी आधे लोग ही उतरे थे कि पीएसी वालों ने उनपर फ़ायरिंग शुरू कर दिया, गोलियां चलते ही ऊपर वाले गाड़ी से उतरे ही नही, अज़ में बाबूदीन भी उनमें से एक थे, बाहर उतरे लोगों का क्या हुआ बचे हुए लोग सिर्फ़ अनुमान ही लगा सकते थे, फायरिंग की आवाज़ की वजह से आसपास के गांव से शोर सुनाई देने लगा तो पीएसी वाले वापस ट्रक में चढ़ गए, ट्रक तेज़ी से बैक हुआ और वापस ग़ाज़ियाबाद की तरफ़ भागा, यहां वो मकनपुर वाली नहर पर आया और एक बार फिर सबसे उतरने के लिए कहा गया, इस बार डरे सहमे लोगों ने उतरने से इनकार कर दिया तो उन्हें खींच-खींच कर नीचे घसीटा गया, जो नीचे आ गए उन्हें पहले की तरह ही गोली मारकर नहर में फेंक दिया गया और जो डर कर ऊपर रहे उन्हें ऊपर ही गोली मारकर नीचे धकेला गया।

ये वो वक़्त था जब हमारी बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया गया था, जब देश प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री था।

ये खूनी खेल सिर्फ यहीं नही रुका 22 मई 1987 के दूसरे दिन यानी 23 मई शनिवार को मलियाना में दंगा भड़क गया, पीएसी वालों की संरक्षण में मुसलमानों के घर को जलाने का सिलसिला जारी था, कई आला अधिकारियों के सामने कई मुस्लिमों को ज़िंदा जलाया गया, ये बयान उन लोगों के हैं जिन्होंने अपने परिवार को अपनी आंखों के सामने राख होते हुए देखा था।

उस मंजर को याद करके यहां के लोग आज भी कांप उठते हैं, लगभग दोपहर बारह बजे से पुलिस और पीएसी ने मलियाना की मुस्लिम आबादी को चारों तरफ से घेरना शुरु किया था, ये घेरा बंदी लगभग ढाई बजे खत्म हुई, और ये घेराबंदी ऐसी थी जैसे किसी दुश्मन मुल्क के आर्मी कैम्प पर हमला होने वाला हो पूरे इलाके को घेरने के बाद कुछ पुलिस और पीएसी वालों ने घरों के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरु कर दी, दरवाजा नहीं खुलने पर उन्हें तोड़ दिया गया, घरों में लूट और मारपीट शुरु कर दिया, नौजवानों को पकड़कर एक खाली पड़े प्लाट में लाकर बुरी तरह से मार-पीटकर ट्रकों में फेंकना शुरु कर दिया गया, दरअसल, सरकारी आतंकवादी पीएसी वाले हाशिमपुरा की तर्ज पर ही मलियाना के मुस्लिम नौजवानों को कहीं और ले जाकर मारने की योजना पर काम रहे थे, लेकिन पीएसी की फायरिंग से इतने ज्यादा लोग मरे और घायल हुए थे कि पीएसी की योजना फेल हो गयी थी, पुलिस और पीएसी लगभग ढाई घंटे तक फायरिंग करती रही, इस ढाई घंटे की फायरिंग में 73 मुसलमानों की जान गई थी।

अगर आपके लिए गुजरात का जिम्मेदार मोदी हैं तो, मलियाना, हाशिमपुरा, मुरादाबाद, नेली जैसे दर्जनों मुसलमानों के नरसंहार के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी या इंदिरा गांधी क्यों नही हैं? जैसे कुछ रोज़ क़ब्ल राजीव गांधी की बरसी पर याद करके मुस्लिम नौजवान आंसू बहा रहे थे, क्या वो मोदी से भी इतनी मुहब्बत दिखाएंगे?

अफसोस कि मुसलमानों का नरसंहार कराने वाला राजीव गांधी तो आपको याद है, लेकिन मलियाना, हाशिमपुरा नरसंहार में 200 से ज़्यादा मुसलमानों का कत्लेआम याद नही। अल्लाह हमारे भाइयों की मग़फ़िरत फ़रमाये।

(यह लेखक के अपने विचार है लेखक शाहनवाज अंसारी सोशल एक्टीविस्ट है)

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