1991 में बनें प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट में पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता।
इस एक्ट को 23 सालों तक किसी भी जज ने छेड़छाड़ नही की. लेकिन डी.वाई चंद्रचूड़ ने की एक टिप्पणी ने धार्मिक स्थलों के जांच की मांग का रास्ता खोलकर वरशिप एक्ट 1991 कानून को कमजोर कर दिया।
1990’s में डी.वाई चंद्रचूड़ अमेरिका में पढ़कर और नौकरी कर भारत आते हैं. स्थापित वरिष्ठ वकीलों की मदद और सहायता से बॉम्बे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं।
1998 में अचानक उन्हें 38 साल की उम्र में सीनियर एडवोकेट बना दिया जाता. उसी साल उन्हें सॉलिसिटर जनरल भी बना दिया जाता है. 2000 में बिना किसी परीक्षा और इंटरव्यू के उन्हें बॉम्बे हाईकोर्ट में जज बना दिया गया।
2013 में इलाहाबाद हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस बने. 2016 में कोलेजियम उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनाती है. 2022 में ये आदमी सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनते हैं।
इस आदमी ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीतिक के लिए जरूर कानून, बंद पिटारे से खोल कर BJP को लाभ पहुंचाया. 3 अगस्त 2023 को डी.वाई चंद्रचूड़ ने वाराणसी के ज्ञानवापी परिसर में ASI द्वारा वैज्ञानिक सर्वेक्षण की इस तर्क पर अनुमति दी थी, कि “1991” के अधिनियम की धारा 3 पूजा स्थल की धार्मिक प्रकृति का पता लगाने से मना नहीं करती।
चंद्रचूड़ की इस टिप्पणी के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने दिसंबर 2023 में मथुरा के शाही ईदगाह परिसर में सर्वेक्षण की अनुमति दी. इसी तरह मध्य प्रदेश के भोजशाला में भी सर्वे को लेकर विवाद बढ़ा।
अब संभल की शाही मस्जिद और अजमेर शरीफ दरगाह की भी जांच की मांग की जा रही है. BJP और RSS खुद आगे नही आते. वे अपनी विचारधारा के वकील द्वारा निचली अदालतों में मस्जिदों को मध्यकालीन पूजा स्थल होने का दावा करने वाली याचिका दायर करते हैं।
मंदिर मस्जिद विवाद में आम इंसान मूर्ख बनता है. जज, वकील और नेताओं के बच्चे तो पढ़ लिख रहे हैं, व्यापार कर रहे हैं।
(यह लेखक के अपने विचार है लेखक क्रांति कुमार सोशल एक्टिविस्ट हैं)