Journo Mirror
India

गज़ा के मज़लूमों की पुकार और अमेरिका-इज़राइल की दोहरी नीति: डॉ शुजाअत अली क़ादरी

मध्य पूर्व में फ़िलिस्तीन का मुद्दा आज फिर पूरी दुनिया के ज़मीर को झकझोर रहा है। युद्ध विराम के बाद भी गाज़ा में इज़राइल की बमबारी और आम नागरिकों की मौतें अब किसी “सुरक्षा कार्रवाई” का हिस्सा नहीं रह गई हैं, बल्कि यह एक सुनियोजित नरसंहार (genocide) का रूप ले चुकी हैं। मासूम बच्चे, महिलाएं और बुज़ुर्ग रोज़ाना मारे जा रहे हैं, अस्पताल और स्कूल मलबे में तब्दील हो चुके हैं। दुनिया भर में मानवता की आवाज़ें उठ रही हैं, लेकिन कुछ ताक़तें अब भी अपने राजनीतिक हितों के कारण चुप हैं ख़ासकर अमेरिका, जिसकी दोहरी नीति अब पूरी तरह उजागर हो चुकी है।

अमेरिका एक तरफ़ “मानवाधिकार” और “लोकतंत्र” की बातें करता है, लेकिन दूसरी तरफ़ इज़राइल को हथियार, आर्थिक मदद और राजनीतिक समर्थन देता है। यही दोहरा रवैया (double standard) दुनिया के सामने सबसे बड़ा प्रश्न बन गया है, क्या मानवाधिकार सिर्फ़ पश्चिमी देशों के लिए हैं? क्या फ़िलिस्तीनी बच्चों का जीवन कोई मायने नहीं रखता? जब यूक्रेन में एक नागरिक मारा जाता है तो पूरी दुनिया हिल जाती है, लेकिन जब गाज़ा में सैकड़ों लोग एक ही दिन में मारे जाते हैं, तो संयुक्त राष्ट्र की बैठकों में सिर्फ़ “शांति की अपील” सुनाई देती है।

इज़राइल अब सिर्फ़ अपनी सुरक्षा की नहीं, बल्कि पूरे फ़िलिस्तीन को मिटाने की कोशिश कर रहा है। उसकी नीति साफ़ है जबरन कब्ज़ा, अवैध यहूदी बस्तियों का विस्तार और फ़िलिस्तीनी पहचान का अंत। मीडिया और राजनीति में इज़राइल को “पीड़ित” दिखाने का खेल भी अब खुलकर सामने आ चुका है। लेकिन सोशल मीडिया और स्वतंत्र पत्रकारों की वजह से अब गाज़ा की सच्चाई दुनिया तक पहुँच रही है।

अरब देशों की निष्क्रियता कोई संयोग नहीं है। इसके पीछे राजनीति, डर, और स्वार्थ का जटिल जाल है। ज़्यादातर अरब देशों के अमेरिका और पश्चिमी देशों से गहरे सामरिक और आर्थिक रिश्ते हैं। तेल व्यापार, हथियार समझौते और सुरक्षा गारंटी के कारण ये देश खुलकर इज़राइल या अमेरिका की आलोचना नहीं कर पाते। सऊदी अरब और यूएई जैसे देश अब “अब्राहम समझौते” के बाद इज़राइल के साथ संबंध सामान्य बनाने की दिशा में बढ़ चुके हैं। इससे उनकी कूटनीतिक स्वतंत्रता सीमित हो गई है।

सीरिया, यमन, लीबिया, और लेबनान जैसे देशों की आंतरिक स्थिति बेहद नाजुक है। इन देशों के नेता अपने घरेलू संकटों में उलझे हुए हैं, और फ़िलिस्तीन अब उनकी प्राथमिकता नहीं रही। नतीजा यह हुआ कि जो कभी “अरब एकता” (Arab Unity) कहलाती थी, अब वह राजनीतिक विखंडन (fragmentation) में बदल चुकी है। यह सच है कि अरब जनता आज भी फ़िलिस्तीन के साथ है मिस्र, जॉर्डन, मोरक्को, ट्यूनिशिया, और कुवैत में लाखों लोगों ने सड़कों पर उतरकर इज़राइल के खिलाफ प्रदर्शन किए। लेकिन उनकी सरकारें या तो इन प्रदर्शनों को दबा रही हैं, या सिर्फ़ मानवीय चिंता”जताकर कर्तव्य पूरा मान रही हैं। इस जनता और सरकारों के बीच का विरोधाभास ही अरब दुनिया की सबसे बड़ी नैतिक कमजोरी बन गया है।

“Organization of Islamic Cooperation” यानी इस्लामी देशों का संयुक्त संगठन, जिसे दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय समूह कहा जाता है, भी लगभग बेमानी साबित हुआ है। सऊदी अरब की मेज़बानी में बैठकों, प्रस्तावों और“कड़े शब्दों की निंदा” से आगे कोई ठोस कूटनीतिक या आर्थिक कदम नहीं उठाया गया। न तो संयुक्त राष्ट्र में कोई मज़बूत प्रस्ताव पारित हुआ, न ही इज़राइल के खिलाफ तेल या व्यापारिक दबाव डाला गया। सवाल यह है: अगर OIC जैसे संगठन भी सिर्फ बयान देते रहेंगे, तो फिर फ़िलिस्तीन की रक्षा कौन करेगा? तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोआन ने गाज़ा में इज़राइल की कार्रवाई को “नरसंहार” कहा, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर भी तुर्की-इज़राइल व्यापार जारी रहा।

अब सवाल उठता है कि भारत की भूमिका क्या होनी चाहिए? भारत हमेशा से “अहिंसा” और “मानवता” के मूल्यों पर खड़ा रहा है। गांधी जी ने कहा था, “फ़िलिस्तीन फ़िलिस्तीनियों का है, जैसे इंग्लैंड अंग्रेज़ों का और फ्रांस फ़्रांसीसियों का।” आज जब पूरी दुनिया मौन है, भारत को अपनी नैतिक और ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए।

भारत को संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर स्पष्ट रूप से युद्धविराम (ceasefire) और स्वतंत्र फ़िलिस्तीन राज्य की मांग करनी चाहिए। साथ ही, मानवीय सहायता (humanitarian aid) और मेडिकल सपोर्ट में भी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। यह सिर्फ़ कूटनीतिक कदम नहीं होगा, बल्कि भारत की सभ्यता और नैतिक नेतृत्व का प्रतीक भी होगा।

भारत अगर वास्तव में “वसुधैव कुटुम्बकम्” यानी पूरी दुनिया एक परिवार है के सिद्धांत पर चलता है, तो उसे फ़िलिस्तीन के साथ खड़ा होना चाहिए। क्योंकि जो आवाज़ आज गाज़ा में दबाई जा रही है, वह सिर्फ़ फ़िलिस्तीनियों की नहीं, बल्कि पूरी मानवता की पुकार है।

(लेखक मुस्लिम स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन के चेयरमैन है और वो अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर लिखते हैं)

Related posts

Leave a Comment