भारत में मुसलमान दो युगों को हमेशा याद रखेंगे। एक 1990-2000 और दूसरा, 2015-2025… सरकार की ज़लालत और ज़ुल्म के लिए? हो सकता है हां, या फिर नहीं। फिर… शिक्षा क्रांति और दुनिया में अपने लिए बड़े मक़ाम हासिल करने के लिए।
1990 के दशक में, ख़ासकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मुसलमान गहरी नींद से जागे और आज़ादी के बाद शायद पहली बार दिमाग़ को दिल पर तरजीह दी। इस दौर में स्कूलों में मुसलमान बच्चों की संख्या बढ़नी शुरु हुई। हालांकि, शुरुआती ड्राॅप-आउट रेट ज़्यादा था लेकिन ये वो दौर था जब मेहनत, मज़दूरी करने वाला भी समझ रहा था कि शिक्षा के बिना अस्तित्व नहीं है।
इसको सहारा मिला ओपन मार्केट इकोनॉमी से। तब बहुत सारे एमएनसी भारत आए और वहां पहली बार मुसलमानों के रोज़गार और तरक़्क़ी के रास्ते खुले।
वरना अभी तक मुसलमाना सरकारी नौकरियों की कमी, भर्ती में भेदभाव और निजी कंपनियों में धर्म आधारित नफरत का सामना करने के चलते यह मान बैठे थे कि पढ़ने-लिखने से कुछ हासिल नहीं। काम सीखो और ज़िंदा रहने के लिए कुछ भी करो। हालात ने तकनीकी तौर पर स्मृद्ध समुदाय बना दिया था।
शिक्षा ने नई उड़ान भरने के हौंसले दिए। गोरों को काम से मतलब है, धर्म से नहीं। इंडिया इंटरनेशनल कार्पोरेशन वाली टुच्चई न चीनी, कोरियाई, जापानी एमएनसी में थी और न अमेरिकी, यूरोपियंस में। इस दौर में जिसने ठीक-ठाक पढ़ लिया, वो यूरोप और अमेरिका तक पहुंच गया। शोषित, दमित और भेदभाव झेल रहे लोगों को आसमान की बुलंदी आकर्षित करने लगी।
भेदभाव, दमन और सरकारी अनदेखी हमेशा नए रास्ते खोलती है। दुनिया सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट के सिद्धांत पर चलती है। 2014 के बाद कमज़ोर रेले जाने लगे तो उनमें सर्वाइवल के नए स्किल पैदा हो गए। अब तक सिर्फ नौकरी के लिए पढ़ रहे थे, अब श्रेष्ठता की रेस में हैं। पिछले दस वर्ष में किसी इम्तिहान की मेरिट मुसलमान के बिना पूरी नहीं हो रही।
मुसलमानों में भी बेहद निचले तबक़े और आर्थिक मजबूरी में जी रहे बच्चे बेहद शानदार कर रहे हैं। कुकुरमुत्ता स्कूलों की जगह अच्छे संस्थान बढ़ रहे हैं। शिक्षा में पारिवारिक निवेश बढ़ा है।
अब इलीट संस्थानों में दाख़िले की तैयारी वाले महंगे कोचिंग मुसलमान बच्चों से भरे हैं। विदेशी संस्थानों में दाख़िले के लिए भाषा और दूसरे स्किल हासिल कराने वाले, साथ ही साॅफ्ट स्किल मज़बूत करने वाले इंस्टीट्यूट्स की संख्या बढ़ी है। और तो और जो मौलवी कभी मज़हबी शिक्षा से आगे नहीं सोच पाते थे, आधुनिक शिक्षा का विरोध करते थे, वो भी अब हायर एजुकेशन की अहमियत पर लंबे-लंबे भाषण दे रहे हैं।
नतीजा, दुनिया का शायद ही को बड़ा संस्थान या यूनिवर्सिटी होगी जहां भारतीय मुसलमान अपनी उपस्थित दर्ज नहीं करा रहे हैं। सिंगापुर, लंदन, पेरिस, बर्लिन, न्यू यार्क, कोलंबिया अब ख़्वाब नहीं रह गए हैं। पढ़ाई छोड़िए, दुबई, दोहा, लंदन, पेरिस, सिंगापुर की पाॅश कालोनीज़ में भारतीय मुसलमान सिर उठाकर जी रहे हैं।
फिर यहां रेला कौन जा रहा है? ज़ाहिर है बेहद कमज़ोर या फिर वो जिसने यहां के लीचड़ तंत्र में प्रतियोगी बनने की कोशिश की है। ये न सिर्फ सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट वाला दौर है बल्कि ये भी देखने का वक़्त है आप रेस में किसके साथ दौड़ रहे हो। आप दुबई में दो करोड़ का घर लो। समाज सरकार, साथी, सब इज़्ज़त करेंगे। छतरपुर में पांच करोड़ की हवेली बना दो। पड़ोसी, सरकार, लफंगे, सब पीछे पड़ जाएंगे।
इसलिए, जो पीछे रह गए हैं वो कोशिश करें कि नए स्किल सीखें और अच्छी जगह रोज़गार तलाश करें। जिन्होंने अच्छा कमा लिया है वो दुनिया के उन शहरों में निवेश करें जहां हासिद, नीच और ज़लील लोग न रहते हों।
यहां अपना ठिकाना रखिए। साल में एक बार आकर मरे, गिरों की मदद कीजिए। त्यौहार घर पर अपने गांव में ही मनाइए। और साल के बाक़ी 340 दिन तनावमुक्त रहिए, मज़े कीजिए, और अपने परिवार के साथ क्वालिटी टाइम स्पेंड कीजिए। घेघले टेगलों के बीच वक़्त ज़ाया करना कहीं की समझदारी नहीं है। दुनिया तुम्हारे स्किल और दिमाग़ का इस्तेमाल करने के लिए बाहें फैलाए खड़ी है और तुम गधों से साथ रेस की तैयारियों में जुटे हो।