जम्मू-कश्मीर की चिनाब नदी के खतरनाक किनारों पर पिछले पंद्रह वर्षों से एक व्यक्ति ऐसे खड़ा है जो कई लोगों के लिए आख़िरी उम्मीद बन चुका है।
डोडा निवासी हमज़ा शेख न तो प्रशिक्षित रेस्क्यू वर्कर हैं, न किसी सरकारी एजेंसी से जुड़े। बिना वेतन, बिना उपकरण और बिना किसी सुरक्षा इंतज़ाम के, वह अब तक नदी से चार से पाँच सौ शव और करीब तीन सौ ज़िंदा लोगों को बाहर निकाल चुके हैं।
हमज़ा की कहानी तब शुरू हुई जब बांध टूटने के बाद चिनाब नदी का स्वरूप बदल गया। जो नदी पहले शांत थी, वह अचानक गहरी, तेज़ और बेहद ख़तरनाक हो गई। कई बाज़ार और बस्तियाँ पानी में समा गईं।
इसी दौरान नदी में दुर्घटनाएँ बढ़ने लगीं और हमज़ा ने दूसरों को बचाना अपना उद्देश्य बना लिया। वह बताते हैं कि उनका प्रशिक्षण कोई औपचारिक नहीं, बल्कि बचपन से नदी किनारे पले-बढ़े होने का अनुभव है।
नदी का बहाव इतना तेज़ है कि रेस्क्यू ऑपरेशन जान जोखिम में डालकर करना पड़ता है। हमज़ा अक्सर बिना देखे ही गोता लगाते हैं, क्योंकि नदी की रेत और कीचड़ से भीतर दृश्यता बिल्कुल नहीं रहती।
नदी की तलहटी में नुकीले पत्थर, तेज़ भँवर और बर्फ़ जैसे ठंडे पानी के बीच वह कई बार गंभीर रूप से घायल भी हुए हैं। एक हादसे में उनके सिर पर 60 से ज्यादा टांके लगे, लेकिन उन्होंने काम बंद नहीं किया।
हमज़ा का कहना है कि जीवित लोगों को बचाना मृतकों की तलाश करने से भी अधिक खतरनाक होता है, क्योंकि घबराए लोग कभी-कभी बचावकर्ता को भी डुबो देते हैं।
वह कई घटनाओं का ज़िक्र करते हैं जहाँ उन्होंने तेज़ बहाव में फँसे लोगों को बचाया, जिनमें महिलाएँ, छात्र और यहाँ तक कि एक प्रशिक्षित अधिकारी भी शामिल हैं। इसके बावजूद उन्हें आज तक न वेतन मिला है, न सरकारी सहायता—केवल तारीफ़ और लोगों की दुआएँ।
आज भी जब चिनाब में कोई हादसा होता है, लोग सबसे पहले हमज़ा को ही फ़ोन करते हैं, न कि अधिकारियों को। आधी रात हो या भोर, बरसाती बाढ़ हो या जमा देने वाली ठंड—हमज़ा हर कॉल पर पहुँचते हैं। घाटी में बढ़ते खतरों और संसाधनों की कमी के बीच, वह चुपचाप अपनी सेवा जारी रखे हुए हैं। चिनाब नदी की गर्जना के बीच खड़े हमज़ा आज भी इलाके के सबसे शांत और बहादुर नायक माने जाते हैं।

