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सम्पादकीय

इतिहास गवाह है कोई भी क़ौम और मुल्क कुर्बानी के बग़ैर तरक्की नही कर सकता

क़ुरबानी का नतीजा हमेशा ही अच्छा रहा है। इतिहास के पन्ने पलटकर देखिये, हर तरक़्क़ी और बुलन्दी के पीछे किसी न किसी की क़ुरबानी छिपी होगी। मामला आदमी की ख़ुशहाली का हो या क़ौम और मुल्क की तरक़्क़ी का, क़ुरबानी के बग़ैर इसका तसव्वुर भी मुमकिन नहीं है। जो शख़्स क़ुरबानी के बग़ैर तरक़्क़ी के ख़्वाब देखता है वो अहमक़ों की दुनिया में रहता है। इसीलिये तमाम आसमानी मज़हबों में क़ुरबानी की तालीम दी गई है और आज भी किसी न किसी शक्ल में मौजूद है।

ईदुल-अज़हा में जानवर की क़ुरबानी सिर्फ़ कबाब, बिरियानी, क़ोरमा और पाए खाने के लिये नहीं है, बल्कि क़ुरबानी के असल मक़सद की याददियानी के लिये है।

बदक़िस्मती से हमने अपने दीन को भी सिर्फ़ रस्मो-रिवाज का दीन बना लिया और उसकी रूह को भुला दिया। आप अगर अपने घर और ख़ानदान के ख़ुशहाल और तरक़्क़ी पाए हुए आदमी की ज़िन्दगी को गहराई से देखेंगे तो आपको मालूम होगा कि उसकी तरक़्क़ी में उसके बाप-दादा की कितनी क़ुरबानियाँ छिपी हुई हैं।

एक शख़्स अगर चाहता है कि तरक़्क़ी की ऊँचाइयों पर पहुँचे तो उसे पहले दिन से ही बहुत-सी चीज़ें छोड़ना पड़ती हैं। अपनी पढ़ाई के ज़माने में वो मोहल्ले के आम लड़कों की तरह खेलकूद में अपना वक़्त बर्बाद नहीं करता, वो रिश्तेदारों की शादी-ब्याहों में नहीं जाता, बल्कि वो अपने वक़्त का ज़्यादा तर हिस्सा अपनी तालीम पर ही ख़र्च करता है।

बचपन में उसकी भी ख़ाहिश होती है कि वो भी मौज-मस्ती करे, गुल-छर्रे उड़ाए, वो अपने घर के बड़ों को प्रोग्रामों में जाते हुए देखता है और मुँह बिसोर कर रह जाता है। वो जानता है कि अगर इन कामों में वक़्त बर्बाद करके उसने स्कूल और कॉलेज से ग़ैर-हाज़िरी की तो उसका रिज़ल्ट अच्छा नहीं आएगा। इसके साथ ही बाशुऊर माँ-बाप भी अपने बच्चे की तालीम की ख़ातिर बहुत-से प्रोग्रामों में नहीं जाते। पढ़ाई के ज़माने में ख़ाहिशात और जज़बात की ये क़ुरबानियाँ ही उसके भविष्य को रौशन बनाती हैं।

हदीस के इमाम, इमाम बुख़ारी हों या फ़िक़्ह के इमाम (इस्लामी क़ानूनविद) इमामे-आज़म अबू-हनीफ़ा, मेडिकल साइंस के इमाम बू-अली सीना हों या फ़िलॉसॉफ़ी (दर्शनशास्त्र) के इमाम ग़ज़ाली हों, बाबा-ए-क़ौम सर सैयद हों, मीज़ाइल मेन एपीजे अब्दुल-कलाम हों या बाबा-ए-तालीम डॉ मुमताज़ अहमद ख़ाँ हों, इन सबके नामवर और महान होने की सबसे बड़ी और बुनियादी वजह यही है कि इन्होंने अपने मक़सद को हासिल करने के लिये बड़ी से बड़ी क़ुरबानियाँ दीं।

एक शख़्स की तरह घर और ख़ानदान को तरक़्क़ी देने और ख़ुशहाल बनाने के लिये क़ुरबानियाँ दी जाती हैं। घर का मुखिया अगर खेलकूद में लगा रहे, अय्याशियाँ करे, ग़लत आदतों में पड़ जाए और फ़ालतू के कामों में वक़्त और पैसा बर्बाद करे तो वह घर बर्बाद हो जाता है।

भूख और लाचारी उस घर का मुक़द्दर बन जाती है। ज़िल्लत और रुस्वाई उसको घेर लेती है। जो लोग दिन का चैन और रातों का आराम क़ुरबान करके मेहनत करते हैं, ज़बान के ज़ायक़ों को लगाम देकर पैसा बचाते हैं, नाम और शोहरत और दिखावे से बचते हैं, ख़ुशहाली उनके क़दम चूमती है। तरक़्क़ी उनका मुक़द्दर बन जाती है।

घर और ख़ानदान की तरक़्क़ी के लिये बड़ों को अपने जज़बात और ख़ाहिशात की क़ुरबानी देनी ही पड़ती है। जॉइंट फ़ैमिली में अपनी पसन्द और नापसन्द और अपनी राय की क़ुरबानी भी देनी पड़ती है। जो लोग ये क़ुरबानियाँ नहीं देते वो बहुत दिनों तक एक साथ नहीं रह पाते और नतीजे के तौर पर घर के टुकड़े हो जाते हैं, कारोबार और रिसोर्सेज़ (संसाधन) तक़सीम हो जाते हैं, अंजाम के तौर पर कभी-कभी ख़ुशहाल ख़ानदान भी ग़रीबी का शिकार हो जाता है। माँ-बाप की क़ुरबानियाँ औलाद के उज्जवल भविष्य की ज़मानत हैं और औलाद की क़ुरबानियाँ बूढ़े माँ-बाप के लिये राहत और रहमत का सामान हैं।

एक शख़्स और घर की तरह क़ौमों के उतार-चढ़ाव में क़ुरबानी का अहम् रोल है। क़ौमों की तरक़्क़ी और ख़ुशहाली में क़ौम के रहनुमाओं की क़ुरबानियाँ काम कर रही होती हैं।

जिस क़ौम के लीडर क़ुरबानियाँ देते हैं वो क़ौम तरक़्क़ी की बुलन्दी हासिल कर लेती है। इतिहास क़ौम के रहनुमाओं से जिस चीज़ की क़ुरबानी चाहता है वह शोहरत और पद की ख़्वाहिश है। यानी वह चाहता है कि क़ौम के लीडर पद और ओहदे के लालच में क़ौम का सौदा न करें, ज़ाती फ़ायदों की ख़ातिर इज्तिमाई फ़ायदे क़ुरबान न किये जाएँ। वे कुरदोग़लू का किरदार अदा न करें, ईमान बेचने का कारोबार न करें।

आप हर क़ौम का इतिहास पढ़ लीजिये, जब-जब उस क़ौम के फ़ायदों की ख़ातिर ख़ुद को सूली और फाँसी तक पहुँचा दिया, उनको भी इज़्ज़त मिली और उनके बाद उनकी क़ौम को भी तरक़्क़ी हासिल हुई।

भारत में हमारी पड़ौसी क़ौम जो इस वक़्त तरक़्क़ी हासिल कर रही है उसके पीछे उनके बुज़ुर्गों की बड़ी क़ुरबानियाँ हैं। संघ के सर-संघचालकों ने शादियाँ नहीं कीं, उन्होंने अपने निजी भविष्य की क़ुरबानी देकर क़ौम के भविष्य को उज्जवल बनाया, कौन नहीं चाहता कि उसका घर हो, उसके बीवी बच्चे हों, उसका वंश बाक़ी रहे, लेकिन उनके लीडर्स ने त्याग और बलिदान का रास्ता अपनाकर क़ौम की तरक़्क़ी का रास्ता बनाया।

हम इस पर बहस करते रहे कि ग़ैर-शादी शुदा ज़िन्दगी फ़ितरत और दीन के ख़िलाफ़ है। अपनी महफ़िलों में उनकी ज़िन्दगी पर कीचड़ उछालते रहे, हमारी आँखें उनकी क़ुरबानी को न देख सकीं, आलिम उन्हें जहन्नमी कहते रहे और उन्होंने आलिमों की दुनिया ही जहन्नम बना दी।

योगी और मोदी को बुरा कहने वाले ज़रा संघ की 96 साल की मेहनत का भी अन्दाज़ा करें। 96 साल के लम्बे सफ़र में संघ में लीडरशिप को लेकर कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ, वे संघठित रहे, उनमें किसी बात को लेकर कोई गरोह-बन्दी नहीं हुई और हमारी दीनी तंज़ीमें तक बार-बार बँटती रहीं।

हमारे रहनुमा ‘अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और गरोहों में तक़सीम न हो जाओ’ की तिलावत करते रहे और टुकड़े टुकड़े होकर गरोह बनते रहे। ‘आपस में रहमदिल’ का झण्डा उठाने वाले एक-दूसरे के क़त्ल के दर पे हो गए। जिसका नतीजा हमारे सामने है।

मेरे अज़ीज़ो ! भारत के मुसलमानों की मौजूदा सूरते-हाल में अगर बदलाव चाहते हो तो क़ुरबानी का हौसला पैदा करो। पदों और ओहदों की ख़्वाहिश से ख़ुद को पाक रखो। इस दौड़ में ख़ुद को शामिल करके इज्तिमाइयत को बर्बाद मत करो।

मैं देख रहा हूँ कि हममें से हर शख़्स अपनी इज्तिमाइयत का सरबराह बनना चाहता है। ख़िदमत के नाम पर पद की तमन्ना रखता है। उसके लिये भागदौड़ करता है। सिफ़ारिशें करवाता है। चापलूसी करता है। ना-अहल होते हुए भी ज़िम्मेदारियों का ताज पहनना चाहता है।

हमारी ये रविश दीन और दुनिया दोनों मामलों में है। माफ़ कीजियेगा दीन के ठेकेदारों में भी यही सब कुछ हो रहा है और दुनिया की समाजी और सियासी तंज़ीमों में भी यही खेल जारी है।

जब तक ये रवैया नहीं बदलेगा, क़ौम की तक़दीर नहीं बदलेगी। जब तक हम अपने जज़्बात, अपनी ख़ाहिशात, अपनी आरज़ूओं और तमन्नाओं का ख़ून नहीं करेंगे किसी इन्क़िलाब की उम्मीद पैदा नहीं होगी। इसलिये कि कोई भी इन्क़िलाब ख़ून बहाए बग़ैर नहीं आता वो ख़ून चाहे रगों में दौड़नेवाला हो, या आरज़ू और तमन्ना की शक्ल में।

ईदुल-अज़हा का मुक़द्दस और मुबारक त्यौहार और सैयदना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी हमें यही सबक़ देती है कि हम ज़ाती फ़ायदों पर इज्तिमाई फ़ायदों को प्राथमिकता दें। इसलिये कि हर आदमी का मुस्तक़बिल उसकी क़ौम के भविष्य से वाबस्ता है। ये हरगिज़ मुमकिन नहीं कि क़ौम ज़लील और ग़ुलाम हो और उस क़ौम का आदमी बा-इज़्ज़त और आज़ाद हो। आइये इस ईद पर हम अहद करें कि हम अपने घर और क़ौम की ख़ुशहाली के लिये हर तरह की क़ुरबानी देंगे।

(यह लेखक के अपने विचार है लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष है)

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