Journo Mirror
सम्पादकीय

मुसलमान इस देश में ऐसे रह रहे हैं जैसे कोई किराएदार मकान मालिक के रहम-व-करम पर रहता है।

भारत आज़ाद हुआ तो भारतीयों को भी आज़ादी का दिन देखना नसीब हुआ। मगर यह आज़ादी हर भारतवासी के लिये फ़ायदेमंद साबित नहीं हुई।

मज़दूर, किसान, ग़रीब और बद-हाल लोगों के हिस्से में 15 अगस्त का दिन सिर्फ़ एक क़ौमी त्यौहार बन कर रह गया। 74 साल गुज़र जाने के बाद भी भारतवासियों को वह आज़ादी नहीं मिली जिसके लिये उन्होंने बलिदान दिया था।

ऐसा महसूस हुआ कि आज़ादी के नाम पर केवल इतना बदलाव आया कि गोरे अंग्रेज़ों की जगह काले अंग्रेज़ हुकमराँ बन गए। वही ज़ोर-ज़बरदस्ती जो ब्रिटिश राज में थी, आज भी है। उस वक़्त अँगरेज़ शासक के ख़िलाफ़ कुछ लिखना और बोलना नाक़ाबिले-माफ़ी जुर्म था। आज भी सरकार को कुछ बोलना देश से ग़द्दारी करने के बराबर है। इसका मतलब यह हुआ कि ग़ुलामी तो अभी भी है, लेकिन उसका चेहरा बदल गया है।

ख़ास तौर पर जिस तबक़े को सबसे कम आज़ादी मिली वह मुसलमान हैं। मुसलमान इस देश में ऐसे रह रहे हैं जैसे कोई किराएदार मालिक मकान के रहम-व-करम पर रहता है।

इसके बावजूद कुछ बुद्धिजीवी लोग कहते हैं कि “मुसलमान इस देश में न राजा हैं और न ही ग़ुलाम बल्कि वे सत्ता में बराबर के भागीदार हैं” मगर उनका ये कहना ”दिल को ख़ुश करने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है” के बराबर है।

सत्ता में बराबर की भागीदारी होने की बात तो छोड़िये, आप अपनी आबादी के हिसाब से भी कहीं बराबर नहीं हैं। क़ौम के बुद्धीजीवी लोग जिसे सत्ता में भागीदारी का नाम दे रहे हैं वह एक सेराब (मरीचिका) के सिवा कुछ नहीं है।

सत्ता का मतलब होता है कि कोई शख़्स अपने अधिकारों का इस्तेमाल संविधान के अंदर रह कर अपने मन की आज़ादी और ज़मीर की आवाज़ पर कर सके।

जिस देश में मुसलमानों को दस्तरख़ान पर मेनयु को चुनने की भी आज़ादी न हो उसे सत्ता में बराबर की भागीदारी की बात कह कर आप ग़लतफ़हमी में हैं। जहाँ दाढ़ी और टोपी देख कर लिंचिंग हो रही हो, जहाँ अज़ानों की आवाज़ें कानों पर बोझ हो रही हों, वहाँ तो आज़ादी ही ख़तरे में है सत्ता में भागीदारी की तो बात ही छोड़ दीजिये।

शिक्षा के मैदान में आप पर भगवा सिस्टम मुसल्लत, बाज़ार में आप के साथ भेद-भाव, सरकारी नौकरियों में लगातार गिरती हुई तादाद, प्रमोशन में आप के साथ धाँधलेबाज़ी, मस्जिदों में ग़ैर-महफ़ूज़, इज़्ज़त और नाम दाव पर, सियासत में पार्टी व्हिप की मजबूरी, इसके बावजूद भी अगर आप को लगता है कि भारत में मुसलमान ग़ुलाम नहीं आज़ाद हैं बल्कि सत्ता में बराबर का हिस्सेदार हैं तो ये सुहाने ख़्वाब आप को मुबारक हों।

जिस क़ौम की पाँच सो साल पुरानी इबादत-गाह दिन के उजाले में गिरा दी जाए और फिर एक लम्बी अदालती कार्रवाई के बाद “भव्य राम मंदिर” बनवा दिया जाए। जिसके पर्सनल लॉ में गड़बड़ी करने के दरवाज़े खोल दिये जाएँ, जिसके वजूद पर ही सवाल किया जाए।

अगर इस क़ौम के बुद्धिजीवी लोग ख़ुद को आज़ाद समझते हैं और सत्ता में बराबर के हिस्सेदार मानते हैं तो इस क़ौम को ग़ुलामी की और भी गहरी दलदल में जाने से कौन रोक सकता है?

मुझे लगता है कि शायद इलेक्शन में हिस्सा लेने की आज़ादी को हम सत्ता में भागीदारी समझ रहे हैं। इस बारे में याद रखना चाहिये कि हम जिस पार्टी के उम्मीदवार होते हैं हमारी आज़ादी उस पार्टी के पास गिरवी रखी होती है।

बीते हुए सत्तर सालों में कितने ही मौक़े ऐसे आए जब पार्लियामेंट में इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ क़ानून बनाए मगर पार्लियामेंट में बैठे हमारे मुस्लिम मेम्बरों ने पार्टी व्हिप के पाबंद रहते हुए या तो उस बिल के हक़ में वोट दिया, या ज़्यादा से ज़्यादा ग़ैर हाज़िर रहे या बीमार हो गए।

तीन-तलाक़ बिल पर वोटिंग के दिन एक साहब, जो पार्लियामेंट के मेंबर थे, उनका पेट ख़राब हो गया था। कांग्रेस के एक मेंबर जो बग़ल में जा-नमाज़ रखते थे, बाबरी मस्जिद पर जब उनसे कहा गया कि पार्लियामेंट के मुस्लिम मेम्बरों को कम से कम इस्तीफ़ा दे देना चाहिये तो उनका जवाब था कि हम मुसलमानों के नुमाइन्दे नहीं बल्कि कांग्रेस के नुमाइन्दे हैं।

क्या इसे हम सत्ता में बराबरी का हिस्सेदार कह रहे हैं? तमाम राजनीतिक पार्टियों का इतिहास पढ़ लीजिये जिनके लीडर्स ग़ैर-मुस्लिम हैं। उनके दरबार में मुस्लिम लीडर्स की हैसियत सिर्फ़ इतनी है कि वे मुस्लिम वोटों के व्यापारी समझते जाते हैं।

समाजवादी पार्टी कई बार सत्ता में आई लेकिन मुसलमानों को क्या मिला? वो आज़म ख़ाँ जिसके नाम पर मुस्लिम वोट हासिल किये जाते रहे आज जेल में अपने दिन गिन रहे हैं और पार्टी के मुखिया बाप और बेटे योगी जी के साथ नाश्ते उड़ा रहे हैं।

वहीं डॉ मोहम्मद शहाबुद्दीन (अल्लाह उनकी मग़फ़िरत करे) जिनके बल पर लालू यादव हुकूमत के मज़े लूटते रहे, जब वक़्त आया तो तसल्ली के दो बोल भी न बोल सके। कितने ही याक़ूब क़ुरैशी, कोकब हमीद, नसीम सिद्दीकी, मुनक़ाद अली अपनी-अपनी पार्टियों में पदों पर रहते हुए भी क़ौम के लिए कुछ न कर सके।

आज भी एस टी हसन, कुँवर दानिश अली, शफ़ीक़ुर-रहमान बर्क़ जैसे बा-शऊर लोग मौजूद हैं मगर अपनी राजनीतिक पार्टी की पालिसी के पाबंद हैं।

कुँवर दानिश अली ने तीन तलाक़ पर और कश्मीर पर ज़मीर की आवाज़ पर कुछ कह दिया तो बहन जी ने उनको पार्लियामेंट में पार्टी के लीडर की पोस्ट से ही हटा दिया।

यूपी में मुख़्तार अंसारी की और दिल्ली में ताहिर हुसैन की ख़बर लेने वाला कोई नहीं, ऐसा नहीं है कि मुस्लिम सियासी लीडर अपनी औक़ात न समझते हों। वो सब जानते हैं, उनमें से हर एक को मालूम है कि पार्टी के फ़ैसलों में उनका कितना रोल है। वो अपने मोहल्ले में एक स्कूल नहीं बनवा सकते, एक अस्पताल नहीं खुलवा सकते।

इस दर्द का तन्हाई में वो इज़हार भी करते हैं। मगर पार्टी में रह कर अपनी बात मनवाने का उनमें अब दम नहीं और न किसी मुस्लिम लीडरशिप को तस्लीम करने की हिम्मत है।

ग़ैरों को हाथ जोड़ कर नमस्ते करने वाले अपनों को सलाम करने से हिचकिचाते हैं, अपनों का साथ देने से उन्हें लोकतंत्र ख़तरे में पड़ता दिखाई देता है। देश में मुसलमानों की बदतरीन हालत के लिये यही मुस्लिम लीडरशिप ज़िम्मेदार है जिसने अपने वोटों का सौदा किया और अपनी क़ौम को बेच डाला।

पूरी पार्लियामेंट में कौन है जो मुसलमानों और मज़लूमों पर खुलकर बात करता है, जो दिन को दिन और रात को रात कहता है? पहले वह अकेला था, इत्तिफ़ाक़ से अब वो एक से बढ़ कर दो हो गए हैं। जो अपने ज़मीर की आवाज़ पर इसलिये बोल जाते हैं कि वो पार्टी व्हिप से ज़यादा संविधान के वफ़ादार हैं।

मेरे अज़ीज़ो ! तुमने सत्तर साल तक कांग्रेस को ख़ून देकर सींचा, तुमने अपने वोटों और नोटों से लालू, मुलायम, नीतिश, केजरीवाल, ममता और माया को मालामाल किया और मज़बूत किया जिसके बल पर उन्होंने अपनी ब्रादरियों को ताक़तवर बना दिया और तुम्हें सियासी दिवालिया कर दिया। सिर्फ़ एक बार किसी अपने को भी मज़बूत करके देख लो, आख़िर वो भी तुम्हारा भाई है।

एक कहावत मशहूर है “ग़ैर मारे धूप में डाले और अपना मारे छावँ में डाले” इस बात पर यक़ीन रखो कि तुम्हारी अपनी लीडरशिप कभी ज़ुल्म के साथ खड़ी नहीं हो सकती, कभी इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं जा सकती। हमारी सियासी ग़ुलामी इसी तरह ख़त्म हो सकती है।

अपनी सियासी ग़ुलामी से आज़ादी हासिल करने का ये बहुत अच्छा वक़्त है क्योंकि हमने सबको आज़मा कर देख लिया है।

हम पर किसी का वोट उधार नहीं है। कोई हमसे शिकायत नहीं कर सकता और कोई यह नहीं कह सकता कि हमें वोट दो वरना बीजेपी आ जाएगी, क्योंकि उनको वोट देने के बाद भी बीजेपी आ चुकी है।

(लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष है)

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