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सम्पादकीय

फ़िरोज़ भाई के हाथों से चांदी का मुकुट पहनने वाले अखिलेश ने उनके क़त्ल पे एक ट्वीट करना ज़रूरी नहीं समझा

अबु आसिम आज़मी और अखिलेश यादव के बीच में जिस शख़्स को आप देख रहे हैं यह उत्तर प्रदेश के बलरामपुर ज़िले के तुलसीपुर नगर पंचायत के पूर्व अध्यक्ष फ़िरोज़ ख़ान ‘पप्पू’ हैं। जिनका चार रोज़ क़ब्ल सरेआम क़त्ल हुआ था।

फ़िरोज़ ख़ान कुछ ही दिन पहले समाजवादी पार्टी जॉइन किये थे। जब इन्होंने सपा जॉइन किया था तब अबु आसिम आज़मी और अखिलेश यादव को चांदी का मुकुट पहनाया था। मरहूम फ़िरोज़ ख़ान की बीवी अभी तुलसीपुर नगर पंचायत का अध्यक्ष हैं।

आज से दो रोज़ पहले यूपी में ही एक शख़्स की सांढ़ ने मार मारके जान ले लिया। ये उस शख़्स की क़ुदरती मौत थी। उसकी मौत का ज़िम्मेदार आप किसी को नहीं ठहरा सकते हैं। क्योंकि वो क़त्ल नहीं था। बावजूद इसके सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ट्वीट करना नहीं भूले।

ख़ैर मुझे इससे ऐतराज़ नहीं है। ये अच्छी बात है। यूपी के किसी भी ज़िले में क़त्ल/मौत होती है अखिलेश यादव ट्वीट करना नहीं भूलते हैं। इसमें जो अहम है वो ये कि मरने वाले की जाति लिखना नहीं भूलते हैं। ‘इल्ला मुसलमानों’ के….

मैं अखिलेश यादव के दर्जनों ऐसे ट्वीट दिखा सकता हूँ जिसमें वो बाक़ायदा मरने वाले की जाति लिखके ट्वीट करते हैं लेकिन जब किसी मुसलमान की मौत होती है तो उनके क़लम की स्याही सूख जाती है और अगर ग़लती से ट्वीट कर भी दिया तो मक़तूल का धर्म ‘मुसलमान’ लिखते वक़्त उनकी उंगली टूट जाती है। ये सब नज़ारे आप उनकी ट्विटर हैंडल पे जाके देख सकते हैं।

चार रोज़ बीत गए मरहूम फ़िरोज़ ख़ान की क़त्ल का लेकिन फ़िरोज़ भाई के हाथों से चांदी का मुकुट पहनने वाले अखिलेश ने उनके क़त्ल पे एक ट्वीट करना ज़रूरी नहीं समझा। उनके क़ातिलों को सज़ा दिलाने की बात नहीं कही। उनके घर वालों ढांढस बंधाने के लिए ज़बान से दो लफ़्ज़ नहीं बोला।

हालात ये हैं कि यूपी के मुसलमानों के वोट को अपनी जागीर समझने वाले सपा सुप्रीमो मुसलमानों का नाम तक लेने से परहेज़ कर रहे हैं। उनकी दर्जनभर ट्वीट ऐसी भी हैं जिसमें वो ‘दलित, पिछड़ों, किसानों, महिलाओं, मज़दूरों’ को लेके ट्वीट करेंगे लेकिन उस ट्वीट से लफ़्ज़-ए-मुसलमान ग़ायब रहता है।

जबकि उत्तर प्रदेश में मज़हबी, सियासी, सामाजिक तौर पे सबसे ज़्यादह किसी पे तशद्दुद हो रहा है तो वो है मुसलमान लेकिन मुसलमानों के वोट पे दावेदारी करने वाले अखिलेश यादव मुसलमानों का नाम लेने से ऐसे परहेज़ कर रहे हैं जैसे शुगर का मरीज़ मीठे से परहेज़ करता है।

ठीक है। मैं सियासत कर रहा हूँ। सेक्युलरिज़्म के माई-बाप अखिलेश यादव पे सवाल खड़ा करना ग़लत है। लेकिन क्या फ़िरोज़ ख़ान के क़त्ल के चार दिन बाद भी अखिलेश यादव की ख़ामोशी पे सवाल नहीं होना चाहिए?

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक Shahnawaz Ansari मुस्लिम एक्टिविस्ट हैं)

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