महिलाएँ समाज का आधा हिस्सा हैं, किसी भी समाज और क़ौम की तरक़्क़ी और ख़ुशहाली में औरतों का अहम रोल है। लेकिन औरतों के ताल्लुक़ से हमेशा बेतवज्जोही बरती गई है। हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने भी इस सिलसिले में कोई ख़ास रोल अदा नहीं किया, बल्कि मौजूदा ज़माने में तो दुनिया ने औरतों के पिछड़ेपन की ज़िम्मेदारी मुसलमानों और इस्लाम पर डाल दी है। इस बात से हटकर कि दुनिया के इल्ज़ामात कितने सच्चे और कितने झूटे हैं हमें अपने समाज का जायज़ा लेना ही चाहिये और आधी इन्सानियत को ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदेमन्द बनाने की प्लानिंग करनी ही चाहिये।
इस्लाम ने औरतों को समाज में जो मक़ाम दिया है और इंसानियत को बनाने और बनाए रखने में इसका जो बुनियादी किरदार तय किया है उसके मुक़ाबले पर आज न किसी आसमानी दीन और न आज की सभ्यता ने औरत को कोई मक़ाम दिया है। लेकिन बुरा हो जहालत का कि ख़ुद इस्लाम का झण्डा उठानेवाले ही औरत के ऊँचे मक़ाम को भूल गए। काश! मुसलमान औरतों के ताल्लुक़ से ही इस्लाम की तालीमात पर अमल करने लगे तो बाक़ी औरतों के लिये भी इस्लाम के दामने-रहमत में आने का रास्ता आसान हो जाए।
औरत के जितने भी रूप हैं वो क़ाबिले-एहतिराम हैं। बीवी होने की सूरत में उसके शौहर पर जो हक़ हैं वो उसे घर की मलिका बना देते हैं। माँ होने की सूरत में तो जन्नत उसके क़दमों में समाँ जाती है। बेटी होने की सूरत में माँ-बाप के लिये जन्नत का सर्टिफ़िकेट होती है। बहन होने की शक्ल में भाई के लिये एक ऐसा दुलार होती है जिसे भाई-बहन ही समझ सकते हैं और इस दुलार की कमी की तकलीफ़ का अन्दाज़ा सिर्फ़ वही लोग लगा सकते हैं जो बहन जैसी अनमोल नेमत से महरूम हैं।
इस्लाम ने औरत को ज़िन्दा रहने, तालीम हासिल करने, अपनी पसन्द की शादी करने, कारोबार करने, सरकारी सेवाओं में हैसियत के मुताबिक़ देश की सेवा करने, ज़रूरत पड़ने पर हथियार उठाने, अपनी और अपने वतन की हिफ़ाज़त करने तक की आज़ादी दी है। अब ये ज़िम्मेदारी समाज के मर्दों की है कि वो ऐसे हालात पैदा करें और वो ज़रिए सामने लाएँ कि औरत अपनी आज़ादी और इख़्तियार का इस्तेमाल करते हुए अपने फ़रायज़ अदा कर सके।
महिलाओं के अन्दर सलाहियतें भी किसी तरह मर्दों से कम नहीं होतीं। ताक़त और क़ुव्वत के मामले में भी अगर औरतों को मौक़ा मिला है तो उन्होंने मर्दों के काँधे से काँधा मिलाकर पत्थर भी उठाए हैं और जंगें भी लड़ी हैं। लेकिन आम तौर पर जिस्मानी बनावट में मर्दों के मुक़ाबले कुछ कमज़ोरी पाई जाती है वरना अक़्ल और शुऊर की तमाम सलाहियतें मर्दों की तरह उसे भी दी गई हैं। इसका सुबूत हर ज़माने की औरतों ने दिया है।
हाफ़िज़े-क़ुरआन, आलिमा, टीचिंग के मैदान में औरतों ने हर ज़माने में मर्दों के बराबर कामयाबी हासिल की है। मॉडर्न एजुकेशन के मैदान में भी डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, साइंटिस्ट यहाँ तक कि हवाई जहाज़ उड़ाने के कामों में औरतें आज भी मौजूद हैं, मगर वो अपनी तादाद के अनुपात से बहुत कम हैं। ख़ुलूस और लगन के बारे में तो औरतें मर्दों से कहीं आगे हैं। लड़कियों का रिज़ल्ट लड़कों से ज़्यादातर बेहतर ही सामने आया है।
औरतों के पिछड़ेपन की बड़ी वजह सरकारों की तरफ़ से उनकी तादाद और आबादी के मुताबिक़ सहूलतों की कमी है। जिस तादाद में लड़कों के स्कूल-कॉलेज हैं, लड़कियों के नहीं हैं। को-एड तालीमी इदारों में लड़कों की तरफ़ से जो बद्तमीज़ियाँ होती हैं उसको रोकने का भी कोई इन्तिज़ाम नहीं है। शहरों में अगर कोई लड़कियों का स्कूल है भी तो देहात की लड़कियों को आने-जाने की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। बलात्कार के आए दिन होनेवाले केस लड़कियों को घर में क़ैद होने पर मजबूर करते हैं।
इन्सानी दरिन्दे नाबालिग़ और मासूम बच्चियों तक को नहीं छोड़ते, इज़्ज़त के चले जाने का डर बच्चियों की तमन्नाओं का ख़ून कर देता है, उनकी सलाहियतों से समाज को महरूम कर देता है। क़ानून-व्यवस्था की मौजूदा सूरतेहाल में सिविल डिफ़ेन्स तक में काम करनेवाली लड़की की इज़्ज़त और जान महफ़ूज़ नहीं है तो ऐसे में आम लड़कियाँ किस तरह हिम्मत कर सकती हैं।
को-एड एजुकेशन के हिमायतियों ने बराबरी के नाम पर लड़कियों को लड़कों की हवस का शिकार होने से बचाने के लिये कोई प्लानिंग नहीं की है जिसका नतीजा ये हुआ कि एक तरफ़ गर्ल्स कॉलेजों की तादाद कम हो गई और को-एड इदारों में तालीम के बजाय शीरीं-फ़रहाद के किरदार जन्म लेने लगे। मुस्लिम समाज ही नहीं हर बा-इज़्ज़त शहरी को सबसे पहले अपनी बच्ची की इज़्ज़त की हिफ़ाज़त दरकार है। मैं नहीं समझता कि भारत में कोई एक आदमी भी ऐसा हो जो अपनी बच्चियों के साथ बलात्कार को बर्दाश्त कर सकता हो। सम-लैंगिक शादियों और लिव-इन-रिलेशनशिप को क़ानूनी दर्जा हासिल हो जाने के बावजूद भारतीय समाज ने इस बेशर्मी को धुत्कार दिया है।
मुसलमानों ने भी बच्चियों की तालीम का माक़ूल बंदोबस्त नहीं किया। हर मर्द और औरत के लिये तालीम को फ़र्ज़ कहनेवाले नबी की उम्मत में न जाने किसने ये जहालत पैदा कर दी कि बच्चियों को तालीम से महरूम रखना चाहिये। उम्मत ने लड़कों की तालीम के लिये मदरसे बनाने का सिलसिला शुरू किया लेकिन लड़कियों की तालीम का कोई इन्तिज़ाम नहीं किया। अब कहीं जाकर कुछ इदारे वुजूद में आए लेकिन इनको उँगलियों पर गिना जा सकता है। हज़ारों दारुल-उलूम लड़कों के लिये क़ायम किये गए लेकिन लड़कियाँ मस्जिद के इमाम और मोहल्ले की मुल्लानी तक महदूद होकर रह गईं।
गाँव-देहात का तो ज़िक्र ही क्या बड़े-बड़े शहर मुस्लिम लड़कियों के तालीमी इदारों से महरूम हैं। ये नारा भी हमेशा लगाया जाता रहा कि एक मर्द की तालीम सिर्फ़ एक मर्द की तालीम है जबकि एक औरत की तालीम एक ख़ानदान की तालीम है मगर औरत को हमेशा दूसरे दर्जे का शहरी बनाकर रखा गया। कभी ये ख़याल नहीं आया कि पहले लड़कियों की तालीम का इन्तिज़ाम किया जाए, लड़कों का बाद में कर लेंगे, हमेशा और हर जगह यही हुआ कि पहले लड़कों की तालीम का इन्तिज़ाम किया गया और लड़कियों को ‘फिर कभी’ पर छोड़ दिया गया।
ज़रूरत है कि औरतों की सलाहियतों को सामने लाएँ और उन्हें समाज के लिये फ़ायदेमन्द बनाने के लिये सरकार भी प्लानिंग करे और प्राइवेट इदारे भी। समाज और मज़हबी तंज़ीमों की ज़िम्मेदारी भी है कि वो इस तरफ़ ख़ास तवज्जोह दें। औरत की सलाहियतों से समाज और देश को फ़ायदा पहुँचाने के लिये उसे तालीम और साज़गार माहौल के साथ बा-इख़्तियार बनाने की भी ज़रूरत है। कहने को तो सियासी स्तर पर पंचायत और लोकल बॉडीज़ के चुनावों में औरतों को पचास प्रतिशत तक रेज़र्वेशन हासिल है लेकिन औरतों में तालीम की कमी होने की वजह से उनके सियासी इख़्तियारात भी मर्द ही इस्तेमाल करते हैं ख़ास तौर पर मुस्लिम समाज की सूरते-हाल सौ परसेंट यही है।
इसलिये ज़रूरी है कि सरकारी सतह पर तालीम के तमाम विभागों तक औरतों की आसानी और हिफ़ाज़त के साथ पहुँच हो, ग़ैर-सरकारी NGOs ख़ास तौर पर देहात पर तवज्जोह दें, मज़हबी तंज़ीमें मज़हबी तालीम के साथ-साथ दुनियावी तालीम का बंदो-बस्त करें। बासलाहियत औरतों की भी ज़िम्मेदारी है कि वो अपनी सलाहियतों से समाज को फ़ायदा पहुँचाएँ। हर पढ़ी-लिखी औरत अपने इल्म के मुताबिक़ बस्ती और मोहल्ले की लड़कियों को फ़ायदा पहुँचाए।
तालीम की गरवीदा लड़कियाँ भी हिम्मत और हौसले से काम लें और मौजूदा संसाधनों के साथ ही ऑनलाइन एजुकेशन सिस्टम से फ़ायदा उठाएँ। इसी तरह हुनरमन्द औरतें अपने हुनर का इस्तेमाल अपने घर की ख़ुशहाली के लिये कर सकें इसके मौक़े भी उनको दिये जाने चाहियें। महँगाई के इस दौर में हुनरमन्द औरतों की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।
ये भी ज़रूरी है कि जहेज़, बरात, शादी और मरने-जीने की ग़ैर-इस्लामी और फ़ुज़ूल रस्मों को छोड़ा जाए, ताकि इस रक़म का इस्तेमाल औरतों की तालीम और तरक़्क़ी और घर की ख़ुशहाली पर किया जा सके। समाज के सामूहिक मामलों में औरतों को ज़रूर शामिल किया जाए। ताकि वो सामने आने वाले चैलेंजेज़ को समझ सकें और उनके मुक़ाबले के लिये ख़ुद को तैयार कर सकें।
मैं देखता हूँ जितनी भी सियासी, समाजी और मज़हबी तंज़ीमें, जमाअतें और संगठन हैं उनमें औरतें आटे में नमक के बराबर ही शामिल हैं। होना ये चाहिये कि उनकी हैसियत चावल के साथ-साथ कम से कम दाल की तो हो।
(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष हैं)