ईरान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मंगलवार को पुष्टि की कि ईरान और अमेरिका के बीच जारी अप्रत्यक्ष परमाणु वार्ता का चौथा दौर रविवार को ओमान की राजधानी मस्कट में आयोजित किया जाएगा। यह वार्ता 2015 के परमाणु समझौते (JCPOA) को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से हो रही है, जिसे अमेरिका ने 2018 में छोड़ दिया था और उसके बाद से ही दोनों देशों के बीच तनाव बना हुआ है। इससे पहले तीन दौर की बातचीत भी मस्कट में यूरोपीय मध्यस्थों की मौजूदगी में हुई थी।
जानकारों के अनुसार, अब तक हुई बातचीत में कोई बड़ा ठोस नतीजा नहीं निकला है, लेकिन दोनों पक्ष वार्ता को जारी रखने पर सहमत हैं, जो किसी समझौते की ओर एक सकारात्मक संकेत माना जा रहा है। ईरान चाहता है कि उस पर लगे प्रतिबंध हटाए जाएं, जबकि अमेरिका इस बात की गारंटी चाहता है कि ईरान परमाणु बम की दिशा में कोई कदम नहीं उठाएगा। ओमान, जो दोनों पक्षों के साथ अच्छे संबंध रखता है, इस वार्ता में एक भरोसेमंद मध्यस्थ की भूमिका निभा रहा है। अब सबकी निगाहें चौथे दौर की इस अहम वार्ता पर टिकी हैं, जिससे क्षेत्रीय स्थिरता और अंतरराष्ट्रीय परमाणु सुरक्षा को लेकर नई दिशा मिल सकती है।
इससे पहले अमेरिकी वेबसाइट “Axios” ने राष्ट्रपति ट्रंप के मध्य पूर्व के लिए विशेष दूत स्टीव विटकॉफ़ के हवाले से बताया था कि अमेरिका इस सप्ताह ईरान के साथ परमाणु कार्यक्रम पर चौथे दौर की वार्ता की कोशिश कर रहा है। दूत के अनुसार वार्ता में कुछ प्रगति हुई है और राष्ट्रपति ट्रंप इस मुद्दे का समाधान कूटनीतिक तरीके से चाहते हैं, इसलिए हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं।
वार्ता का चौथा दौर कितना कामयाब हो सकता है ?
ब्रिटिश समाचार एजेंसी से बात करते हुए एक ईरानी सूत्र ने बताया कि यह चौथा दौर मस्कट में दो दिन चलेगा—यह शनिवार और रविवार या फिर रविवार और सोमवार को हो सकता है। ईरानी सरकारी मीडिया ने इसके संभावित दिन के रूप में 11 मई का ज़िक्र किया है। गौरतलब है कि यह वार्ता पहले 3 मई को रोम में होनी थी, लेकिन “प्रशासनिक कारणों” से इसे स्थगित कर ओमान स्थानांतरित कर दिया गया। इस बीच, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार धमकी दे रहे हैं कि, अगर ईरान ने उनकी सरकार के साथ कोई समझौता नहीं किया तो वे ईरान पर हमला कर सकते हैं।
डोनाल्ड ट्रंप की धमकी भरी भाषा ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि अमेरिका अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के बुनियादी सिद्धांतों का सम्मान नहीं करता। ट्रंप यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वह ईरान के साथ कोई ऐसा समझौता करना चाहते हैं, जिसमें सिर्फ अमेरिकी हितों को प्राथमिकता दी जाए, और ईरान को पूरी तरह झुकना पड़े। यह न केवल नाइंसाफी है, बल्कि एकतरफा वर्चस्व की खतरनाक मानसिकता का प्रतीक भी है।
ईरान शुरू से इस बात पर ज़ोर देता रहा है कि कोई भी समझौता तभी टिकाऊ और स्वीकार्य होगा जब उसमें दोनों पक्षों की गरिमा और संप्रभुता का ध्यान रखा जाए। ट्रंप द्वारा दी जाने वाली धमकियाँ, चाहे वह सैन्य हमले की हो या आर्थिक प्रतिबंधों की, केवल तनाव को बढ़ाने का काम करती हैं, न कि समाधान ढूंढने का। ईरान अमेरिकी प्रतिबंधों को सिर्फ आर्थिक दबाव नहीं, बल्कि “आर्थिक आतंकवाद” मानता है—ऐसा आतंकवाद जो निर्दोष नागरिकों के जीवन को प्रभावित करता है और मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन करता है।अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह बात समझी जाती है कि धमकी देकर वार्ता की मेज़ पर बैठाना कूटनीति नहीं, ज़बरदस्ती है।
ईरान की प्रतिक्रिया संतुलित और व्यावहारिक रही है। उसने न तो घुटने टेके और न ही युद्ध का रास्ता चुना। बल्कि, उसने बार-बार यह दिखाया कि वह समझदारी और संयम से अपनी बात रखने में सक्षम है। ट्रंप की नीतियाँ सिर्फ ईरान ही नहीं, बल्कि विश्व समुदाय के लिए भी एक चेतावनी हैं कि अगर किसी देश की स्वायत्तता को कुचला जाएगा, तो प्रतिरोध अवश्य होगा। ईरान की नीति इस कठिन दौर में एक मिसाल है, जहां हर कदम पर धैर्य, आत्मबल और राष्ट्र की प्रतिष्ठा को सर्वोपरि रखा गया है। आज जब पश्चिमी मीडिया ईरान के शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम पर सवाल उठा रहा है, वहीं ईरान बार-बार अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण के लिए दरवाज़े खोलकर यह साबित कर चुका है कि उसका उद्देश्य केवल वैज्ञानिक, औद्योगिक और नागरिक उन्नति है।
आज ज़रूरत इस बात की है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ट्रंप जैसी धमकी देने वाली राजनीति को खारिज करे और ऐसे देशों का समर्थन करे जो शांति, बराबरी और आत्मसम्मान के साथ संवाद चाहते हैं। ईरान का यह रुख काबिल-ए-सलाम है। उधर, पश्चिमी देशों का कहना है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम हथियार बनाने के लिए है, लेकिन ईरान का दावा है कि इसका उद्देश्य केवल शांतिपूर्ण और नागरिक इस्तेमाल है। ईरान यह समझता है कि न्यायसंगत संवाद के बिना कोई समाधान संभव नहीं। वह खुले वार्ता का समर्थन करता है, लेकिन ऐसी किसी भी वार्ता को नहीं मानता जो उसकी स्वतंत्रता, सुरक्षा और पहचान को खतरे में डाले। इसी रुख ने ईरान को अमेरिकी दबाव के सामने एक मजबूत प्रतिरोधक ताक़त बना दिया है।
(यह लेखक के अपने विचार है लेखक अशरफ ज़ैदी वरिष्ठ पत्रकार हैं)