अगर एक इंसान की हमेशा अच्छाईयां ही बताई और उसको ही बेस बनाकर उन्हें एक ऊंचे पायदान पर बैठाया गया तो ये जाहिर है कि उस इंसान के भक्त बहुत होंगे और जब लोग उस इंसान के बारे में क्रिटिसाइज करेंगे तो लोग उसको धमकियां और सामाजिक आर्थिक बहिष्कार करने पर उतर आएंगे और कहीं ना कहीं जेल की सलाखों के पीछे ढकेल देंगे, यही हाल गांधीयन के साथ है और वो यही करते है, मैं गांधीं से बहुत से पॉइंट पर एग्री नहीं करता हूं जैसे गांधी के बारे में लोगों ने एक परसेप्शन बनाया है और लोगों के सामने पेश किया है कि गांधी अहिंसा वादी थे लेकिन ऐसा नहीं है और ना ही मैं बंटवारे के खिलाफ मानता हूं..
भारत में नेशनल मूवमेंट के बारे में कई मिथक है जिनके ऊपर फिरसे सोचे विचार किया जाना चाहिए मेरी समझ से फिर से उनका सही से मूल्यांकन किया जाना चाहिए..
आम तौर से डिमोनोलॉजी मिथक के मुताबिक जिन्ना एक सांप्रदायिक आग भड़काने वाला माना जाता है और संत गांधी को आग बुझाने के लिया जद्दोजेहद करने वाला माना जाता है, लेकिन सच्चाई कुछ और है..
जिन्ना ने अक्टूबर 1937 में लखनऊ मुस्लिम लीग सेशन तक कांग्रेस के राष्ट्रीय चरित्र रहे पर कभी भी विवाद नहीं हुआ और 1930 के दशक तक गांधी को अक्सर महात्मा गांधी के रूप में बुलाया और लोगों के सामने संबोधित किया, एटनबरो की फिल्म गांधी की छवि बनाए रखने में काफी सहयोग किया, गांधी ने खुद संघर्ष और मेहनत की यही उनकी महानता है, लेकिन कुछ ऐसे समय भी थे जब गांधी चाकू की नोक पर भी भारत में हिन्दू विश्वास को लागू करने के अटल थे.. 28 सितम्बर 1944 को नई दिल्ली में जिन्ना के साथ बातचीत में गांधी ने अपना आपा खो बैठे थे गांधी ने कहा था ‘पाकिस्तान का मतलब चाकू से युद्ध’ जिन्ना ने तुरंत कहां ‘ ये एक अहिंसा के प्रचारक और भक्त हैं जो हमें चाकू से लड़ने की धमकी दे रहा है..’
पाकिस्तान के मामले में गांधी के उग्रवादी पछ दिखने में सक्षम थे। गांधी ने एक बैठक में मेज थपथापाई वायसराय लार्ड वेवेल को रिपोर्ट दी और चिल्लाया ‘यदि खून खराबा जरूरी है तो यह अहिंसा के बावजूद होगा’…।।
31 मई 1947 को एक प्रार्थना सभा में गांधी ने कहा था: ‘भले ही पूरा भारत जल जाए, हम पाकिस्तान को नहीं देंगे, भले ही मुसलमान तलवार की नोक पर इसकी मांग करें ( न्यूयॉर्क हेराल्ड ट्रिब्यून, 2जून 1947)
जिन्ना ने पाकिस्तान को लिए अपने संघर्ष और मेहनत में कभी हिंदुओं के खिलाफ हिंसा की धमकियां नहीं दी, इसके बावजूद जिन्ना ने मुस्लिम समाज में एकता की जरूरत पर ध्यान केंद्रित किया, जैसा कि सीरवाई ने कहा। जिन्ना ने शायद ही कभी उस तरह की धार्मिक अपील जो गांधी के साथ आम थी, हालांकि जिन्ना के अनुयायी ऐसा करते थे।
जिन्ना मुसलमानों के आर्थिक और सामाजिक, राजनीतिक रूप से संगठित होने के विषय पर जोर देते थे। ताकि वो अपने पैरों पर खड़े हो सकें’। और जहां तक मैंने पढ़ा है कि बंगाली गांधी के बारे में और बंगाली गांधी को कैसे देखते थे एक आर्टिकल पढ़ रहा था उसमें नीरद चौधरी लिखते हैं कि मैंने हमेशा अपने क्लास फेलो में बंगालियों से ये कहते हुए सुना है कि गांधी की सारी अहिंसा एक राजनीतिक चाल थी और वो उनके द्वारा किए गए कपट के लिए उनकी प्रशंसा करते हैं’।
गांधी की अहिंसा की कल्पना लंदन में टॉलस्टाय की न्यू टेस्टामेंट की व्याख्या से की गई थी, हम रविन्द्र नाथ टैगोर के गांधी के असहयोग आंदोलन के तीखे विरोध के बारे में जानते हैं जिसे उनके 1925 के निबंध ‘द टेररिज्म ऑफ जस्टिस’ में लिखा है।
चरक का पंथ एक दयालु साहित्यक रहस्यवादी, टैगोर गांधी की कुछ राजनीतिक सोच से असहज थे, और इसने उन्हें कठोर दुश्मन बना दिया..
टैगोर जल्द ही भारत में फैशन से बाहर हो गए हालांकि टैगोर अपने मूल बंगाल में एक लोकप्रिय व्यक्ति बने रहे..।।
गांधी और मुस्लिम कट्टरता पर मत
गांधी ने एक बार पूछा था – अगर भारत स्वतंत्र हो जाए और बाहर के मुसलमान भारत पर आक्रमण कर दें तो क्या भारतीय मुसलमान उनका साथ देंगे, अगर जिहाद की घोषणा की जाती है? क्या हमें अतीत से कोई सबक नहीं लेना चाहिए, खासकर ऐसे शासकों के उदाहरण से जैसे कि महमूद गजनवी? क्या हिंदुओं को एक बार फिर गुलाम नहीं बना लिया जाएगा और भारत एक बार फिर मुस्लिम साम्राज्य नहीं बन जाएगा? इस पर गांधी का जवाब था:
“एक पल के लिए सोचिए कि अगर अंग्रेज अचानक चले जाएं और कोई विदेशी शासक न बचे। तब कहा जा सकता है कि पंजाबी – चाहे वे मुसलमान हों, सिख हों या अन्य – पूरे भारत पर हावी हो सकते हैं… ऐसे में अगर किसी को अंग्रेजी शासन की ज़रूरत है, तो वह कांग्रेसजन हैं और वे हिंदू व अन्य हैं जिन्हें कांग्रेस प्रतिनिधित्व देती है।”
गांधी की ये धारणाएँ मुस्लिम समुदाय के रूढ़ चित्रों पर आधारित थीं:
“मुसलमान देश के आंतरिक राजनीतिक जीवन और विकास में कम रुचि लेते हैं… क्योंकि वे अभी तक भारत को अपना गर्व का घर नहीं मानते।”
(Young India, 2 अप्रैल 1925)
सांप्रदायिक दंगों को लेकर उन्होंने लिखा:
“मुसलमान सामान्यतः दबंग होता है और हिंदू सामान्यतः कायर।”
(Young India)
उन्होंने यह भी कहा कि “मुसलमान चाकू और पिस्तौल के इस्तेमाल में बहुत जल्दबाज़ होते हैं।”
(Young India, 30 दिसंबर 1926)
गांधी ने मुस्लिम को “बुल-टेरीयर” और हिंदू को “खरगोश” कहा।
(Young India, 29 मई 1924 और 15 अक्टूबर 1925)
एक और लेख (Young India, 19 जून 1924) में गांधी ने कहा:
“मुसलमान, सामान्यतः अल्पसंख्यक होने के कारण, एक वर्ग के रूप में दबंग बन गया है… तेरह सौ वर्षों की साम्राज्यवादी विस्तारवाद ने मुसलमानों को लड़ाकू बना दिया है। हिंदू की सभ्यता प्राचीन है, वह मूलतः अहिंसक है… हिंदू इतने विनम्र बन गए हैं कि डरपोक या कायर लगते हैं।”
गांधी ने हिंदुओं से बदला लेने और “मरना सीखने” की बात कही
निम्न जातियों और अल्पसंख्यकों के प्रति गांधी का मत
गांधी के जाति संबंधी विचारों में समय-समय पर बदलाव आया। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने काले अफ्रीकियों और भारतीयों के बीच रंगभेद की वकालत की थी। भारत लौटने पर उन्होंने अंतरजातीय विवाह और साथ खाने-पीने के निषेध का समर्थन किया — यह स्थिति दूसरे गोलमेज सम्मेलन से पहले तक बनी रही। अपने अंतिम दिनों में ही उन्होंने अनिच्छा से अंतरजातीय विवाह को स्वीकारा।
गांधी ने अछूतों के लिए अलग निर्वाचन मंडलों का विरोध किया:
“अगर अछूतों को अलग निर्वाचन मंडल दे दिए जाएं,” गांधी बोले, “तो आप हमेशा के लिए उनकी स्थिति को स्थायी बना देंगे।”
यह तर्क कई लोगों को असामान्य लगा, और जो गांधी के आकर्षण से प्रभावित नहीं थे, उन्हें यह तर्क दिखावटी लगा। उन्हें शक था कि गांधी इस बात से डरते थे कि कहीं 6 करोड़ अछूत 10 करोड़ मुसलमानों के साथ मिलकर 18 करोड़ रूढ़िवादी हिंदुओं की सत्ता को चुनौती न दे दें।
(Nichols, 1944)
इसलिए डॉ. अंबेडकर — जो आज के दलितों के नेता माने जाते हैं — बार-बार कहते रहे:
“गांधी भारत में अछूतों के सबसे बड़े दुश्मन हैं।”
डॉ. अंबेडकर, जिन्होंने दृढ़ इच्छाशक्ति से कोलंबिया यूनिवर्सिटी से पीएचडी प्राप्त की थी, 1935 में इस्लाम अपनाने के बहुत करीब आ गए थे। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो शायद भारत का इतिहास कुछ और होता। लेकिन गांधी और हिंदू नेतृत्व के दबाव ने उन्हें रोक दिया। हालांकि उन्होंने 1956 में मृत्यु से पहले बौद्ध धर्म अपना लिया।
अंबेडकर पाकिस्तान के गिने-चुने समर्थकों में से थे और जिन्ना के कार्यों को लगातार उचित ठहराते रहे। आज भी कई दलितों के लिए जिन्ना, गांधी और नेहरू की तुलना में अधिक सहानुभूतिपूर्ण प्रतीत होते हैं।
आज भी अधिकांश दलित गांधी और नेहरू को पाकिस्तान के बंटवारे के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं। उनके अनुसार जिन्ना भी उनके जैसे अल्पसंख्यकों के अधिकार और सुरक्षा की लड़ाई लड़ रहे थे।
(यह लेखक के निजी विचार है, लेखक आज़म राजनीतिक मामलों के जानकार है)