19 साल बाद बाइज्ज़त बरी, मगर कौन लौटाएगा वो 19 साल?: वसीम अकरम त्यागी
“Justice delayed is justice denied” — अंग्रेज़ी की इस लोकप्रिय कहावत का मतलब है कि न्याय में देरी होना, न्याय से वंचित होने के बराबर है। भारत में यह कहावत महज़ सैद्धांतिक विचार नहीं रही, बल्कि सैकड़ों ज़िंदगियों की हकीकत बन चुकी है। हाल ही में मुंबई हाईकोर्ट ने 2006 के लोकल ट्रेन ब्लास्ट केस में जिन 12 आरोपितों को 19 साल बाद बाइज्ज़त बरी किया है, उनकी कहानी इस कहावत को खौफ़नाक सच्चाई में बदल देती है।
मुंबई ट्रेन ब्लास्ट और झूठे आरोप
11 जुलाई 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेनों में सात जगह बम धमाके हुए, जिनमें 209 लोगों की मौत हुई और 714 घायल हुए। इस मामले में एंटी टेररिज्म स्क्वॉड (ATS) ने जुलाई से अक्टूबर 2006 के बीच 30 आरोपित बनाए, जिनमें से 13 को पाकिस्तानी नागरिक बताया गया।
2015 में स्पेशल मकोका कोर्ट ने 13 में से 12 को दोषी ठहराया — पाँच को फांसी और सात को उम्रकैद। लेकिन 21 जुलाई 2025 को मुंबई हाईकोर्ट ने सभी को बरी कर दिया, यह कहते हुए कि मुकदमे में पर्याप्त और विश्वसनीय सबूत नहीं थे।
क्या यह इत्तेफ़ाक है? या पूर्वाग्रह?
सभी आरोपित एक ही समुदाय के थे। उनकी गिरफ़्तारी की कहानियाँ एक जैसी थीं, और अदालत में वे टिक नहीं पाईं। जांच एजेंसियों ने उर्दू नामधारी संगठनों पर आरोप लगाए, युवाओं को गिरफ़्तार किया, पाकिस्तान से संबंध जोड़े — और यह सब एक तयशुदा ‘नैरेटिव’ के तहत हुआ।
पहली बार नहीं, ये पैटर्न है
मुंबई ट्रेन ब्लास्ट ऐसा अकेला मामला नहीं है। ऐसे कई केस हैं जहाँ निचली अदालतों ने फांसी या उम्रकैद की सज़ा सुनाई, और बाद में उच्च न्यायालयों ने बाइज्ज़त बरी किया:
अक्षरधाम हमला (2002, गुजरात):
6 आरोपित, 4 ने 11 साल जेल में बिताए। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने सबको बरी किया।
मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम ने अपनी जेल यात्रा पर किताब भी लिखी — “11 साल सलाखों के पीछे”।
जयपुर बम धमाका (2008):
4 लोगों को निचली अदालत ने फांसी दी।
29 मार्च 2023 को राजस्थान हाईकोर्ट ने सबको बरी किया।
इन मामलों में यह सवाल लगातार खड़ा होता रहा है — क्या निचली अदालतें और जांच एजेंसियाँ ‘पूर्वाग्रह’ से संचालित होती हैं?
मीडिया ट्रायल और सामाजिक बहिष्कार
इन मामलों में मीडिया ने न केवल खबरें चलाईं, बल्कि आरोपितों को “आतंकी” साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ‘सूत्रों’ के हवाले से झूठी कहानियाँ गढ़ी गईं। अदालत के फैसले से पहले ही फांसी का माहौल तैयार कर दिया गया।
इनकी वजह से न सिर्फ आरोपी, बल्कि उनके परिवार, दोस्तों और पूरे समुदाय को मानसिक यातना झेलनी पड़ी।
न्यायिक प्रक्रिया ही सज़ा है
अमेरिकी लेखक मैल्कम फीली की किताब “The Process is the Punishment” में यही बताया गया है — भारत में आतंकवाद के झूठे मामलों में न्यायिक प्रक्रिया ही लोगों के जीवन को तबाह कर देती है।
मुंबई केस: 19 साल जेल
जयपुर केस: 14 साल जेल
अक्षरधाम केस: 11 साल जेल
कई लोगों ने 10-25 साल बिना किसी अपराध के जेल में बिताए — सिर्फ इसलिए क्योंकि सिस्टम और मीडिया ने उन्हें दोषी मान लिया।
तो असली गुनहगार कौन?
जब अदालतें इन ‘आतंकियों’ को बरी करती हैं, तो सवाल उठता है — फिर असली आतंकवादी कौन हैं?
क्या वे अब भी आज़ाद घूम रहे हैं? क्या जांच एजेंसियों ने उन्हें जानबूझकर नहीं खोजा? क्या जांच का मक़सद आतंकवाद से लड़ना था या किसी समुदाय को निशाना बनाना?
जस्टिस मुरलीधर की दो टूक
ओडिशा हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस. मुरलीधर ने स्पष्ट कहा —
“इस मामले में जानबूझकर पक्षपातपूर्ण जांच की गई। बेगुनाहों को जेल भेजा गया, और उनकी ज़िंदगी के सबसे कीमती साल छिन गए। मीडिया ट्रायल से दोष तय कर दिए गए, सबूत बाद में ढूंढे गए।”
क्या कोई मुआवज़ा होगा? कोई सज़ा?
इन सबके बाद यह सवाल लाज़मी है —
क्या झूठे केस बनाने वाले पुलिस अफ़सरों को सज़ा मिलेगी?
क्या मीडिया माफ़ी मांगेगा?
क्या बेकसूरों को मुआवज़ा मिलेगा?
इन सभी सवालों का उत्तर अगर ‘ना’ है, तो इसका मतलब है कि हमारी न्याय प्रणाली सिर्फ शब्दों में लोकतांत्रिक है, व्यवहार में नहीं।
निष्कर्ष
मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के 12 आरोपितों की बाइज्ज़त रिहाई कोई जीत नहीं है — यह एक राष्ट्रीय शर्म की बात है, कि हमारे निर्दोष नागरिकों को एक राजनीतिक और संस्थागत पूर्वाग्रह की कीमत अपनी जवानी से चुकानी पड़ी।
अब ज़रूरत है कि जवाबदेही तय हो, जवाब मांगे जाएं, और बेगुनाहों को इन्साफ के साथ इज़्ज़त और मुआवज़ा भी मिले।
(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हैं, यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं।)