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क्या ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार मिलना चाहिए?: रिज़वान हैदर

नोबेल शांति पुरस्कार को दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान माना जाता है, जो उन व्यक्तियों या संस्थाओं को दिया जाता है जिन्होंने वैश्विक शांति, मानवता की सेवा या युद्ध की रोकथाम में असाधारण भूमिका निभाई हो। लेकिन जब युद्ध को बढ़ावा देने वाले नेताओं के नाम इस पुरस्कार के लिए सामने आते हैं, तो यह न सिर्फ इस सम्मान की गरिमा पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति की दोहरी नीतियों को भी उजागर करता है।

ट्रंप की सिफारिश और विवाद की जड़े:

हाल ही में जब इज़रायल-ईरान के बीच 12 दिवसीय युद्ध में करारी हार झेलने के बाद बेंजामिन नेतन्याहू अमेरिका पहुंचे, तो उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित करने की बात कही। इससे पहले पाकिस्तान भी ट्रंप के पक्ष में ऐसी मांग उठा चुका है। इन दोनों देशों ने दावा किया कि ट्रंप ने भारत-पाकिस्तान और ईरान-इज़रायल के बीच सीज़फायर में अहम भूमिका निभाई है।

लेकिन वास्तविकता इससे काफी अलग है। भारत ने स्पष्ट कहा कि पाकिस्तान के साथ सीज़फायर उसका एकतरफा फैसला था, जो आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई के बाद लिया गया। पाकिस्तान की कोई अपील या विदेशी मध्यस्थता इसमें शामिल नहीं थी। यही हाल ईरान-इज़रायल संघर्ष का भी है, जिसकी शुरुआत ही इज़रायल के भड़काऊ हमलों से हुई थी।

ईरान-इज़रायल युद्ध: ट्रंप की ‘शांति भूमिका’ का पर्दाफाश
2025 के इस संघर्ष की पृष्ठभूमि 2020 में ही तैयार हो चुकी थी, जब ट्रंप प्रशासन ने ईरान के जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या का आदेश देकर मध्य पूर्व को युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया। इसके बाद इज़रायल द्वारा ईरान की ज़मीन पर सैन्य कमांडरों को मारना, एक स्पष्ट युद्ध उकसाने वाला कृत्य था।

ट्रंप की भूमिका को शांति प्रयास कहना ऐतिहासिक तथ्यों से सरासर इनकार करना है। बल्कि, ट्रंप तो इस क्षेत्र में युद्ध को बढ़ावा देने वाले प्रमुख चेहरों में रहे हैं। उनकी ‘मैक्सिमम प्रेशर’ पॉलिसी ने ईरान को आर्थिक और सामरिक रूप से घेरने की कोशिश की, जिसने क्षेत्र में अस्थिरता को और बढ़ाया।

ट्रंप प्रशासन की नीतियाँ: शांति नहीं, टकराव का इतिहास

1- यरुशलम को इज़रायल की राजधानी घोषित करना: यह फैसला न केवल अंतरराष्ट्रीय सहमति के विरुद्ध था, बल्कि फिलिस्तीनियों की भावनाओं को भी आहत करने वाला था।

2- JCPOA से अमेरिका का बाहर होना: ईरान परमाणु समझौते को एकतरफा तोड़ने से क्षेत्रीय तनाव और अविश्वास को बल मिला।

3- यमन युद्ध में सैन्य समर्थन: ट्रंप प्रशासन ने सऊदी अरब और यूएई को हथियारों की आपूर्ति जारी रखी, जबकि लाखों यमनी नागरिक भूख, महामारी और बमबारी से जूझ रहे थे।

4- ग़ाज़ा पर हमलों को समर्थन: 2021 में इज़रायली हमलों के दौरान ट्रंप प्रशासन ने कूटनीतिक चुप्पी नहीं, बल्कि सक्रिय समर्थन दिया।

नेतन्याहू और ट्रंप: एक जैसे चरित्र

नेतन्याहू खुद ICC में युद्ध अपराधों के आरोपी हैं। ग़ाज़ा में स्कूलों, अस्पतालों और शरणार्थी कैंपों पर बमबारी उनके शासन का प्रतीक बन चुका है। जब ऐसा व्यक्ति ट्रंप को शांति पुरस्कार दिलाने की बात करता है, तो यह एक युद्धप्रेमी द्वारा दूसरे युद्धप्रेमी को इनाम दिलवाने का प्रयास लगता है।

इज़रायल ने ईरान अमेरिका के बीच, परमाणु समझौते के छठें दौर की वार्ता से पहले धोखे से हमला करके ईरान के टॉप कमांडरों को शहीद कर दिया था। इज़रायल ने अपने इस ग़ैरक़ानूनी हमले को आत्मरक्षा का नाम दिया था। यह कितना हास्यास्पद है कि, इज़रायल ईरान, लेबनान, सीरिया और ग़ाज़ा पट्टी में खुद हमले करता है, और इसे आत्मरक्षा का नाम देता है।

पाकिस्तान की भूमिका:

रणनीतिक खुशामद
पाकिस्तान द्वारा ट्रंप को शांति पुरुष बताया जाना, अमेरिका की कृपा पाने की एक कूटनीतिक कोशिश है। पाकिस्तान, जो खुद आतंकवाद का गढ़ बन चुका है, वह भारत द्वारा किए गए जवाबी सैन्य अभियान — ऑपरेशन सिंदूर — के बाद दुनिया के सामने अपनी छवि सुधारने में लगा हुआ है।

पाकिस्तान आज आतंक का केंद्र बन चुका है। भारत द्वारा पाकिस्तान पर हमला, पहलगाम में पाकिस्तान द्वारा कराए गए आतंकी हमले के जवाब में था। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ भारतीय सेना द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दिया गया ऐसा करारा जवाब था जिसे पाकिस्तान हमेशा याद रखेगा। भारत ने इस हमले से साफ़ कर दिया था कि, शांति की बात तभी होगी, जब सामने वाले के अंदर शांति की भावना पाई जाए।

ट्रंप को शांति पुरस्कार दिलाने की सिफारिश, न सिर्फ इस सम्मान की गरिमा पर धब्बा है, बल्कि यह उन लाखों लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है, जिन्होंने युद्धों, प्रतिबंधों और हमलों की कीमत चुकाई है। यदि शांति पुरस्कार ऐसे नेताओं को दिया जाए जो संघर्षों को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते हैं, तो यह न केवल इतिहास के साथ अन्याय है, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों को भी एक खतरनाक संदेश देता है।

(यह लेखक के अपने विचार है लेखक रिज़वान हैदर पत्रकार हैं)

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