हाल ही में विदेश मंत्री एस. जयशंकर की इज़राइल यात्रा ने एक बार फिर भारत इज़राइल संबंधों की गहराई और रणनीतिक महत्व को रेखांकित किया। इस दौरे के दौरान दोनों देशों ने आतंकवाद के विरुद्ध ज़ीरो टॉलरेंस की साझा नीति दोहराई, हनुक्का के अवसर पर हुए आतंकी हमले की कड़ी निंदा की और सुरक्षा, तकनीक, अर्थव्यवस्था तथा प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को लेकर 2026 तक के लिए एक महत्वाकांक्षी संयुक्त रोडमैप तय किया।
यह यात्रा ऐसे समय में हुई है जब पश्चिम एशिया गहरे अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है और वैश्विक राजनीति में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है। ऐसे में भारत की कूटनीतिक प्राथमिकताओं और उसके संतुलनकारी दृष्टिकोण पर स्वाभाविक रूप से गहन चर्चा हो रही है।
रणनीतिक साझेदारी का यथार्थ
इज़राइल आज भारत के सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदारों में से एक है। रक्षा उपकरण, मिसाइल प्रणाली, ड्रोन तकनीक, साइबर सुरक्षा और कृषि नवाचार जैसे क्षेत्रों में इज़राइल का सहयोग भारत की सुरक्षा और आर्थिक आवश्यकताओं से सीधे जुड़ा है। आतंकवाद के ख़िलाफ़ इज़राइल का अनुभव और तकनीकी क्षमता भारत के लिए उपयोगी रही है, विशेषकर ऐसे समय में जब सीमा-पार आतंकवाद और वैश्विक चरमपंथ नई चुनौतियाँ पेश कर रहे हैं। इस संदर्भ में विदेश मंत्री की यात्रा और आतंकवाद पर स्पष्ट संदेश भारत की हित-आधारित और यथार्थवादी कूटनीति का प्रतिबिंब है। भारत यह स्पष्ट करता है कि वह किसी भी रूप में आतंकवाद को स्वीकार नहीं करेगा चाहे उसका भौगोलिक या वैचारिक स्रोत कुछ भी हो।
फ़िलिस्तीनी प्रश्न और मौन की व्याख्या
हालाँकि, इस यात्रा के दौरान फ़िलिस्तीनी राज्य के प्रश्न पर सार्वजनिक रूप से कोई स्पष्ट बयान न आना कई सवाल भी खड़े करता है। भारत ऐतिहासिक रूप से Two-State Solution का समर्थक रहा है जिसमें इज़राइल की सुरक्षा और फ़िलिस्तीन की वैध राष्ट्रीय आकांक्षाओं, दोनों को समान महत्व दिया गया है। यह नीति केवल कूटनीतिक औपचारिकता नहीं, बल्कि भारत की नैतिक और संतुलित विदेश नीति की पहचान रही है।
कूटनीति में मौन को अक्सर नीति-परिवर्तन के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह हमेशा सही नहीं होता। कई बार मौन रणनीतिक विवेक का संकेत भी होता है—विशेषकर तब, जब क्षेत्रीय परिस्थितियाँ अत्यंत संवेदनशील हों। संभव है कि भारत सार्वजनिक बयानबाज़ी से बचते हुए, पर्दे के पीछे संवाद और मध्यस्थता को प्राथमिकता दे रहा हो।
फिर भी, एक उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में भारत से अपेक्षा की जाती है कि वह केवल रणनीतिक हितों तक सीमित न रहे, बल्कि शांति, न्याय और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को भी स्पष्ट रखे। फ़िलिस्तीनी मुद्दे पर अत्यधिक मौन यह धारणा बना सकता है कि भारत का झुकाव एक पक्ष की ओर बढ़ रहा है भले ही वास्तविक नीति संतुलित ही क्यों न हो।
भारत की शक्ति उसकी इसी क्षमता में रही है कि वह विरोधी खेमों के साथ भी संवाद बनाए रखता है। इज़राइल के साथ गहरी साझेदारी के बावजूद अरब देशों, ईरान और वैश्विक दक्षिण के साथ भारत के संबंध मज़बूत बने हुए हैं। यही बहु-स्तरीय संतुलन भारत को विशिष्ट बनाता है।
आतंकवाद और शांति: दो समानांतर सिद्धांत
यह भी आवश्यक है कि आतंकवाद के विरुद्ध कठोर रुख़ और नागरिक अधिकारों व राजनीतिक समाधान की मांग—इन दोनों को एक-दूसरे के विरोध में न रखा जाए। आतंकवाद की निंदा करते हुए भी शांति प्रक्रिया और राजनीतिक समाधान की बात की जा सकती है। भारत की पारंपरिक नीति इसी संतुलन पर आधारित रही है।
भारत–इज़राइल संबंध आज एक नए शिखर पर हैं और इसमें संदेह नहीं कि यह साझेदारी भारत के राष्ट्रीय हितों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेकिन फ़िलिस्तीनी प्रश्न पर भारत की ऐतिहासिक Two-State प्रतिबद्धता उसकी नैतिक और कूटनीतिक विश्वसनीयता का अहम स्तंभ रही है।
वास्तविक चुनौती इन दोनों आयामों को साथ लेकर चलने की है जहाँ सुरक्षा और रणनीति के साथ-साथ शांति, संवाद और न्याय की आवाज़ भी बनी रहे। यदि भारत इस संतुलन को बनाए रखता है, तो वह न केवल एक प्रभावशाली शक्ति के रूप में, बल्कि एक विश्वसनीय और जिम्मेदार वैश्विक नेतृत्वकर्ता के रूप में अपनी भूमिका को और सुदृढ़ कर सकता है।
(लेखक सुलेमान रईस स्वतंत्र पत्रकार और मध्य पूर्व मामलों के जानकार है )

