एक भाजपा नेता कर्नल सोफिया कुरैशी को उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर बदनाम करता है और उसकी पार्टी उसे डाँटने तक की ज़हमत नहीं उठाती। उल्टा, सुप्रीम कोर्ट में अपने वकीलों के ज़रिए उसका बचाव करती है।
दूसरी तरफ़, अकादमिक अली खान महमूदाबाद को सिर्फ़ इसलिए गिरफ़्तार कर लिया जाता है क्योंकि उन्होंने कर्नल कुरैशी का उल्लेख करते हुए इस बात की सराहना की थी कि भारत ने अपने नागरिकों की सुरक्षा—और इसी के माध्यम से अपनी संप्रभुता—पर हमले की स्थिति में मुसलमानों को भी अपनी राष्ट्रीय प्रतिक्रिया में शामिल किया।
उनका ‘अपराध’ क्या है? यही कि उन्होंने एक क़दम आगे बढ़ते हुए यह सवाल उठाया कि भारतीय मुसलमान नागरिकों की रोज़मर्रा की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। जिस तेज़ी और आक्रामकता से उन्होंने अली महमूदाबाद को चुप कराना चाहा, वह खुद इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने भाजपा की दोहरी नीति को सही उजागर किया।
भाजपा को इस विडंबना से फर्क पड़ेगा, ऐसी उम्मीद करना बेकार ही है।अतः हमें यह सामूहिक रूप से सोचना ही होगा लोकतंत्र केवल बयानबाजी नहीं हो सकता बल्कि सभी नागरिकों के लिए एक जीवंत वास्तविकता होनी चाहिए क्योंकि इसकी वैधता और प्रभावशीलता वास्तविक भागीदारी, समावेशिता और न्याय पर निर्भर करती है।केवल बयानबाजी—भाषण, वादे और नारे—से यह दावा किया जा सकता है कि सभी समान हैं।
लेकिन जब तक नागरिक दैनिक जीवन में उस समानता का अनुभव नहीं करते, लोकतंत्र एक खोखली प्रणाली बनकर रह जाती है। देश में निश्चित समय सीमा पर चुनाव का होना लेकिन अल्पसंख्यकों, गरीबों या हाशिये के अन्य समूहों की आवाज को दबा कर रखना अगर परंपरा बन जाए तो फिर आभासी लोकतंत्र है, लेकिन मूल रूप से नहीं।
लोग लोकतंत्र का समर्थन तब करते हैं जब वे इसे काम करते देखते हैं—जब उनकी आवाज सुनी जाती है और नीतियां उनके जीवन को बेहतर बनाती हैं। अगर लोकतांत्रिक मूल्य सिर्फ शब्द बनकर रह जाते हैं जबकि नागरिक अन्याय या बहिष्कार का सामना करते हैं, तो भरोसा खत्म हो जाता है. इस भरोसे के खात्में से क्या क्या हो सकता है ये हमने इतिहास के पन्नों में दर्ज देखा है।
(यह लेख राजद सांसद मनोज झा के सोशल मीडिया अकाउंट्स से लिया गया है)