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समान नागरिक संहिता सिर्फ मुसलमानों का ही नहीं बल्कि सभी भारतीयों का मसला है: मौलाना अरशद मदनी

समान नागरिक संहिता (UCC) को लेकर जमीयत उलमा-ए-हिंद ने भारतीय विधि आयोग को आपत्तियों और सलाह भेजी हैं तथा इसका पुरजोर विरोध किया हैं।

जमीयत का कहना हैं कि, समान नागरिक संहिता पर दोबारा बहस शुरू करने को हम राजनीतिक साजिश का हिस्सा मानते हैं, यह मुद्दा सिर्फ मुसलमानों का नहीं बल्कि सभी भारतीयों का है. हमारा प्रारंभ से ही यह रुख रहा है कि हम तेरह सौ वर्षों से इस देश में स्वतंत्र रूप से अपने धर्म का पालन करते आ रहे हैं। सरकारें आईं और गईं लेकिन भारतीय अपने धर्म पर जीते और मरते रहे, इसलिए हम किसी भी स्थिति में अपने धार्मिक मामलों और पूजा के तरीकों से समझौता नहीं करेंगे और कानून के दायरे में रहकर अपने धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए हर संभव कदम उठाएंगे।

समान नागरिक संहिता पर ज़ोर देना संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के विपरीत है, सवाल मुसलमानों के पर्सनल लॉ का नहीं बल्कि देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान को यथावत बनाए रखने का है. हमारा पर्सनल लॉ कुरान और सुन्नत पर आधारित है, जिसमें क़यामत के दिन तक संशोधन नहीं किया जा सकता है। ऐसा कहकर हम कोई असंवैधानिक बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि धर्मनिरपेक्ष संविधान के अनुच्छेद 25 ने हमें ऐसा करने की आजादी दी है, समान नागरिक संहिता मुसलमानों के लिए अस्वीकार्य है और देश की एकता और अखंडता के लिए हानिकारक है।

समान नागरिक संहिता शुरू से ही एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। हमारा देश सदियों से विविधता में एकता का प्रतीक रहा है, जिसमें विभिन्न धार्मिक और सामाजिक वर्गों और जनजातियों के लोग अपने धर्म की शिक्षाओं का पालन करके शांति और एकता के साथ रहते आए हैं। इन सभी ने न केवल धार्मिक स्वतंत्रता का आनंद लिया है, बल्कि कई बातों में एकरूपता न होने के बावजूद भी इनके बीच कभी कोई मतभेद पैदा नहीं हुआ और न ही इनमें से किसी ने कभी दूसरों की धार्मिक मान्यताओं और रीति-रिवाजों पर आपत्ति जताई। भारतीय समाज की यही विशेषता उसे दुनिया के सभी देशों से अलग बनाती है। यह गैर-एकरूपता (non-uniformity) सौ-दो सौ साल पहले या आज़ादी के बाद पैदा नहीं हुई, बल्कि यह भारत में सदियों से मौजूद है। ऐसे में समान नागरिक संहिता लागू करने का क्या औचित्य और जवाज़ है? जब पूरे देश में नागरिक कानून (सिविल लॉ) एक जैसा नहीं है, तो पूरे देश में एक पारिवारिक कानून (फैमिली लॉ) लागू करने पर जोर क्यों दिया जा रहा है? उन्होंने अंत में कहा कि हम हुक्मरानों से सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि कोई भी फैसला नागरिकों पर नहीं थोपा जाना चाहिए, बल्कि कोई भी फैसला लेने से पहले आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए, ताकि फैसला सभी को स्वीकार्य हो. समान नागरिक संहिता के सन्दर्भ में हमारा यह भी कहना है कि इस पर कोई भी निर्णय लेने से पहले सरकार को देश के

सभी धर्मों और सामाजिक एवं आदिवासी समूहों के प्रतिनिधियों से परामर्श करना चाहिए और उन्हें विश्वास में लेना चाहिए। यही तो लोकतंत्र का तक़ाज़ा है. जमीयत उलेमा हिंद समान नागरिक संहिता का विरोध करती है, क्योंकि यह संविधान में नागरिकों को अनुच्छेद 25, 26 में दी गई धार्मिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों के सरासर विरुद्ध है। भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि देश का अपना कोई धर्म नहीं है, यह सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करता है, धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता है और देश के प्रत्येक नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता है। भारत जैसे बहुलवादी समाज में, जहां सदियों से विभिन्न धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्मों की शिक्षाओं का पालन करते हुए शांति और सद्भाव के साथ रहते आए हैं, वहां समान नागरिक संहिता लागू करने का विचार अपने आप में न केवल आश्चर्यजनक लगता है, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि एक धर्म विषेश वर्ग को ध्यान में रखकर बहुसंख्यकों को गुमराह करने के लिए अनुच्छेद 44 की आड़ ली जाती है और कहा जाता है कि यह बात तो संविधान में कही गई है, हालांकि स्वयं आरआरएस के दूसरे प्रमुख गुरु गोलवालकर ने कहा कि ‘‘समान नागरिक संहिता भारत के लिए अप्राकृतिक है और इसकी विविधताओं के विपरीत है।

तथ्य यह है कि समान नागरिक संहिता की बात दिशा-निर्देशों में उल्लिखित (सुझाव) है। वहीं नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी संविधान में दी गई है. संविधान के अध्याय 3 के तहत उल्लिखित मूल अनुच्छेद में किसी भी संगठन को चाहे संसद हो या सुप्रीमकोर्ट, बदलने का अधिकार नहीं है। संविधान तो स्वतंत्रता के बाद तैयार हुआ जबकि इतिहास बताता है कि सदियों से इस देश में लोग अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं का पालन करते आ रहे हैं, लोगों की धार्मिक मान्यताएं और रीति-रिवाज अलग-अलग रहे हैं, लेकिन उनमें कभी कोई असहमति या इसको लेकर तनाव नहीं पैदा हुआ। वास्तव में एक विशेष मानसिकता के लोग यह कह कर बहुसंख्यकों को गुमराह करने का प्रयास कर रहे हैं कि समान नागरिक संहिता की बात संविधन का भाग है जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है। देश में क़ानून व्यवस्था की स्थिति बनाए रखने के लिए भारतीय दंड संहिता के प्रावधान हैं, उनके तहत ही विभिन्न अपराधों के लिए सज़ाएं दी जाती हैं और उसके दायरे में देश के सभी नागरिक आते हैं, अलबत्ता देश के अल्पसंख्यकों, जनजातियों और कुछ अन्य जातियों को धार्मिक और सामाजिक क़ानून के तहत स्वतंत्रता दी गई है क्योंकि पारिवारिक और सामाजिक मान्यताओं से ही वभिन्न धार्मिक जातियों और समूहों की पहचान जुड़ी हुई है और यही देश की एकता और अखंडता का आधार भी है। समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने का एक सोचे समझे प्रयास के अतिरिक्त कुछ और नहीं है.

इसलिए जमीअत उलेमा-ए-हिन्द पहले दिन से इस प्रयास का विरोध करती आई है क्योंकि वह मानती है कि समान नागरिक संहिता की मांग नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता और संविधान की आत्मा को नष्ट करने का एक प्रयास है। और संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के विपरीत, मुसलमानों को अस्वीकार्य और देश की एकता और अखंडता के लिए हानिकारक है।

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