21 जून को आज जब पूरा विश्व योग दिवस मना रहा है ऐसे में इसमें कोई दो राय नहीं की योग एक प्रकार से आरोग्य का वरदान है, इस तथ्य को सबने समझ लिया है। परंतु बंद कमरे में चटाई बिछा कर, शरीर पर तंग कपड़े पहन कर, फ़ास्ट म्यूजिक चला कर किया जाने वाला पावर योगा योग है? ये समझना होगा, योग करने के लिए धरती पर चटाई बिछाने से अच्छा है की हम धरती को ही अपनी प्यारी चटाई बना लें और इसकी रक्षा करें। योग एक साधना है जहाँ साधक को प्रकृति के करीब आना होता है, भारतीय दर्शन के अनुसार शरीर और प्रकृति के निर्माण तत्व एक है ऐसे में प्रकृति से अलग हट कर उसकी चिंता, उसकी देख रेख किये बिना किया जाने वाला हठ योग हो सकता है योग नहीं। योग के द्वारा मानव क्षमता का पूरी तरह से विकास किया जा सकता है। जब हम योग शब्द सुनते हैं, तो हमारे दिमाग में सबसे पहले क्या आता है ? ऐसा नहीं लगता जैसे कि योग अभ्यास सिर्फ और सिर्फ आसन या मुद्राओं का पर्याय बन गया है? लेकिन यह योग का केवल एक पहलू है। ‘योग’ शब्द का अर्थ ‘जोड़ना’ है, और पतंजलि के योग सूत्र जैसे प्राचीन योग ग्रंथों के माध्यम से, हमें पता चलता है कि इस अभ्यास में शरीर को चुस्त और दुरुस्त करने के अलावा और भी बहुत कुछ है। इसके अभ्यास से शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने का काम होता है। योग प्रकृति की शक्तियों के साथ कार्य करने के बारे में हमें सिखाता है, जो भौतिक शक्तियों के साथ – साथ हमारी चेतना शक्तियों के साथ कार्य करना सिखाता है। प्रकृति के साथ यह कार्य आंतरिक और बाह्य दोनों स्तरों पर होता है। आंतरिक रूप से, हमें अपनी प्रकृति की शक्तियों जैसे शरीर, मन, श्वास और आत्मा को संतुलित करने की आवश्यकता है। बाह्य रूप से, हमें प्रकृति की दुनिया और इसके पीछे की शक्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है।
पारंपरिक रूप से योग का अभ्यास प्रकृति में, पहाड़ों और जंगलों में या नदी के किनारे और समुद्र के किनारे एकांतवास में किया जाता था। योग की साधना करने वाले खेती करते थे, बगीचे लगाते थे , मवेशियों की देखभाल करते थे और जंगल में रहा करते थे। परन्तु आधुनिक योग आंदोलन और इसके शहरी और व्यावसायिक रूप, प्रकृति के साथ योग का संबंध और पर्यावरण के लिए इसकी चिंता को पूरी करने में असहाय नजर आ रही है। वर्तमान वैश्विक संकट के संदर्भ में, प्रकृति के प्रति योग की चिंता पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। अथर्ववेद के भूमिसूक्त के स्रष्टा वैदिक ऋषि ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व कहा था, ‘माता भूमिः पुत्रोSहं पृथिव्याः’ अर्थात् वसुंधरा जननी है, हम सब उसके पुत्र हैं। विश्व में विद्यमान प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक वनस्पति एवं प्रत्येक स्पंदनशील प्रजाति पर प्रकृति का बराबर स्नेह है। शायद यही प्रमुख कारण है कि वनों में निवास करने वाले वनवासी-आदिवासी लोगों का पर्यावरण के प्रति आदर व स्नेह सभ्यता की शुरुआत से रहा है।
यह हमारी धरती और हमारे प्रजातियों के भविष्य के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है। समयक्रम मानव और माँ प्रकृति के बीच का ये समन्वय खत्म होता गया, हम हिन्दू जीवन पद्धति से विमुख होकर पश्चिम के उत्तर आधुनिकता में खोते गए और परिणाम सबके सामने है। योग केवल सभी को आसनों का अभ्यास कराने के लिए नहीं है, योग एक साधना है जिसके दौरान योगी कुटुम्ब के बारे में चिन्तनरत होता है, योग को जन आंदोलन बनाने के लिए प्रकृति एवं मानव जीवन के एकीकरण का एक ऐसा योगिक तरीका लाना होगा जिसमें हमें कैसे रहना है, बाहरी और आंतरिक, प्रकृति और आत्मा को कैसे संतुलित करना है, इसका अभ्यास हो सकें।
लगभग दो हजार साल पहले लिखे गए पतंजलि के योग सूत्र में, योग को आठ “अंग” या चरणों (संस्कृत में अष्टांग का अर्थ आठ अंग) के रूप में समझाया गया है। शारीरिक अभ्यास (आसन) वास्तव में तीसरा अंग है। पहले दो, ‘यम’ और ‘नियम’ हैं – जिसमें जीने के लिए नैतिक और व्यक्तिगत दिशानिर्देश दिए गए हैं। प्रत्येक ‘यम’ इस बात से जुड़ा है कि हम अपने प्राकृतिक पर्यावरण के साथ कैसे रहते हैं और इसके साथ कैसा व्यवहार करते हैं। शेष अंग (प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) सार्वभौमिक आत्मा और व्यक्तिगत आत्मा के मिलन की ओर ले जाने के बारे में बताते हैं।
योग की तकनीक – जिसमें शरीर के अभ्यास, सांस के साथ काम करना और मन की प्रकृति की खोज करना – अभ्यासियों को बहुत गहरी निरंतरता की ओर तब तक ले जाती है जब तक उन्हें यह एहसास नहीं हो जाता कि मन, शरीर और सांस दुनिया में हीं स्थित हैं और किसी भी तरह से सांसारिक जीवन से अलग नहीं हैं। इस पुनर्विन्यास का एक पहलू ‘प्राण’ पर ध्यान केंद्रित करने में पाया जाता है। ‘प्राण’ को सभी स्तरों पर ब्रह्मांड में व्याप्त ‘जीवन शक्ति’ के रूप में परिभाषित किया गया है। योग का दर्शन इसी पहलु के आधार पर हमें सीखाता है कि इस ब्रम्हांड में सभी जीव समान हैं। अगर हम इस ऊर्जा को महसूस करते हैं तो हमें पता चलता है कि वहीं ऊर्जा जो हमें जीवन देती है, वह अन्य मनुष्यों, जानवरों, कीड़ों, पौधों और यहां तक कि धरती पर पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवों में भी पाई जाती है। सामान्य ऊर्जा और सामान्य जीवन शक्ति की इस अनुभूति के माध्यम से, हम अन्य जीवित प्राणियों का सम्मान करना सीखते हैं और समझते हैं कि प्रत्येक जीव को इस धरती पर रहने का समान अधिकार है। योग के माध्यम से हम जो ‘प्राण’ लाते हैं, उसका हमारे पर्यावरण के साथ-साथ स्वयं पर भी उपचारात्मक प्रभाव पड़ता है। यदि हम केवल ध्यान करते हैं लेकिन अपने जीने के तरीके को नहीं बदलते हैं, तो हमारा ध्यान केवल पलायनवाद या आत्म-संतुष्टि का एक रूप हो सकता है।
योग मुख्य रूप से दुनिया में उच्च चेतना लाने के बारे में किया गया प्रयास है। इसका शक्तिशाली प्रभाव तभी संभव है जब हम इसके सभी पहलुओं का सम्पूर्ण रूप से अभ्यास करेंगे। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो यह एकमात्र आध्यात्मिक अंधापन को बढ़ावा देने जैसा होगा। पृथ्वी को वास्तव में ठीक से जानने और इसे रहने योग्य बनायें रखने के लिए, हमें पहले इसके साथ अपने संबंध के प्रति जागृत होना होगा और मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि यह योग द्वारा संभव है और आसान भी। इसप्रकार हम खुद को ज्यादा खुश, अधिक पूर्ण और अधिक जीवंत महसूस कर पाएंगे। योगाभ्यास के रूप में हम निम्न प्रकार के कार्य कर सकते हैं :
– समस्त जीव और विशेष रूप से हमारे स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र की जरूरतों के बारे में खुद को शिक्षित करें।
– मिट्टी, पानी, जानवरों, पौधों और हवा सहित, हम जिस प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं, उसके साथ जागरूक सम्बन्ध विकसित करें।
-नैतिक योग प्रथाओं की चर्चा में पर्यावरण की देखभाल शामिल करें।
-उन नीतियों, उत्पादों और कार्यों के लिए खुद को प्रतिबद्ध करें जो पर्यावरणीय नुकसान को कम करते हैं और पर्यावरणीय लाभ को अधिकतम करते हैं। अतः आइये इस अंतराष्ट्रीय योग दिवस पर हर संभव प्रयास कर पर्यावरण के समीप जाएं, माँ प्रकृति से आरोग्य का वरदान पाएं।
( लेखक,प्रो आतिश पराशर दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में छात्र कल्याण अधिष्ठाता एवं मीडिया विभाग के अध्यक्ष हैं)