Journo Mirror
सम्पादकीय

ब्रिटिश मीडिया ‘द गार्ज़ीयन’ ने तालिबान द्वारा बच्चियों को तालीम हासिल करने पर पाबंदी लगाने की फेक न्यूज चलाई

इमारत-ए-इस्लामिया अफ़ग़ानिस्तान की नयी हुकूमत (तालिबान) के ख़िलाफ़ साज़िशें, प्रोपोगेंडे, झूट फैलाने का सिलसिला आज भी जारी है।

तब जब सोशल मीडिया का दौर है। तब जब हर फ़र्द के हाथों में फ़ोन/लैपटॉप/नेट मौजूद है। तब जब दुनिया के किसी भी मुल्क की ख़बरें मिनटों/सेकंड में दुनियाभर के लोगों तक पहुंच जाती है।

दो रोज़ क़ब्ल ब्रिटिश मीडिया एजेंसी ‘द गार्ज़ीयन’ ने अफ़ग़ान के वज़ीर-ए-आज़म के नाम से वायरल एक फ़र्ज़ी लेटर को सबब बनाकर ख़बर चलाई कि- अफ़ग़ानिस्तान हुकूमत (तालिबान) ने वहां की बच्चियों को स्कूल जाने और तालीम हासिल करने पर पाबंदी लगा दिया है।

अब ज़ाहिर है जब द गार्ज़ीयन जैसी बड़ी ब्रिटिश मीडिया एजेंसी ऐसी ख़बर (प्रोपोगंडे) चलाएगी तो उनके लिए ईद होगी ही जो बिचारे मुस्लिम महिलाओं की चिंता में खुद को आधा किये जा रहे हैं।

ये ख़बर आने की देरी थी कि इस्लामोफोबिया से ग्रस्त इंटरनेशनल पत्रकार और भारत में बैठे दोग़लों की एक जमाअत ने बिना तहक़ीक़ किये इस ख़बर को उड़ा दिया और फिर ‘मुस्लिम महिलाओं को क़ब्र से निकालकर रेप करने’ की बात करने वालों के मुल्क में रहने वाले मुस्लिम हितैषी अफ़ग़ान की बच्चियों के लिए दहाड़े मार मारकर चींखने लगे।

अच्छी बात ये रही कि ये ख़बर जैसे ही द गार्ज़ीयन ने चलाया अफ़ग़ान हुकूमत (तालिबान) ने तुरंत इस ख़बर और उस लेटर को झूटा/प्रोपोगंडा बताकर अफ़ग़ान की हुकूमत (तालिबान) के ख़िलाफ़ इसको साज़िश क़रार दिया।

आप ख़ुद सोचिये जिस तालिबान का मक़सद अफ़ग़ानिस्तान में शरिया क़ानून नाफ़िज़ करना रहा है। वह तालिबान बच्चियों को तालीम हासिल करने पर कैसे पाबंदी लगा सकता है? जबकि शरिया क़ानून में या फिर अल्लाह के रसूल की तमाम हदीसें तालीम हासिल करने से रिलेटेड पड़ी हैं।

मलाला ने भी ट्वीट किया है। बेचारी वो इतनी परेशान हो गई थी जैसे कहीं अफ़ग़ानी बच्चियों की चिंता में हार्ट-अटैक न कर जाए। सबसे पहली बात तो ये कि द गार्ज़ीयन ने जिस लेटर को सोर्स बनाकर इस झूटी ख़बर को चलाया है। वह लेटर अफ़ग़ानिस्तान की नई हुकूमत के वज़ीर-ए-तालीम की थी ही नहीं बल्कि वो लेटर अफ़ग़ान के वज़ीर-ए-आज़म की थी।

मैं आज जब भी अफ़ग़ान (तालिबान) के ख़िलाफ़ झूटी खबरें चलती हैं तो मैं सोचता हूँ आज 21वीं में सदी इस क़दर साज़िशें हो रहीं हैं तो 20वीं सदी के 90 के दशक में अफ़ग़ान हुकूमत (तालिबान) के ख़िलाफ़ किस क़दर साज़िशें की गई होंगी जब सोशल मीडिया का ज़माना नहीं था।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक शाहनवाज अंसारी सोशल एक्टिविस्ट हैं)

Related posts

Leave a Comment