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सम्पादकीय

जिस क़ौम को पीछे करना हो उसे तालीम से महरूम कर दिया जाए, तो वो क़ौम ख़ुद-बख़ुद पीछे हो जाएगी

तालीम की अहमियत, फ़ायदों और ज़रूरत से कौन इन्कार कर सकता है। न इस बात से किसी को इन्कार है कि तालीम समाज में तरक़्क़ी और ख़ुशहाली लाती है। इसका मतलब है कि किसी भी क़ौम और समाज के पिछड़ेपन में जहालत एक बड़ी वजह है। जिस क़ौम को पीछे करना हो उसे तालीम से महरूम कर दिया जाए, वो क़ौम ख़ुद-बख़ुद पीछे हो जाएगी। तालीम एक इन्सान के अन्दर शुऊर पैदा करती है, इसी शुऊर से काम लेकर इन्सान ज़िन्दगी के दूसरे मैदानों में तरक़्क़ी की प्लानिंग करता है। यूँ तो राष्ट्रीय स्तर पर भी मुसलमानों का तालीमी अनुपात बहुत ज़्यादा नहीं है, लेकिन उत्तर प्रदेश की हालत इस मामले में बहुत ही ज़्यादा नाक़ाबिले-बयान है।

कुछ आँकड़ों में उत्तर प्रदेश के मुसलमान बिहार से भी पीछे हैं। इसका ज़िम्मेदार कौन है? अब जबकि विधान सभा चुनावों का ऐलान हो चुका है और राज्य के मुसलमानों को एक बार फिर वोट के अधिकार का इस्तेमाल करने का मौक़ा है। उन्हें इस बात पर ज़रूर ग़ौर करना चाहिये। हदीस में एक मोमिन की ख़ूबी ये बताई गई है कि वो एक सूराख़ से दो बार नहीं डसा जा सकता, यानी उसे कोई एक बार तो धोखा दे सकता है लेकिन बार-बार नहीं, उत्तर प्रदेश के मुसलमान कैसे मोमिन हैं जो पिछले सत्तर साल से धोखा खा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है, यहाँ से 80 लोक सभा सदस्य हैं, यहाँ की आबादी का पाँचवाँ हिस्सा मुसलमान हैं। इसके बाद भी इनके तालीमी पिछड़ेपन में हर दिन बढ़ोतरी हो रही है। सरकारें आती हैं चली जाती हैं, पार्टियाँ और चेहरे बदलते रहते हैं, मगर मुसलमानों के साथ किसी का सुलूक नहीं बदलता। क्या सरकारों की ये ज़िम्मेदारी नहीं कि वो अपनी जनता की तालीमी तरक़्क़ी के लिये प्लानिंग करें, ऐसा नहीं कि राज्य में तालीम के नाम पर पैसा ख़र्च नहीं होता, लगभग 20 हज़ार करोड़ रुपये सालाना ख़र्च होता है, अलबत्ता मुसलमानों के नाम पर सरकार के पास फूटी कोड़ी भी नहीं है।

मदरसा मॉडर्नाइज़ेशन के नाम सरकार ने हज़ारों मदारिस को मदरसा बोर्ड से एफ़िलिएट करके वहाँ टीचर्स की भर्ती तो कर ली, लेकिन दो साल से ज़्यादा वक़्त गुज़र गया लेकिन उन्हें तनख़्वाह तक नहीं मिली, जबकि बजट में 479 करोड़ रुपए रखे गए हैं, अब कोई ये बताए कि भूके पेट टीचर्स किया तालीम दे सकते हैं? सरकारी प्राइमरी स्कूलों का निज़ाम पहले ही अंधेर नगरी चौपट राज का शिकार है। मुसलमान इन्हीं दोनों जगह तालीम पते हैं, या तो सरकारी स्कूलों का रुख़ करते हैं, या मदारिस का, दोनों का हाल आपके सामने है, सरकार ने मिड-डे मील और कुछ रुपियों के वज़ीफ़े के नाम पर मुसलमानों का शोषण किया है।

क्या सरकार इन दोनों इदारों को दुरुस्त नहीं कर सकती, वो चाहे तो आज के आज में दुरुस्त कर सकती है लकिन नहीं करेगी, इसलिए कि उनके दरुस्त हो जाने से मुसलमानों का तालीमी ग्राफ़ बढ़ जाएगा। मुसलमान पढ़ लिख जाएगा और शऊर हासिल कर लेगा, फिर वो हुकूमत में अपना हिस्सा तलब करेगा। ऐसा भी नहीं कि उत्तर प्रदेश विधान सभा में मुसलमान विधायक न हों, या वो सरकारों का हिस्सा न रहे हों, पहले शिक्षा विभाग भी उनके पास रहे, लेकिन उन्हें भी क़ौम से ज़्यादा अपनी कुर्सी की फ़िक्र रही है, या वो अपनी हुकूमतों के बंधुआ मज़दूर रहे हैं।

एक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में 40.83 प्रतिशत मुसलमान अनपढ़ हैं जबकि बाक़ी लोग केवल 34 प्रतिशत अनपढ़ हैं, लगभग 29 प्रतिशत मुस्लमान केवल प्राइमरी तक शिक्षित हैं, प्राइमरी एजुकेशन की सुरते-हाल और दो-चार दर्जे की तालीम का क्या स्टैण्डर्ड होता है, उसे आप अच्छी तरह जानते हैं, उन्हें भी अशिक्षित लोगों में ही शामिल करना चाहिए। इस तरह 70 प्रतिशत मुसलमान अशिक्षित हैं। केवल 30 प्रतिशत मुसलमान ही हैं जो लिख पढ़ सकते हैं। मुसलमान 13.89 फ़ीसद आठवीं पास हैं, ग़ैर-मुस्लिमों में यह ग्राफ़ 17 प्रतिशत है। 12.22 प्रतिशत मुसलमान हाई स्कूल या इंटरमीडिएट हैं। 3.33 प्रतिशत मुसलमान ग्रेजुएट हैं और ग़ैर-मुस्लिम उसका दोगुना 6.17 प्रतिशत ग्रेजुएट हैं और 1.11 प्रतिशत मुसलमानों ने ग्रेजुएशन से ऊपर की तालीम हासिल की है और ब्रादराने-वतन में ये ग्राफ़ भी दो गुनी यानी 2.13 प्रतिशत है।

ये आंकड़े हैं जो उत्तर प्रदेश की ‘बेहतरीन-उम्मत’ के बारे में हैं। अब आप इसी से अंदाज़ा लगा लीजिये की डॉक्टर, इंजीनियर कितने होंगे, आई. ए. एस. और आई. पी. एस. तो पूरे राज्य भर में हर साल दो-चार ही होते हैं। एक वो वक़्त था जब सरकारी नौकरियों में मुसलमान की तादाद 35 प्रतिशत थी, एक आज का दिन है कि ये तादाद 3 प्रतिशत से भी नीचे चली गई है. यह वही उत्तर प्रदेश है जहाँ 77 युनिवर्सिटीज़ हैं, जहाँ कहने को हर शहर में कॉलेज हैं, जहाँ मदारिस की एक लम्बी लिस्ट है। आख़िर इस पिछड़ेपन का ज़िम्मेदार कौन है?

उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की बद-हाली और तालीमी गिरावट की असल ज़िम्मेदार तथाकथित सेक्युलर पार्टियाँ हैं, जिन्होंने मुसलमानों को बंधुआ वोट समझा, हर बार नए-नए अंदाज़ से मुसलमानों के वोट हासिल किये, बदले में दो-चार मुसलमान वज़ीर बने, कभी रमज़ान में इफ़्तार करा दिया, किसी मज़ार पर फूलों की चादर भेज दी, बहुत हुआ तो किसी ने क़ब्रिस्तान की चार दीवारी करा दी, एक हुकूमत ने उर्दू को सरकारी सतह पर दूसरी ज़बान का दर्जा देने का बिल पास कर दिया, एक साहब ने बाबरी मस्जिद गिरानेवाले कारसेवकों पर दो-चार गोलियाँ चलवा दीं, एक हुकूमत ने किसी ज़माने में उर्दू टीचर भर्ती कर दिये, बस एक-एक काम करके पंद्रह-बीस साल तक वोट हासिल करते रहे।

किसी सरकार ने या उनके साथ शामिल मुस्लिम विधायकों ने मुसलमानों की तालीम की कोई योजना कभी नहीं बनाई। मुस्लिम इलाक़ों में दूर-दूर तक स्कूल नहीं हैं। स्कूल हैं तो टीचर्स नहीं हैं। कहीं बिल्डिंग नहीं है, पूरी शिक्षा व्यवस्था करप्शन का शिकार है। प्राइवेट स्कूल महंगे हैं, जिनमे मुस्लिम बच्चे नहीं पढ़ सकते, उनके ख़र्चों का बोझ आम मुसलमान बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसके बावजूद भी हमारे मुस्लिम लीडर्स एक बार फिर उत्तर प्रदेश में तथाकथित सेक्युलर पार्टियों का झंडा उठाए हुए हैं। उन्हें स्टेज से धक्का दे कर भगाया जा रहा है, उनका नाम लेना भी किसी को गवारा नहीं, लेकिन हमारे सियासी लीडर्स उनके सामने हाथ जोड़े खड़े हैं, क्योंकि वो जीतकर अपने माल और दौलत में बढ़ोतरी करना चाहते हैं।

क़ौम की ख़िदमत के नाम पर क़ौम का सौदा कर रहे हैं। क्या 2022 के चुनाव में कोई सियासी पार्टियों से ये पूछने की हिम्मत करेगा कि उनके पास मुसलमानों के लिये क्या एजेंडा है और उन्होंने अब से पहले जो वादे किये थे वो क्यों पूरे नहीं हुए? जब क़ौम के ईमान बेचनेवाले लोग लीडर बन जाते हैं तो क़ौमें इसी तरह ग़ुलाम हो जाती हैं जिस तरह आज उत्तर प्रदेश का मुसलमान है।

तालीमी पिछड़ेपन को दूर करने के लिये हर आदमी को जागरूक होना होगा। मुसलमानों के तालीमी इदारों को भी अपना एक्टिव रोल अदा करना होगा, आम मुसलमानों को भी वज़ीफ़ा खाने और मिड डे मील के बजाय तालीम पर बात करनी होगी, माँ-बाप को सरकारी निज़ामे-तालीम (Education System) के ज़िम्मेदारों से पूछना होगा कि उनके बच्चों के स्कूलों में टीचर्स क्यों नहीं हैं? मगर माफ़ कीजिये अधिकतर माँ-बाप अपने बच्चों के वज़ीफ़े के सिलसिले में तो स्कूल मास्टर से चार बार मिलते हैं, कभी उनकी तालीम के लिये नहीं मिलते।

एफ़िलिएटेड मदरसों को अपने टीचर्स की तनख़्वाहों का ख़ुद भी इन्तिज़ाम करना होगा, पूरी क़ौम में तालीमी बेदारी का एक अभियान चलाना होगा कि “एक वक़्त खाएँगे- अपने बच्चों को पढ़ाएँगे।” सियासी नेताओं को अपनी सियासी पार्टियों पर दबाव डालना होगा कि वो मुसलमानों के तालीमी मसायल को अपनी प्राथमिकी (preferences) में शामिल करें। मगर ये सब कुछ टेम्पोरेरी हल हैं।

इसका पायदार हल सरकार में अपनी हिस्सेदारी के बाद ही हासिल हो सकता है। वो हिस्सेदारी उसी वक़्त होगी जब आपकी अपनी सियासी पार्टी हो, जिसकी लीडरशिप आप ख़ुद कर रहे हों। आपकी लीडरशिप वाली सियासी पार्टी के चार प्रतिनिधि भी संसद/विधानसभा में आपकी बात रख सकते हैं, ग़ैरों की लीडरशिप के मुस्लिम नाम के पचास प्रतिनिधि भी कुछ नहीं कर सकते, जैसा कि सत्तर साल का तज्रिबा आपके सामने है।

चुनाव आपके सामने है। आप चाहें तो अपनी तक़दीर का नया अध्याय लिख सकते हैं और अगर आपने अपने ज़मीर का सौदा कर लिया तो उससे भी ज़्यादा बुरे दिनों का सामना करना होगा।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष हैं)

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