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सम्पादकीय

अगर सभी पर जबरन एक भाषा, एक ड्रेस थोपी जाएगी तो हम अपनी पहचान को खो देंगे

यूनिवर्सल ड्रेस कोड ओल्ड आइडिया है, ये विविधता और स्थानीय संस्कृति को ख़त्म करता है, अंग्रेजों के ड्रेस कोड ने पहले भारतीयों की स्थानीयता को ख़त्म किया, अब ये मुस्लिम, सिख और आदिवासियों की स्थानीय कल्चर को समाप्त करने की ओर है. जबकि संविधान विविधता और स्थानीय संस्कृति को बचाने का अधिकार देता है।

अगर सभी पर जबरन एक भाषा, एक ड्रेस थोपी जाएगी तो आप इस पहचान को खो देंगे कि ये राजस्थानी है या पंजाबी, आप इस बात को खो देंगे कि ये किस सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आता है, किन संघर्षों और खान-पान से आता है. बहुसंख्यक समाज को इस बात की चिंता करनी चाहिए. कि उसके अंदर रहने वाले अलग-अलग समुदायों की पहचान सुरक्षित रहे।

इस सम्बंध में मुझे लेखक Praveen Jha का सुनाया एक क़िस्सा याद आता है, जो विविधता और बहुलता को लेकर शायद आपकी और मेरी समझ बढ़ाने में मदद कर सकता है.

उन्होंने एक बार लिखा था- मैं जब नॉर्वेजियन भाषा सीख रहा था तो मेरी गुरु को मैंने कहा कि वे उच्चारण में मेरे दोष सुधारती रहें। वह कुछ स्वरों को सुधारती रहीं, पर अधिकांश को जाने दिया। मैंने एक दिन पूछा कि मेरा उच्चारण तो अब भी गड़बड़ है, आप कुछ सुधारती क्यों नहीं। उन्होंने कहा कि मुझे तो ठीक लग रहा है।

मैंने कहा, “मुझे तो खुद सुन कर ग़लत लग रहा है।”

उन्होंने कहा, “मैं तुम्हें उच्चारण सुनाती हूँ।”

फिर एक ऑडियो क्लिप सुना कर पूछा।

मैंने कहा, “इससे लाख गुणा बढ़िया तो मेरा उच्चारण है”

“यह उत्तरी नॉर्वे का आदमी है। यहीं जन्मा, बड़ा हुआ।”

“लेकिन भाषा तो घटिया है”

“घटिया नहीं है, यही सही उच्चारण है”

इस तरह लगातार ऐसे ‘ग़लत’ उच्चारण के तीन-चार ऑडियो सुनवाए, जो पैदा ही नॉर्वे में हुए।

फिर उन्होंने कहा, “यह सब सही उच्चारण हैं, और सभी नॉर्वेजियन हैं। इसी से तो पता लगता है कि कौन किस गाँव से है। इसे आज तक किसी ने सुधारने की कोशिश की होती, तो यह विविधता कैसे आती? अब तुम जैसे लोग आ गए तो हमारी भाषा में एक और ‘सही’ उच्चारण जुड़ गया जिससे पता लगता है कि तुम भारतीय हो।”

इस प्रसंग से इस बात का सबक मिलता है कि भाषा की एकरूपता का आग्रह बहुत से स्थानीय स्वरों और उच्चारणों की हत्या कर देता है. अगर ये आग्रह जबरन होंगे तो हम हरियाणवी, राजस्थानी, भोजपुरी, मलयाली जैसी तमाम भाषाओं और बोलियों को खो देंगे। भाषा की तरह ही भेषभूषा की विविधता को समझने की ज़रूरत है. भाषा और कपड़ों की एकरूपता आपको आपकी संस्कृति से दूर करती है, आपकी स्थानियता की हत्या करती है और आपमें अपने ही कल्चर के प्रति हीन भावना का विकास करती है. एक बाग में गुलाब ही नहीं, गेंदे, चमेली और अमलतास के फूलों के लिए भी जगह होनी चाहिए. अगर सिर्फ़ गुलाब ही होगा तो उससे भद्दा बाग नहीं होगा कोई।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक श्याम मीरा सिंह पत्रकार हैं)

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