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सम्पादकीय

भगवा दहशतगर्दी में बढ़ोतरी और देश का भविष्य

आम तौर पर कहा जाता है कि दहशतगर्दी का कोई मज़हब नहीं होता। इसके बावजूद हर दहशतगर्द का कोई न कोई मज़हब ज़रूर होता है। एक लम्बे समय से दहशतगर्दी का इलज़ाम इस्लाम और मुसलमानों पर लगता रहा है। दहशतगर्दी की कहीं भी कोई घटना हुई, उसका इलज़ाम मुसलमानों पर लगा दिया गया। हालाँकि उसकी कोई जाँच भी नहीं हुई। ये मामला सारी दुनिया में रहा। हर जगह मुसलमान मार खाते रहे, दबाए जाते रहे। मगर ज़रा सा किसी ने बदले की आग में कोई कार्रवाई की तो सारी दुनिया के तथाकथित अमन के ध्वजवाहक इस्लाम और मुसलमानों को ही ज़ालिम ठहराने लगे। मुसलमान डिफ़ेंसिव पोज़िशन में रहे।

आम मुसलमान से ले कर बुद्धिजीवियों तक ने चीख़-चीख़ कर कहा कि इस्लाम किसी बेगुनाह की जान लेने की इजाज़त नहीं देता। उसके बावजूद सारी दुनिया ने मिलकर मुसलमानों को कुचलने का कर्तव्य निभाया। फ़िलस्तीन, अफ़ग़ानिस्तान और ईराक़ इसकी ज़िंदा मिसालें हैं। फ़लस्तीन में यहूदी स्टेट की दहशतगर्दी, अफ़ग़ानिस्तान में पहले रूसी कम्युनिज़्म और उसके बाद अमेरिका की अगुवाई में सेक्युलरिज़्म का साथ देने वालों की दहशतगर्दी और ईराक़ में केमिकल हथियार की तलाश में 20 लाख इंसानी जानों का क़त्ल दुनिया को नज़र नहीं आया।

यह देश भारत, जिसने अंग्रेज़ों की हुकूमत के समय में दर्दनाक तकलीफ़ें झेलीं, जिसने अपनी आज़ादी के लिए लाखों इंसानों की क़ुर्बनियाँ दीं, जो बर्तानवी दहशतगर्दी का शिकार हुआ। अब यहाँ एक नई क़िस्म की दहशतगर्दी ने जन्म ले लिया है जिसे हम “भगवा दहशतगर्दी” कह सकते हैं। यूँ तो इस भगवा दहशतगर्दी और अतिवाद की बुनियाद 1925 में उस वक़्त पड़ गई थी जब आर. एस. एस. नाम का संगठन वजूद में आया था। लेकिन उसकी प्रेक्टिकल शकल 30 जनवरी 1948 को उस वक़्त सामने आई जब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या हुई।

उस वक़्त हत्या की वजह ही यह थी कि गाँधी जी ने संघ की विचारधारा और माँगों के ख़िलाफ़ देश के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था को पसंद किया था। जबकि संघ चाहता था कि देश में मनु-स्मृति व्यवस्था लागू हो। उसके बाद जब तक भारत में वे लोग राज करते रहे जिन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन को क़रीब से देखा था, या जिनको बापू की सोहबत मिली थी, तब तक हिन्दू साम्प्रदायिकता को अधिक बढ़ावा न मिल सका, लेकिन जैसे ही वह नस्ल ख़त्म हुई, भगवा साम्प्रदायिकता के नाग ने फन उठाने शुरू कर दिये। बाबरी मस्जिद में मूर्तियाँ रखने से लेकर मस्जिद के गिराने तक के सारे मरहले इसी दहशत गर्दी का मुँह-बोलता सबूत हैं।

एक समय वह था जब जनता किसी भी तरह के अतिवाद से नफ़रत करती थी, साम्प्रदायिक झगड़ों में मुसलमान पुलिस फ़ोर्स की ज़्यादतियों का शिकार रहते थे, मलियाना, हाशिमपुरा, भागलपुर और मुरादाबाद की मिसालें हैं। उत्तर प्रदेश में बदनाम पी. ए. सी. हुआ करती थी जिसको मुसलमानों के क़त्ल का सर्टिफ़िकेट हासिल था। उसके बाद TADA, POTA और अब UAPA है, जिसकी वजह से मुस्लिम नौजवानों की ज़िंदगियाँ बर्बाद की जा रही हैं। यह सब रियासती दहशतगर्दी है, मगर इस समय देश में भगवा दहशतगर्दी अपने चरम पर है। इसलिये उसके ज़रिए की जाने वाली सभी दहशतगर्दी की कार्रवाइयों को सरकार का समर्थन हासिल है।

दहशतगर्दी की इस नई लहर में मुसलमानों के क़ातिलों को बाइज़्ज़त रिहा कर दिया गया, हिंदुत्व-वादियों ने उन्हें अपना हीरो मानते हुए उनको सम्मानित किया। इस्लामी रस्मों और पहचान को अपमान करनेवालों पर सरकारें ख़ामोश रहीं। भीड़ से हिंसा के ज़रिए मुस्लिम नौजवानों को मारा गया। गाय के नाम पर तो पहले भी मुसलमानों को मारा-पीटा जाता था मगर अब किचन झाँक कर देखने का नया सिलसिला शुरू हुआ। गाय के नाम पर बनी गोशालाओं में रोज़ाना दर्जनों गायें मर रही हैं उनको देखने वाला कोई नहीं मगर किसी मुसलमान की ज़बान पर गाय का नाम भी आ जाए तो ज़बान काट लेने की धमकी दी जा रही है।
[10:21 AM, 2/10/2022] ali: दहशतगर्दी की नई लहर में धर्म संसद करके मुसलमानों के क़त्ले-आम का ऐलान किया जा रहा है, दारुल-उलूम देवबन्द और बरेली को बन्द करने की प्लानिंग है। तीन तलाक़ बिल लाकर मुस्लिम महिलाओं को आज़ादी दिलाने का ढोंग करनेवाले ही हिजाब का मसला उठाकर मुस्लिम बच्चियों को रोक रहे हैं। UPSC में जामिआ मिलिया के स्टूडेंट्स की बड़ी कामयाबी को UPSC जिहाद का नाम देकर मुसलमानों के लिये ऊँचे पदों के दरवाज़े बन्द किये जा रहे हैं। ये सभी हरबे हैं जो भगवा विचार रखनेवाले हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने के लिये अपना रहे हैं।

भगवा दहशतगर्दी के सिलसिले में जहाँ ऊपर की घटनाएँ हैं वहीँ हाल ही में बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी पर क़ातिलाना हमला भी है। जिसमें हमलावरों का सम्बन्ध हिन्दू सेना से है, राज्य के मुख्यमन्त्री के साथ उनके फ़ोटो ही नहीं बल्कि उनको मुख्यमन्त्री का आशीर्वाद भी हासिल है। देश के इतिहास में यह कोई मामूली घटना नहीं है। इसका मतलब है कि अब मुसलमानों के लिये आवाज़ उठानेवाला भी महफ़ूज़ नहीं है। दो बार के MLA, चार बार से सांसद, एक पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष, बेस्ट पार्लियामेंटेरियन की उपाधि हासिल करनेवाला एक मुसलमान नागरिक महफ़ूज़ नहीं है। आम मुसलमानों की हिफ़ाज़त का तो सवाल ही नहीं।

सोने पे सुहागा यह कि न गोली चलानेवालों को कोई अफ़सोस है न उनके आक़ाओं को। बल्कि हिन्दुस्तान के कुछ भगवा नेताओं ने उन क़ातिलों की क़ानूनी मदद करने और उन्हें अवार्ड देने तक का ऐलान कर डाला है। मौजूदा दहशतगर्दी में हिन्दू मज़हबी लीडरशिप के साथ-साथ, अतिवादी विचारधारा के लोग, गोदी मीडिया, भगवा संवैधानिक संस्थाएँ और राज्य तथा केंद्र सरकार तक शामिल हैं। भगवा दहशतगर्दी के बढ़ते रुझान ने देश के हर कोने में बेचैनी की कैफ़ियत पैदा कर दी है। देश के चारों ओर जो पड़ौसी देश हैं वे धीरे-धीरे देश के सीमाओं पर क़ब्ज़ा करते जा रहे हैं। दुनिया भर में देश की रुस्वाई हो रही है। बुनियादी समस्याओं से लापरवाही बरती जा रही है, यह लापरवाही किसी दिन बहुत बड़े धमाके का रूप धारण कर सकती है।

सवाल यह है कि भगवा विचार रखनेवाले नौजवानों में यह रुझान क्यों बढ़ रहा है? ये कौन-सी किताब पढ़कर मुसलमानों के पैग़म्बर को गालियाँ दे रहे हैं, पुलिस के अहलकार तक बुज़ुर्गों की दाढ़ियाँ नोच रहे हैं, उनपर पेशाब कर रहे हैं। ये किस पाठशाला के विद्यार्थी हैं जो नफ़रत की सौदागरी कर रहे हैं? ये सब संघ और उसके नीचे काम करनेवाले संगठनों से जुड़े हुए लोग हैं। इनके हौसले इसलिये बढ़ रहे हैं कि इन्हें अपने आक़ाओं की सरपरस्ती हासिल है। ये चाहते हैं कि मुसलमानों के अन्दर डर पैदा करें, मगर ये इनकी सोच की कमी है। ये नहीं जानते कि मुसलमानों के लिये देश के ये संगीन हालात कोई नए नहीं हैं।

जिस क़ौम ने 1857 का ग़दर झेला हो, जिस क़ौम के लीडरों की लाशें दिल्ली से लाहौर तक लटकाई गई हों, जिस क़ौम के आलिमों को काले पानी की सज़ाएँ दी हों, उसके लिये धर्म-संसद में की जानेवाली बकवास कोई अर्थ नहीं रखती, जिस क़ौम के यहाँ शहादत पाना फ़ख़्र हो, उस क़ौम के लीडर पर बुज़दिलों का क़ातिलाना हमला किसी गिनती में नहीं आता, मगर ये हालात बहुसंख्यक समाज के लिये नुक़सान देनेवाले हैं। अतिवादिता और दहशतगर्दी हर क़ौम के लिये ख़तरनाक है। नौजवानों में दहशतगर्दी का बढ़ता रुझान देश के भविष्य को असुरक्षित बनाता है, ख़ुद हिन्दू धर्म की तस्वीर को ख़राब करता है। इसलिये ज़रूरी है कि सरकार में बैठे हुए लोग इस पर विचार करें।

भारत की ताक़त मुहब्बत है, नफ़रत पर आधारित सियासत साबुन के झाग की तरह है, जिसकी उम्र बहुत कम होती है। हम आज हैं, कल नहीं होंगे, लेकिन हमारी ग़लतियों की सज़ा हमारी आनेवाली नस्लों को भुगतना पड़ेगी, ज़माने का पहिया घूमता रहता है, वक़्त बदलता है तो निज़ाम भी बदल जाता है। इसलिये समझदारी इसी में है कि हम सब भारत के सुन्दर लोकतान्त्रिक मूल्यों और संविधान का सम्मान करें, जियो और जीने दो, के उसूल पर चलें ताकि आनेवाली नस्लों के लिये एक ऐसा भारत छोड़कर जाएँ जहाँ रंग, नस्ल, कल्चर और ज़बान के बजाय इन्सानियत की बुनियाद पर इन्सान का सम्मान हो।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष हैं)

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