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सम्पादकीय

ताक़त का इस्तेमाल ज़ुल्म करने के लिये नहीं बल्कि ज़ुल्म को रोकने और ख़त्म करने के लिये होना चाहिए

अल्लाह ने इंसान को बेहतरीन शक्ल-सूरत के साथ पैदा किया। इसको तमाम जानदारों पर बरतरी दी। इसको अक़्ल और शुऊर, सोचने और समझने की सलाहियत दी। ज़िन्दा रहने के लिये साधन जुटाए। इतना ही नहीं इसको ज़िन्दगी गुज़ारने का तरीक़ा भी बताया। इसके बावजूद इन्सान ने वो हरकतें कीं जिससे जानवर भी शर्मिन्दा हो गए। अगर इंसान सिर्फ़ इंसान होने के नाते ही ग़ौर करता और अपने कामों को इंसानी दायरों में ही अंजाम देता तब भी ये दुनिया किसी जन्नत से कम न होती। मसला जब पैदा होता है जब इंसान अपनी हैसियत को भुला देता है।

लफ़्ज़ ‘इंसान’ पर ग़ौर करने से मालूम होता है कि इसमें ‘इंस’ का माद्दा (धातु) शामिल है। इंसान के लिये लफ़्ज़ ‘इंस’ ख़ुद क़ुरआन मजीद में इस्तेमाल हुआ है। लफ़्ज़ ‘इंस’ में ‘इ’ की जगह अगर ‘उ’ इस्तेमाल किया जाए तो ये लफ़्ज़ ‘उन्स’ बन जाता है, जिसके माना ‘मुहब्बत’ हैं। इसका मतलब है कि इंसान वो मख़लूक़ है जो मुहब्बत करती है और जिससे मुहब्बत की जाती है। मुहब्बत की बुनियाद पर बनने वाला इंसानी समाज उन तमाम ख़ूबियों से मालामाल होगा जो एक अच्छे और पाकीज़ा समाज की ज़रूरत हैं। मुहब्बत की बुनियाद पर वो अपने ही जैसे इंसानों के लिये क़ुर्बानी और त्याग का जज़्बा रखेगा, उसको दुःख और तकलीफ़ देने से भी बचेगा। ये नहीं हो सकता कि कोई आपसे मुहब्बत भी करे और आपका बुरा भी चाहे। कम से कम हम लोग अपने इंसान होने का ही सुबूत दें और अपने नाम की ही लाज रख लें।

इंसान को ‘अशरफ़ुल-मख़लूक़’ यानी ‘सर्व-श्रेष्ठ योनि’ होने का मक़ाम भी हासिल है। ज़मीन और आसमान में पाई जानेवाली कोई भी मख़लूक़ या योनि हो उन सबमें इंसान को सबसे ऊँचा और श्रेष्ठ दर्जा हासिल है। हम जानते हैं कि जानवरों में भी कितने ही जानवर ऐसे हैं जो इंसान को फ़ायदा पहुँचाते हैं। कुछ के बारे में हम जानते हैं, कुछ के बारे में हम नहीं जानते। कुछ जानवरों से फ़ायदा हमें उस वक़्त मिलता है जब हम उनको पालते हैं और कुछ जानवर हमारी सेवा इस हाल में भी करते हैं जबकि हम उन्हें पालते नहीं।

जानवरों में सबसे कम ज़ात ‘कुत्ते’ की है। जब हम किसी को ज़लील करना चाहते हैं तो उसे ‘कुत्ता’ कह देते हैं। लेकिन कुत्ता भी वफ़ादारी में अपनी मिसाल रखता है। उसकी वफ़ादारी पर इंसान को भी शक नहीं है। घरों की हिफ़ाज़त के लिये भी कुत्ते पाले जाते हैं। अशरफ़ुल-मख़लूक़ या सर्व-श्रेष्ठ योनि होने के नाते इंसान को ग़ौर करना चाहिये और उसे अपना मक़ाम तय करना चाहिये कि कहीं लिस्ट में उसका नाम कुत्ते से नीचे तो नहीं है।

इंसान और आदमी, ये दोनों नाम तमाम इंसानों के लिये आम हैं, तमाम इंसान ही अशरफ़ुल-मख़लूक़ की लिस्ट में शामिल हैं, इसमें किसी मज़हब और इलाक़े का कोई दख़ल नहीं है। अलबत्ता मुसलमानों के लिये दो नाम और हैं जो सिर्फ़ मुसलमानों के लिये ख़ास हैं। इनमें से एक उनका अपना ख़ास नाम है ‘मुस्लिम’ और दूसरा पूरी मुस्लिम क़ौम के लिये है, और वो है ‘ख़ैरे-उम्मत’। ये दोनों नाम मुसलमानों ने ख़ुद नहीं रखे हैं। न इन्हें किसी बादशाह ने दिये हैं, बल्कि ये दोनों नाम उन्हें अल्लाह ने दिये हैं।

मुस्लिम का अर्थ है अल्लाह का फ़रमाँबरदार, ख़ुद को अल्लाह के सामने झुकानेवाला, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के अल्फ़ाज़ में ‘मुस्लिम वो है जिसकी ज़बान और हाथ से दूसरे मुसलमान महफ़ूज़ रहें।’ मुसलमान दूसरों की हिफ़ाज़त करनेवाला, सलामती देनेवाला, अम्न क़ायम करनेवाला होता है। एक मुसलमान से ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो किसी को तकलीफ़ देनेवाली बात भी करे। यहाँ तक कि वो फलों के छिलके भी बाहर इसलिये नहीं फेंक सकता कि ग़रीब बच्चे इन छिलकों को देखें और अपने माँ-बाप से इन फलों की डिमांड करें और माँ-बाप उनकी डिमांड पूरी न कर सकें। इसके लिये ये भी जायज़ नहीं कि वो ख़ुद पेट भर कर खाए और उसका पड़ौसी भूखा रहे।

इसी के साथ तमाम मुसलमानों को ‘ख़ैरे-उम्मत’ का टाइटल दिया गया। टाइटल के ज़रिए ये बताया गया कि तमाम इंसानों में तुम्हें इस बिना पर बरतरी हासिल है कि तुम्हारे पास ख़ुदा का आख़िरी पैग़ाम है। अब तुम्हारा वुजूद सरापा ख़ैर है। तुमसे किसी शर और बुराई की उम्मीद नहीं की जा सकती। दुनिया में ख़ैर और भलाई को फैलाना और शर को रोकना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। अब तुम ही इन्साफ़ करनेवाले भी हो और इन्साफ़ के लिये खड़े होनेवाले भी। ये कैसे हो सकता है कि तुम्हारी ज़बान पर गालियाँ हों, तुम्हारे बाज़ू किसी ग़रीब पर ज़ुल्म ढा रहे हों, तुम्हारी तराज़ू कम तौलती और तुम्हारे नापने के पैमाने कम नापते हों। तुम ज़ालिम नहीं हो सकते और न ही तुम ज़ालिम का साथ दे सकते हो। तुम्हारी बस्तियाँ तो अम्न का सायबान हैं जहाँ मज़लूम पनाह लेते हैं।

मानो एक मुसलमान की चार हैसियतें हैं, एक ये कि वो इंसान है, दूसरे ये कि वो बेहतरीन मख़लूक़ है, तीसरी हैसियत उसकी मुस्लिम की है और चौथी हैसियत उसकी ये है कि वो ख़ैरे-उम्मत का व्यक्ति है। मेरी गुज़ारिश है कि आप अपनी चार हैसियतों में से किसी भी हैसियत में अपना जायज़ा लीजिये और सोचिये कि आप अपनी इस हैसियत का हक़ अदा कर रहे हैं। क्या इंसान होने का तक़ाज़ा पूरा हो रहा है। क्या अशरफ़ होने का किरदार अदा किया जा रहा है? अगर आप मुसलमान हैं तो क्या लोग आपके दामन में महफ़ूज़ हैं?

इस सिलसिले में जब मैं अपनी क़ौम का जायज़ा लेता हूँ तो अफ़सोस होता है। कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ दीजिये तो हमारी सूरते-हाल बयान करने के लायक़ नहीं है। ज़बान पर गालियाँ हैं, ज़रा-ज़रा सी बात पर आस्तीनें चढ़ा लेना है, हसद, कीना और बुग़्ज़ से दिल भरा पड़ा है, घर-घर में ना-इत्तफ़ाक़ियाँ हैं, ईमान और ज़मीर बेच देनेवालों की बड़ी तादाद हमारे बीच है, अदालतों में झूठे गवाह अगर चाहियें तो हमारी बस्तियों में ख़ूब सस्ते दाम पर मिल जाते हैं। अनपढ़ लोग अगर जिहालत की इन्तिहा पर हैं तो पढ़े-लिखे लोगों में भी जाहिलियत की अदाएँ हैं।

गली-कूचे, सड़कें और मोहल्ले दूर से देख कर ही पहचान लिये जाते हैं कि ये मुसलमान हैं। अल्लाह ने जिनको सत्ता में कुछ हिस्सा दे रखा है वो उसके नशे में मस्त हैं और ख़ुदा बन बैठे हैं। नौजवान नशे के आदी हैं, शराब आम हो चुकी है, क़ब्रिस्तानों तक में जुआ खेला जा रहा है। पुलिस में सबसे ज़्यादा केस हमारे हैं, जेल में हम अपनी आबादी के अनुपात से बढ़कर हैं, अस्पताल हमसे भरे पड़े हैं। आख़िर ये कौन-सी दुनिया में हम जी रहे हैं? इसमें कोई शक नहीं कि हुकूमतों ने हमारे साथ ज़्यादतियाँ की हैं, प्लानिंग के साथ हमें किनारे लगाया गया है, लेकिन हमें इसका भी इक़रार करना चाहिये कि हम ख़ुद भी जानबूझकर पस्ती की तरफ़ जाते रहे और अभी तक चले जा रहे हैं।

मेरे साथियो! आज हमारी बदतर हालत का ज़िम्मेदार हमारा ही किरदार है। वरना ऐसे कैसे हो सकता है कि अल्लाह की महबूब उम्मत ज़लील और रुस्वा हो? यक़ीनन हमने ही अपनी सारी हैसियतें भुला दीं और जानवरों से भी बदतर हो गए। अगर हमें दुनिया में इज़्ज़त हासिल करना है तो चारों हैसियतों में बेहतरीन किरदार पेश करना होगा। ये वही देश है जब हमने इंसानियत का किरदार पेश किया था तो इस देश की जनता ने हमारा कलिमा तक पढ़ डाला था। हमें सर-आँखों पर बिठाया था। हमें अपना हाकिम तस्लीम किया था।

आज भी ज़रूरत है कि हर शख़्स अपने मक़ाम को पहचाने और उस मक़ाम के मुताबिक़ अपना किरदार पेश करे। जो शख़्स जितनी ताक़त भी रखता है उसकी ज़िम्मेदारी उतनी ही ज़्यादा है। ताक़त का इस्तेमाल ज़ुल्म करने के लिये नहीं बल्कि ज़ुल्म को रोकने और ख़त्म करने के लिये होना चाहिये। इंसानी समाज संविधान से चलता है। संवैधानिक इदारों से जुड़े हुए लोगों की ज़्यादा ज़िम्मेदारी है कि वो संविधान के मुताबिक़ काम करें। आप अपना डिफ़ेन्स ज़रूर कीजिये मगर क़ानून को हाथ में मत लीजिये।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष हैं)

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