कांग्रेस के एक्स-प्रेसिंडेंट ने कहा कि ये देश हिन्दुओं का है, मगर हिन्दुत्ववादियों का नहीं है। उनके अनुसार गोडसे हिन्दुत्ववादी था और महात्मा गाँधी हिन्दू थे। लेकिन वो ये क्यों भूल गए कि भारत में लगभग 40% लोग वो हैं जो न हिन्दू हैं और न हिन्दुत्ववादी, जिसमें 15% मुसलमान, 20% बौद्ध, 2% सिख, 3% ईसाई हैं। इनके अलावा कहने को तो पारसी, जैनी, दलित, नागा, लिङ्गायत आदि भी ख़ुद को हिन्दू नहीं मानते। अगर इन सभी वर्गों को गिना जाए तो हिन्दू माइनॉरिटी में आ जाएँगे। कॉंग्रेस लीडर ने किस बुनियाद पर कह दिया कि ये देश हिन्दुओं का है।
कॉंग्रेस को सरकार से निकालने में असल में इसी तरह के बयानात और ख़यालात का हाथ है। इमरजेंसी के बाद जब दोबारा कॉंग्रेस की सरकार बनी, उसी वक़्त से उसने नरम हिन्दुत्वा की राह अपना ली थी। बाबरी मस्जिद का ताला खोलने, मन्दिर का शिला-न्यास करने, चुनाव अभियान में नारियल फोड़ने, मन्दिरों के दर्शन करने से लेकर महन्तों के पैर छूने के काम नरम हिन्दुत्वा का पता देते हैं। कॉंग्रेस ये भूल गई कि जो लोग सेक्युलरिज़्म के बजाय धर्म को प्राथमिकता देंगे वो नरम हिन्दुत्वा को क्यों पसन्द करेंगे, उन्हें तो गोडसे वाला हिन्दुत्वा पसन्द आएगा।
एक सेक्युलरिज़्म तो वो है जिसमें मज़हब को कोई जगह नहीं, दूसरा सेक्युलरिज़्म वो है जहाँ राज्य और हुकूमत का कोई धर्म नहीं होता, वो सभी धर्मों के बराबर सम्मान पर यक़ीन रखता और अमल करता है। इस लिहाज़ से अगर कोई शख़्स निजी तौर पर अपने धर्म पर अमल करता है तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वो सियासी लीडर, या सियासी पार्टी के अध्यक्ष की हैसियत में धार्मिक रस्म अदा करता है तो ये भारतीय सेक्युलरिज़्म के ख़िलाफ़ है।
जम्हूरियत का गला तो मोदी जी ने घोंट दिया। सभी जम्हूरी इदारे अपना किरदार भूल गए, सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई की शराब पार्टी ने जम्हूरियत की चिता जला डाली, मौजूदा लोकसभा सेशन में पत्रकारों के अन्दर जाने पर पाबन्दी ने बोलने और कहने की आज़ादी की पोल खोल दी, दर्जनों पत्रकारों को सच बोलने के जुर्म में जेलों के पीछे धकेल दिया गया, जिसने अपना क़लम बेचने से इनकार कर दिया उसका हाथ ही तोड़ दिया गया। कुल मिलाकर हर इदारे में जम्हूरियत की रूह ख़त्म कर दी गई। बीजेपी ने जम्हूरियत का गला घोंटा, समझ में आता है, लेकिन कॉंग्रेस का सेक्युलरिज़्म कहाँ चला गया है। राहुल गाँधी के बयान ने सेक्युलरिज़्म के ताबूत में आख़िरी कील ठोंक दी है।
भारतीय सेक्युलरिज़्म की ये ख़ूबी थी कि यहाँ ईद और दीवाली मिलकर मनाई जाती थी, यहाँ दर्जनों ग़ैर-मुस्लिम शाइर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की शान और तारीफ़ में नअत लिखते थे, उन्हीं मुहम्मद (सल्ल०) की जिनके नाम से आज फासीवादियों को उलटी होती है। यहाँ रसखान, श्री कृष्ण के ऐसे चाहनेवाले थे कि वृन्दावन को ही अपना घर बना लिया था। यहाँ नज़ीर अकबराबादी थे जिन्होंने हिन्दू त्योहारों पर दर्जनों नज़्में लिखीं। मगर आज वही भारत है जहाँ मुसलमानों की दाढ़ी, टोपी, कुर्ते-पायजामे से नफ़रत है, ये वही भारत था कि पण्डित आनन्द मोहन ज़ुत्शी गुलज़ार देहलवी की ज़बान और लिबास से लोग ये समझे कि मुसलमान है और उनको नमाज़ की इमामत के लिये मुसल्ले पर खड़ा कर दिया और पण्डित जी ने भी अपनी क़िरअत से ये महसूस न होने दिया कि जनाब ग़ैर-मुस्लिम हैं, और आज वही भारत नमाज़ पढ़ने की मुख़ालिफ़त कर रहा है। हर जुमा को गुड़गाँव के हज़ारों मुसलमान नमाज़ के लिये परेशान रहते हैं।
कभी इसी भारत के तमाम सरकारी दफ़्तर सेक्युलरिज़्म की तस्वीर पेश करते थे। आज हर सरकारी दफ़्तर मन्दिर बन गया है। अभी एक ज़मीन की रजिस्ट्री के लिये महरोली के रजिस्ट्रार हाउस जाना हुआ तो देखा कि ऑफ़िस में लक्ष्मी देवी की तस्वीर लगी हुई है। इसी तरह पुलिस स्टेशन में एक SHO के ऑफ़िस में श्री राम की तस्वीर लगी हुई है। मैं सभी धर्मों का सम्मान करता हूँ, इसलिये कि मेरा धर्म मुझे इसी की तालीम देता है, लेकिन मैं सरकारी दफ़्तरों में धार्मिक तस्वीरों को इसलिये नापसन्द करता हूँ कि इससे दूसरे धर्म के माननेवालों के अन्दर हीन-भावना पैदा होती है। अगर आपको तस्वीर लगाना ही है तो सभी धर्मों की लगाइये वरना भारत के उन स्वतन्त्रता सेनानियों की लगाइये जिन्होंने इस देश की आज़ादी के लिये अपनी जानों के नज़राने पेश किये हैं।
भारत में जिस तरह जम्हूरियत और सेक्युलरिज़्म दम तोड़ रहे हैं, इससे ख़तरा है कि यहाँ एक ऐसी व्यवस्था आ जाएगी जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिये कोई जगह नहीं रहेगी। न उन्हें मिल्कियत का हक़ होगा और न उन्हें वोट देने का अधिकार होगा, धार्मिक उन्माद को जिस तरह हवा दी जा रही है, उससे यहाँ नफ़रत के शोले भड़क उठेंगे, देश के शासकों की ज़बानें जो कुछ बोल रही हैं, वो इस देश के भविष्य के लिये अच्छा नहीं है। ख़ुद को सेक्युलरिज़्म का झण्डा लेकर चलनेवाला समझनेवाली पार्टियाँ हिन्दुत्व के आगे जिस तरह घुटने टेक रही हैं, वो देश के लिये कोई शुभ शगुन नहीं है। इससे केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों को ही नहीं ख़ुद हिन्दुओं में भी दलितों और शूद्रों को परेशानी होगी, इसलिये कि मनु की व्यवस्था में इनके कोई हक़ नहीं हैं।
इन हालात में क्या स्ट्रेटेजी हो, ये सोचने की ज़रूरत है। सोचने का ये काम वैसे तो मिल्लत के समझदार लोगों का है। लेकिन मैं समझता हूँ कि इस बारे में हमें अपनी धार्मिक लीडरशिप की शिकायत और शिकवे के बजाय, अपनी सियासी लीडरशिप से सवाल करने चाहिये। वो लोग जो मुसलमानों के वोटों से संसद में पहुँचे हैं, उन्होंने हमारे लिये क्या काम किया? आज भी 22 सांसद संसद में हैं और लगभग 160 विधायक अलग-अलग राज्यों में हैं, जिनमें केरल में 32, आसाम में 31, उत्तर-प्रदेश में 25, बिहार में 19, महाराष्ट्र में 10, राजस्थान में 8, तिलंगाना में 8, कर्नाटक में 7 और दिल्ली में 5 MLA हैं। कश्मीर को छोड़कर बाक़ी सभी राज्यों में एक-एक, दो-दो ही मुस्लिम नुमाइन्दे हैं। अगर हम लोकल बॉडीज़ की बात करें तो कई दर्जन शहरों और हज़ारों गाँवों में मुसलमान सत्ता में हैं। ये तो वो संख्या है जो मौजूदा वक़्त में सत्ता में है, इससे कहीं ज़्यादा वो मुस्लिम लीडरशिप है जो चुनाव हारने के बाद घर बैठ गई है। अगर ये सारे लीडर अपना-अपना रोल अदा करने लगें तो क्या कुछ नहीं कर सकते।
जो लोग दीन के आलिमों से एक होने की बात करते हैं वो अपनी सियासी लीडरशिप से एक होने की माँग क्यों नहीं करते? आख़िर हमारी दुनिया की कामयाबी तो इसी सियासी लीडरशिप के हाथ में है। आप पिछले कई साल की लोकसभा और विधान सभा की कार्रवाई उठाकर देख लीजिये, आप को पार्लियामेंट में सिर्फ़ एक ही शख़्स की आवाज़ सुनाई देगी। जिसकी आवाज़ में जम्हूरियत और सेक्युलरिज़्म का दर्द सुनाई देगा, जो मुसलमानों के तलाक़ बिल पर विरोध करेगा और कश्मीर से 370 हटाए जाने पर भी और CAA पर भी ज़बान खोलेगा। इससे पहले या तो उनके वालिद बोलते थे या फिर कभी-कभी मुस्लिम लीग के दो लोगों की ज़बान खुलती थी, ये भी उस वक़्त होता था जब उनके राज्य में कॉंग्रेस से समझौता नहीं होता था।
वरना बाक़ी मुस्लिम लीडरशिप ख़ामोश तमाशाई थी, जबकि ऐसा नहीं है कि वो बोलना नहीं जानते थे, उनमें वकील भी थे और दीन के आलिम भी। इसका मतलब है कि मुस्लिम सियासी लीडरशिप या तो काम करने का तरीक़ा नहीं जानती, या इसके सीने में मिल्लत के लिये धड़कता हुआ दिल नहीं है, या वो ये समझती है कि मुसलमानों की कामयाबी की सारी ज़िम्मेदारी धार्मिक लीडरशिप के हिस्से में है, या उनकी गर्दनों में अपनी सियासी पार्टियों की ग़ुलामी का पट्टा है, जो उन्हें बोलने से रोकता है। इसका हल इसके सिवा और क्या है कि मुसलमान अपनी आज़ाद सियासी पार्टी को मज़बूत करें ताकि उनके मसले हल हो सकें, अगर इत्तिफ़ाक़ से कोई मसला हल न भी हो सके तो कम से कम संसद में गूँज तो सके।
(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष हैं)