जहां सभी सेकुलर पार्टियां, मुसलमानों को राजनीतिक भागीदारी के नाम पर ठगने का काम कर रही है वहीं तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) सामाजिक और राजनीतिक भागीदारी की एक अलग ही परिभाषा स्थापित कर रही है।
सत्ताधारी पार्टी DMK प्रदेश की राजनीती में एक मुस्लिम राजनीतिक पार्टी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को रामनाथपुरम जैसी लोकसभा सीट देती है जहां मुस्लिम मतदाता बेहद कम है और वहां से एक मुस्लिम सांसद कानी के. नवास को अपने समर्थन से पिछले दो बार से चुनाव जितवा भी रही है।
सोचिये न अपने इधर तो 1.5 करोड़ मुस्लिम आबादी वाले महाराष्ट्र में भी कांग्रेस मुसलमानों को एक भी टिकट नहीं देती हैं वहीं केवल 5.86% मुस्लिम आबादी वाले राज्य में DMK एक मुस्लिम सांसद को समर्थन देने के साथ-साथ राज्यसभा में भी पार्टी की तरफ से एम मुहम्मद अब्दुल्लाह को भेजती है।
यही तो है असली भागीदारी और उसका असली मतलब!
यहां तो मुस्लिम बहुल सीट पर भी मुस्लिम प्रत्याशी की बात कर दो तो सेकुलर, लिबरल, समाजवादी विचारधारा वाली पार्टियां हिंदू वोटर नाराज हो जायेगा की दुहाई देने लगती है।
जहां DMK बिना भागीदारी के बड़े दावों के ही मुसलमानों को उचित भागीदारी दे रही है वहीं दूसरी तरफ देश भर की बाकि सेकुलर पार्टियों का भी हाल जान लीजिये।
एक तरफ राहुल गांधी और पूरी कांग्रेस देश भर में प्रचारित करती है कि उन्होंने मुहब्बत की दुकान खोली है और उसमें सबको आबादी के हिसाब से उचित भागीदारी दी जायेगी मगर जब टिकट बंटवारे की बात आती है तो वही ढाक के तीन पात।
लोकसभा चुनाव 2024 में मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, कर्नाटक, तेलंगाना और महाराष्ट्र आदि में मुसलमानों की अच्छी आबादी होने के बावजूद टिकट के नाम पर क्या दिया ठेंगा!
मंचों से बातें करेंगे ईरान तुरान की मगर जब अपनी बातों को अमली जामा पहनाने की बात आयेगी तो हाथ खड़े कर के बोलेंगे सवाल मत करो वरना भाजपा आ जायेगी!
आप कभी कांग्रेस के राजनीतिक मंचों की पहली लाइन के नेताओं को देखियेगा पता चल जायेगा कि कांग्रेस के लिए मुसलमान केवल वोटर की हैसियत रखता है नेता तो कभी इन्होंने मुसलमानों को तस्लीम किया ही नहीं।
ऐसे ही अगर बात सपा और राजद की बात करें तो मुसलमानों को भागीदारी के नाम पर ठगने का काम इन्होंने भी कम नहीं किया है।
सोचिये जिस यूपी में आबादी के हिसाब से मुसलमानों का 16 लोकसभा सीटों का हक़ बनता है वहां मुसलमानों को सीटें कितनी मिलती है केवल चार। खास बात तो ये है कि कई ऐसी मुस्लिम बहुल सीटें जहां नैतिक तौर पर मुसलमानों का पहला हक़ बनता था वहां भी मुसलमानों को भाजपा हराने के नाम पर खामोश करवा दिया गया है।
चलिए लोकसभा में सपा की मज़बूरी को एक समय के लिए मान भी लिया मगर राज्यसभा और एमएलसी में कौन सी मज़बूरी रहती है जो मुसलमान हमेशा वेटिंग लिस्ट में ही रह जाता है।
राजद वैसे तो मुस्लिम हितैषी होने का बहुत दंभ भर्ती है मगर जिस मुस्लिम समुदाय को आबादी के हिसाब से बिहार में लोकसभा की 8 सीटें मिलनी चाहिए उसको मिलती है केवल 2 वो भी मज़बूरी के तहत। विधान परिषद और राज्यसभा में भी मुसलमानों को लॉलीपॉप ही दिया जाता है। ये भी जान लीजिये कि अगर सोशल मीडिया पर बवाल न होता तो राजद कभी भी फ़ैयाज़ अहमद को भी राज्यसभा नहीं भेजती।
DMK ने तमिलनाडु की राजनीती में स्पष्ट फर्क दिखाया है कि सभी की भागीदारी बोलने और कर के दिखाने में क्या अंतर होता!
सभी सेकुलर पार्टियों को अपनी कुंठा को साइड रख के DMK से सीखने की जरूरत है कि आखिर कैसे एक समाज को सामाजिक न्याय की परिभाषा के असली रूप के साथ राज्य की तरफ से आत्मसम्मान की भावना को प्रदान किया जाता है।
लेखक: अंसार इमरान