उत्तर प्रदेश की राजनीति की बात करें तो OBC और मुस्लिम राजनीति के बाद सबसे ज्यादा जिस समुदाय की बात होती है वो है दलित समाज. अगर मैं 2011 की जनगणना के हिसाब से बात करूँ तो प्रदेश की लगभग 20 करोड़ की आबादी में से 21% आबादी दलित समुदाय की है।
लोकसभा के हिसाब से बात की जाये तो पता चलेगा कि मोहनलालगंज, मिश्रिख, कौशांबी, धौरहरा, हरदोई, उन्नाव और रायबरेली वो लोकसभा सीटें हैं जहां पर दलित मतदाता 30% से ज्यादा है. इसके अलावा जालौन, सीतापुर, इटावा, अमेठी, मिर्जापुर, लालगंज, बाराबंकी, आज़मगढ़ और खीरी वह लोकसभा सीटें हैं जिन पर दलित वोटर 25-30% है।
उत्तर प्रदेश लोकसभा की 80 सीटों में से 16 सीटें दलित समाज के लिए आरक्षित है, इन सीटों में मोहनलालगंज, मिश्रिख, कौशांबी, हरदोई, जालौन, इटावा, लालगंज, बाराबंकी, रॉबर्ट्सगंज, हाथरस, बांसगांव, मछलीशहर, नगीना, आगरा, शाहजहांपुर और बहराईच लोकसभा सीट शामिल हैं।
अगर परिसीमन के तहत आरक्षित इन 16 लोकसभा सीटों की बात करूँ तो इनमें मुस्लिम केंद्रित नगीना और बहराइच भी आरक्षित हैं। अगर इन सीटों का समीकरण देखेंगे तो नगीना में 46% और बहराइच में 34% मुस्लिम आबादी के बावजूद इनको आरक्षित किया गया है। इसके अलावा बाराबंकी और मोहनलालगंज भी वो लोकसभा सीटें हैं जहां 22% से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं और ये सीटें भी दलित समुदाय के लिए आरक्षित हैं।
देश में बहुत सारी सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा और दलित आबादी कम है इसके बावजूद उसे परिसीमन के नाम पर आरक्षित कर दिया गया है। इसके उल्ट कई सीटें ऐसी है जहां दलित आबादी बहुत ज्यादा है इसके बावजूद उन सीटों को जनरल कैटोगरी में रखा गया है।
अब इसी परिसीमन की एक कहानी और भी है, कई सीटें ऐसी हैं जहां दलित आबादी कम होने के बावजूद आरक्षित हैं वहीं धौरहरा, उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, अमेठी, मिर्ज़ापुर, आजमगढ़ और खीरी जैसी दलित केंद्रित लोकसभा सीटों को जनरल कैटागोरी में रखा गया है।
अब अगर मैं दलित मुस्लिम समीकरण की बात करूँ तो पता चलता है कि प्रदेश की कई ऐसी लोकसभा सीटें है जो इस समीकरण के साथ आसानी से जीती जा सकती हैं या इतिहास में जीती गयी है। कुछ सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी और कुछ सीटों पर दलित उम्मीदवार चुनावी नतीजों को तब्दील करने की क्षमता में रहेंगे।
मुस्लिम दलित समीकरण को उदाहरण के साथ समझते हैं:
जैसे संत कबीर नगर लोकसभा सीट पर मुस्लिम मतदाता 20% और दलित वोट 24% है। अगर ये दोनों समुदाय एक साथ मिल कर किसी भी प्रत्याशी को वोट करें तो वो आसानी से विजेता हो जायेगा। ऐसे ही अंबेडकर नगर सीट का भी हाल है। इस सीट पर 17% मुस्लिम और 24% दलित चुनावी नतीजों को बदलने की ताकत रखती है।
सहारनपुर सीट की बात करें तो 42% मुस्लिम मतदाता और 22% दलित वोटर के समीकरण पर ही यहाँ से हाजी फज़लुर रहमान 2019 का लोकसभा चुनाव जीत सांसद बने थे। ऐसे ही बिजनौर लोकसभा सीट पर 41% मुस्लिम मतदाता और 20% दलित वोटर किसी भी प्रत्याशी को चुनावी मैदान में विजेता बनाने के लिहाज से काफी है।
अमरोहा लोकसभा सीट का 39% मुस्लिम मतदाता अगर 18% दलित आबादी के साथ जिस भी प्रत्याशी को वोट कर दे तो वो विजेता बन सकता है। लोकसभा चुनाव 2019 कुंवर दानिश अली इसी सीट से बसपा से सांसद बने थे। मेरठ लोकसभा सीट का भी कमोबेश यही हाल है। इस सीट पर 34% मुस्लिम मतदाता और 20% दलित वोटर चुनावी रण में सबसे प्रभावी समीकरण है। इसी वजह से बसपा प्रत्याशी हाजी याकूब कुरैशी 2019 के चुनाव में भाजपा प्रत्याशी से केवल 4,729 वोटों से हारे थे।
निष्कर्ष:
कुल मिला कर बात ये है की उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से कम से कम 15 सीटें ऐसी है जहां दलित मुस्लिम समीकरण चुनावी नतीजों को तब्दील करने की क्षमता रखता है। अगर लोकसभा चुनाव 2024 में चुनावी नतीजों को तब्दील करने की इच्छा है तो यही वो कड़वा सत्य है जिसको आपको स्वीकार करना होगा।
(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक अंसार इमरान एसआर सोशल एक्टिविस्ट एवं रिसर्चर हैं)