अरबी का एक मुहावरा है ‘अल-अवामु-कल-अनआम’ यानी जनता चौपायों की तरह होती है। चरवाहा जिधर चाहता है उसे हँका ले जाता है। इसीलिये हम ज़्यादातर ऐसे रहज़नों और लुटेरों से धोखा खाते रहे हैं जो रहबरों और रहनुमाओं के भेस में आते हैं, इसलिये जनता की समझ को इतना ज़रूर जाग्रत होना चाहिये कि वो अपने सच्चे शुभचिन्तकों को पहचान सके।
हम सियासी तौर पर ऐसे लोगों को अपना रहनुमा तस्लीम करते हैं, जिनकी ग़ुण्डागर्दी के क़िस्से आम लोगों की ज़बानों पर होते हैं। हम अपनी बिरादरी की लीडरशिप ऐसे लोगों के हाथों में दे देते हैं जो बाज़ुओं की ताक़त के साथ दौलतमन्द भी हों चाहे उनकी अख़लाक़ी हैसियत कुछ न हो। यहाँ तक कि हमारी मस्जिदों और मदरसों के ज़िम्मेदार वो लोग बना दिये जाते हैं जिनकी ख़ूबी इसके सिवा कुछ नहीं होती कि वो दबंग हैं और उनके सामने कोई शरीफ़ इन्सान बोल नहीं सकता। ये सूरतेहाल नव्वे प्रतिशत से भी ज़्यादा है।
उम्मते-मुस्लिमा का हाल इस वक़्त ये हो गया है कि न इसके रहनुमाओं के पास वो ख़ूबियाँ हैं जिनकी एक इन्क़िलाबी लीडरशिप को ज़रूरत है और न जनता को उन पैमानों की समझ है जिनकी रौशनी में अपने लीडर्स को पहचान सकें। जिसका नतीजा ये है कि
चलता हूँ थोड़ी दूर हर-इक राह-रौ के साथ।
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं ॥
हमारी इस ग़लती का नतीजा ये हुआ कि हमारे तमाम इदारे अपने मक़सद में लगभग नाकाम होकर करप्शन का शिकार हो गए। सियासत तो इतनी गन्दी हो गई कि कोई नेक और शरीफ़ इन्सान इसके नाम से भी घबराने लगा। नतीजे के तौर पर हम पतन की तरफ़ ही बढ़ते रहे और आज एक ऐसे गहरे कुँएं में गिर गए हैं जहाँ से निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता।
अब हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम जागें, अपने लीडर्स को लीडर तस्लीम करने से पहले उनके अन्दर कुछ ख़ूबियाँ देखें। ऐसे लोगों को ज़िम्मेदारियाँ सौंपें जो उसके अहल हों। ज़िम्मेदारों को जवाबदेह भी बनाएँ। मेरे इल्म की हद तक एक लीडर और रहनुमा में जो ख़ूबियाँ होनी चाहियें वो कुछ इस तरह हैं कि-
सबसे पहली ख़ूबी किसी भी लीडर में ये होनी चाहिये कि वो दूर तक देखने की सलाहियत रखता हो। उसका कोई टारगेट हो। उसका कोई नज़रिया और विज़न हो। जिस शख़्स की अपनी कोई समझ और अपना कोई टारगेट और नज़रिया नहीं होता उसके मिज़ाज और स्वभाव में ठहराव नहीं हो सकता। वह कभी तरक़्क़ी के रास्ते पर चल ही नहीं सकता, वो इमाम नहीं बन सकता, बल्कि ऐसे लोग पैरोकार और पीछे चलनेवाले हो सकते हैं।
इसी के साथ मुसलमानों को यह भी देखना है कि अगर वह मुसलमान है तो उसका नज़रिया इस्लाम की बुनियादी तालीमात से न टकराए। मेरे कहने का ये मतलब बिलकुल नहीं है कि वह सिर्फ़ एक ख़ुदा को माननेवाला और नमाज़ी ही हो, बल्कि वह इन्सानियत की बुनियादों पर बराबरी को भी मानता हो और रंग व नस्ल या इलाक़े की बुनियाद पर पक्षपाती सोच न रखता हो।
आम तौर पर सियासत में वीज़न की फ़िक्र न लीडर को है और न जनता को। जबकि किसी भी गरोह की तरक़्क़ी और पस्ती का दारोमदार उसके लीडर्स के वीज़न से सीधे जुड़ा हुआ है।
दूसरी ख़ूबी जिसको मैं ज़रूरी समझता हूँ वह यह है कि उसे अख़लाक़ के ऊँचे से ऊँचे मक़ाम पर होना चाहिये। उसके यहाँ दुश्मनी के भी कुछ उसूल होने चाहियें। आज-कल ख़ुदग़र्ज़ी, मौक़ापरस्ती, धोखाधड़ी, दोग़लापन और चापलूसी को ही सियासत का नाम दे दिया गया है। उसी को हम लीडर समझते हैं जो इन ऐबों और कमज़ोरियों में निपुण हो। ख़ुद लीडर भी इसी को लीडरी समझता है। लेकिन ये ऐब और कमज़ोरियाँ इन्सान को पस्ती की तरफ़ ले जाते हैं।
क्या वह इन्सानी गरोह कभी महानता और ऊँचाई को पहुँच सकता है जिसकी लीडरशिप ऐसे लोगों के हाथों में हो? क्या सच्चाई, अमानतदारी और वादे की पाबन्दी के मुक़ाबले ये ऐब कहीं ठहर सकते हैं? इख़लास और सच्चाई के मुक़ाबले मफ़ादपरस्ती कभी भी प्यारी नहीं रही। किसी ज़माने में भी तल्ख़ी और कड़ुवी बोली को ज़बान की मिठास और नरमी पर प्राथमिकता नहीं मिली है। ज़्यादातर बुराइयाँ और अच्छाइयाँ यूनिवर्सल हैसियत रखती हैं। इनका मज़हब से नहीं बल्कि फ़ितरत से ताल्लुक़ है। इसलिये आम इन्सान की नज़र में ख़ूबियों की क़द्र की गई है और ऐबों व कमियों को नापसन्द किया गया है।
एक लीडर को बड़े दिल का मालिक होना चाहिये। उसे अपने दिल में कीना-कपट, हसद और जलन को जगह ही नहीं देनी चाहिये, उसके स्वभाव में माफ़ी और ग़लतियों को अनदेखा करना ही होना चाहिये। बदले की आग ख़ुद उसकी अपनी ज़ात के लिये भी नुक़सान देनेवाली है और उसके मिशन के लिये भी। अपने मातहत लोगों की हौसला-अफ़ज़ाई और दिलजोई तभी की जा सकती है जबकि आपका दिल बहुत बड़ा हो। दिल को बड़ा किये बग़ैर कोई शख़्स अपने मातहतों के दिल में जगह नहीं बना सकता। अपने कारकुनों के लिये सच्ची हमदर्दी, उनकी तकलीफ़ का एहसास, उनके लिये ख़ैरख़ाही का जज़्बा हो तभी जाकर एक ऐसा कारवाँ बनता है जो पहाड़ों से टकरा जाता है।
तीसरी ख़ूबी जिसकी ज़रूरत एक रहनुमा को होती है वो उसकी उसूलपसन्दी है। वो जिस मिशन को लेकर उठा है, उसने अपना जो टारगेट तय किया है, उसको हासिल करने के लिये उसने जो उसूल बनाए हैं, जो ज़ाब्ते तय किये हैं उनकी पाबन्दी करना ही उसूलपसन्दी है। आम तौर से अपने रिश्तेदारों को ज़्यादा अहमियत देने और उनको नवाज़ते रहने से उसूल-पसन्दी चूर-चूर हो जाती है। अपनों की तरफ़दारी और उनको नवाज़ते रहना एक दीमक की तरह है जो धीरे-धीरे पूरी बिल्डिंग को खा जाती है।
इस वक़्त देश की ज़्यादातर सियासी, मिल्ली यहाँ तक कि बहुत-सी दीनी व मज़हबी जमाअतें इसका शिकार होकर अपने वुजूद की आख़िरी जंग लड़ रही हैं। अपने-अपनों को अहमियत देना एक लीडर को उसके मक़सद से ग़ाफ़िल कर देता है। उसके इख़्तियारात और अधिकारों को सीमित कर देता है, क्योंकि डिसिप्लिन तोड़ने के जुर्म में अपनों के गले पर छुरी चलाना मुश्किल हो जाता है।
आख़िरी बात ये है कि लीडर के अन्दर फ़ैसला लेने की सलाहियत के साथ-साथ उसको लागू करने की ताक़त भी होनी चाहिये। उसे फैसला लेने से पहले सोच-विचार या मशवरे के अमल से गुज़रने में जो वक़्त चाहिये हो वो लगाना चाहिये, लेकिन जब एक बार फ़ैसला ले लिया जाए तो उसे लागू भी होना चाहिये। जो लीडरशिप अपने फ़ैसलों को लागू करने में कमज़ोर होती है उसकी हुकूमत घर और दफ़्तर तक सीमित हो जाती है। ज़्यादातर लीडर आज इसी बेचैनी की हालत से गुज़र रहे हैं, लेकिन इसके लिये जो चीज़ सबसे ज़्यादा ज़रूरी है वो कथनी और करनी में बराबरी का होना है, जो लीडर अपने कहे पर ख़ुद अमल नहीं करते वो दूसरों से पाबन्दी कराने का हक़ खो देते हैं।
मुसलमानों को चाहिये कि वे इन बातों को सामने रखते हुए अपने लीडर्स के बारे में सोच-विचार करें। यह सोच-विचार बग़ैर किसी लाग-लपेट के होना चाहिये और जिस शख़्स के अन्दर उसे ये ख़ूबियाँ नज़र आएँ उसकी लीडरशिप में काम करना चाहिये।
अगर हम चाहते हैं कि हमारा भविष्य बेहतर हो और हमारी आनेवाली नस्लें हमें ताना देने के बजाय दुआएँ दें तो हमें ज़ाती फ़ायदों, रंग व नस्ल, इलाक़ा और मसलक से ऊपर उठकर एक ऐसे शख़्स के हाथ पर बैअत कर लेनी चाहिये जिसके हर अमल और हर लफ़्ज़ से वफ़ा की ख़ुशबू आती है।
निगह बुलन्द, सुख़न दिल-नवाज़, जाँ-पुरसोज़।
यही है रख़्ते-सफ़र मीरे-कारवाँ के लिये॥
(यह लेखक के अपने विचार है लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष है)