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सम्पादकीय

सांप्रदायिकता बनाम डेवलपमेंट की लड़ाई में सांप्रदायिकता ही जीतेगी

सांप्रदायिक तौर पर तैयार वोटर को पेट्रोल, डीज़ल, टमाटर से रिझाया नहीं जा सकता। बहुसंख्यक समाज ‘हिंदू-हिंदू’ रोग से पीड़ित है, उस बुख़ार को उतारकर ही उसे बाक़ी चीजों पर सहमत कराया जा सकता है। भाजपा का वोटर महज़ वोटर नहीं है, वो कार्यकर्ता-वोटर है। जो धर्मांध हुआ बाइक से गाँव गाँव घूमता है, WhatsApp, Facebook से लेकर निजी जीवन में हिंदू चरमपंथ का प्रचार करता है। ऐसा मेंटली नियंत्रित कार्यकर्ता ‘आलू-प्याज़’ की क़ीमतों से आकर्षित नहीं हो सकता।

अतीत की सरकारों में भी जनता ने कथित ‘विकास’ को कभी चखा नहीं, उसके लिए विकास का स्वर्णिम काल कभी रहा ही नहीं। इसलिए अतीत में सरकार बनाने वाली आज की विपक्षी पार्टियाँ उसे आकर्षित नहीं करतीं। कोई नई पार्टी रोज़गार, अस्पताल, शिक्षा के लिए आकर्षित कर सकती है लेकिन पुरानी नहीं।

बहुसंख्यक हिंदुओं के मन में “मुसलमान” को “कॉमन-दुश्मन” की तरह फ़िट किया गया है , हर रोज़ मुस्लिमों के ख़िलाफ़ कंटेंट ठूँसा जा रहा है, ताकि उसे लगे कि मुसलमान आ जाएँगे। तब उससे कोई कहे कि सिलेंडर की क़ीमतें हज़ार पार कर गईं, उसे फ़र्क़ नहीं पड़ता। नहीं पड़ता… नहीं पड़ता

आज की विपक्षी पार्टियों के शासन काल में भी बहुसंख्यक जनता का जीवन महंगाई, बेरोज़गारी और ख़राब क़ानून व्यवस्था में ही कटा है। इसलिए पुरानी विपक्षी पार्टियाँ जब उसे महंगाई, बेरोज़गारी की बात कहती हैं तो उनकी बात में उसे नैतिक वजन नहीं लगता। बल्कि वो और भाजपा को वोट करता है।

जब भी भाजपा के विरुध्द कोई बात जाती है जनता के पास तुरंत एक तैयार कुतर्क पहुँच जाता है। उसे तैयार ग्राफ़िक्स मिलते हैं जिसमें विपक्षी नेताओं से ही सवाल हों। कार्टून से लेकर WhatsApp पोस्ट काउंटर में तैयार मिलती हैं। ऐसे IT सेल और टीवी मीडिया दोनों भाजपा को बचा ले जाती हैं।

टीवी मीडिया और WhatsApp हर रोज़ मतदाताओं को RSS के एजेंडे पर Educate करते हैं। हर रोज़ भाजपा के मतदाताओं की पढ़ाई की जाती है। बेडरूम में घुसा टीवी का एंकर, मोबाइल में घुसा WhatsApp हिंदू जनता के अदृश्य शिक्षक हैं। विपक्ष की 1 बात पहुँचती है, भाजपा की तब तक 50 पहुँच जाती हैं।

सांप्रदायिक रूप से तैयार इस भीड़ को हर रोज़ सुबह चाय में, दोपहर के खाने में, रात में सोने से पहले “मुसलमान, पाकिस्तान और अति देशभक्ति” की घुट्टी पिलाई जाती है। भारत की अधिसंख्य जनता स्थायी तौर पर इस बीमारी की जद में है। कम्यूनल रूप से बीमार आदमी को सिलेंडर आकर्षित नहीं कर सकता

इसलिए विपक्ष के खूब ज़ोर लगाने पर तस्वीरें कुछ बदलती ज़रूर हैं लेकिन अंत में पेंटिंग “सांप्रदायिक हीरोज़” की ही उभरकर आती है। विपक्ष कमजोर नहीं है, विपक्ष के नेता कमजोर नहीं हैं, बल्कि पक्ष शातिर है, RSS के पास बृहद मानवीय और कुवैचारिक संसाधन है। आपकी मेरी कल्पनाओं से परे।

विपक्ष को जितना चाहे दोष दे लीजिए, इस एजेंडे को पूर्णतः परास्त करना उसके बस में नहीं है। सामान्य संसाधनों से लड़ने वाले किसी भी दल में उतना बल नहीं है। भारत इस समय सामूहिक चेतना के स्तर पर बीमार बनाया जा चुका है, जो धीरे-धीरे ही सही होगा, एकाध चुनाव ने नहीं।

बहुसंख्यक समाज इस समय भाजपा की चमत्कारिक लीडरशिप, साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों, मुसलमानों के प्रति नफ़रत और डर के ऊपर देशभक्ति की चासनी से ग्रसित है। उसे दोबारा से अपने विश्वास में लाने के लिए मजबूत और दमदार नई लीडरशिप ही कुछ काम कर सकती है।

जो लोग भाजपा से जुड़ चुके हैं उन्हें छुटाने में साल लगेंगे, लेकिन जो कार्यकर्ता बन चुके हैं उन्हें छुटाने में दशकों लगेंगे। इसलिए मौजूदा वक्त हार-जीत से आगे जा चुका है। सरकार तब ही बदलेगी जब जनता बदलेगी, जनता तब बदलेगी जब उसके कम्यूनल बुख़ार को उतारने पर लंबा काम होगा।

सांप्रदायिकता का मुक़ाबला लॉंग-टर्म में सिर्फ़ ये कुछेक चीजें कर सकतीं हैं
-हर सांप्रदायिकता का विरोध
-नैतिक बल रखने वाले नेता
-नई पार्टियाँ जो विकास को मुद्दा बना सकें
-सूचनाओं का नया तंत्र- मीडिया-सोशल मीडिया
-नई लीडरशिप के नेतृत्व में जन-सत्याग्रह
-सामूहिक चेतना का विकास

अगले कुछ साल सांप्रदायिकता का कोई मुक़ाबला नहीं हैं, इसलिए जीत की उम्मीद बंद कर दें। कोई भी तकनीक उसे नहीं हरा सकती। ना कोई आंदोलन। कम्यूनल एजेंडे का जवाब दिए बिना कम्यूनल पॉवर को नहीं हराया जा सकता। कम्यूनल एजेंडे से लड़ाई में अगले और कुछ साल हारेंगे, लेकिन आगे जीत मिलेगी।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक श्याम मीरा सिंह पत्रकार हैं)

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