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शक्ति विहीन आयोग: पाकिस्तान का नया अल्पसंख्यक अधिकार सुधार क्यों नाकाफी साबित हुआ

3 दिसंबर 2025 को पाकिस्तान की संसद की संयुक्त बैठक ने नेशनल कमीशन फॉर माइनॉरिटीज़ राइट्स बिल पारित कर दिया। पहली नज़र में यह सुधार की दिशा में एक कदम लगता है, लेकिन असल में यह फिर वही कहानी है राज्य बदलाव का संदेश देता है, पर असली कानूनी और वैचारिक ढांचे में कोई बड़ा परिवर्तन होने नहीं देता।

160 मतों के समर्थन और 79 के विरोध के साथ पास हुआ यह बिल, अपने दो सबसे महत्वपूर्ण प्रावधानों स्व-प्रेरित कार्रवाई (Suo Motu Power) और ओवरराइडिंग इफेक्ट क्लॉज़ से खाली कर दिया गया। इनको हटाने के बाद नया आयोग मुख्यतः औपचारिक और प्रतीकात्मक संस्था बनकर रह गया।

कानून मंत्री आज़म नज़ीर तारार ने इसे अल्पसंख्यकों की आवाज़ को संस्थागत रूप देने वाला कदम बताया, लेकिन बिल के पारित होने से पहले हुए राजनीतिक सौदेबाज़ी ने यह सुनिश्चित कर दिया कि यह आयोग पाकिस्तान में दशकों से मौजूद इस्लामीकरण के ढांचे को चुनौती न दे सका। इस तरह नया आयोग भी उसी व्यवस्था में प्रवेश करेगा जहाँ असमानताएँ गहराई पहले से हैं, भीड़ हिंसा (मॉब लिन्च) अक्सर दोहराई जाती है, और नागरिकता तथा अधिकार अब भी बहुसंख्यक नज़रिये से परिभाषित किए जाते हैं।

पाकिस्तान में अल्पसंख्यक अधिकार: लगातार सिकुड़ता हुआ दायरा

आजादी के बाद से ही पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों में लगातार गिरावट आई है। 1951 की जनगणना (जिसमें ईस्ट पाकिस्तान भी शामिल था) में अल्पसंख्यकों की आबादी करीब 23% थी। आज यह घटकर सिर्फ 3–4% रह गई है।

वर्तमान स्थिति मे हिन्दू और ईसाई – प्रत्येक लगभग 2% से थोड़ा कम, सिख, पारसी, बहाई, कालाश नगण्य प्रतिशत। यह गिरावट अचानक नहीं आई यह दशकों की असुरक्षा, भेदभावपूर्ण कानूनों, और सामाजिक हिंसा का नतीजा है, जिसके कारण विशेष रूप से हिन्दू और ईसाई समुदायों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ।

ब्लास्फेमी केस और हिंसा: कठोर हकीकत

सेंटर फॉर सोशल जस्टिस (CSJ) के अनुसार, 1987 से 2024 के बीच 2,793 लोग ब्लास्फेमी के आरोपों में घसीटे गए, सिर्फ 2024 में ही 344 नए केस दर्ज हुए, इनमें शामिल 70% मुस्लिम, 14% अह्मदी, 9% हिन्दू, 6% ईसाई, ब्लास्फेमी से जुड़े मामलों में कैदियों की संख्या भी बढ़ी, 2023 के अंत तक – 705 लोग जेल में 2024 के मध्य तक – 767 लोग। पाकिस्तान मे ज़बरन धर्मांतरण भी एक और बड़ी समस्या है 2021–2024 के बीच 421 मामले दर्ज हुए

आर्थिक और सामाजिक हाशिये पर धकेलना

कानून के अनुसार केंद्र सरकार की नौकरियों में 5% कोटा गैर-मुस्लिमों के लिए है, लेकिन वास्तविकता में यह मुश्किल से 2% तक पहुँचता है। शिक्षा के क्षेत्र में असमानता और गहरी है, ग्रामीण सिंध की हिन्दू महिलाओं की साक्षरता – 28%, राष्ट्रीय औसत – 48%, ईंट-भट्ठों में बंधुआ मजदूरी विशेष रूप से हिन्दू और ईसाई समुदायों को जकड़े हुए है।

नए आयोग की संरचना और उसकी सीमाएँ

आयोग में होंगे, हिन्दू (एक सीट अनुसूचित जाति के लिए), ईसाई, पारसी, सिख, बहाई, मुस्लिम मानवाधिकार विशेषज्ञ, प्रांतीय प्रतिनिधि यानि कुल सदस्य: 16–18 सदस्यों का चयन संसदीय समिति करेगी; यदि सहमति न बने तो प्रधानमंत्री अध्यक्ष नियुक्त कर सकेंगे, लेकिन आयोग के पास न जांच का अधिकार है, न स्व-प्रेरित कार्रवाई का, न ही किसी एजेंसी को सिफारिशें लागू करने के लिए बाध्य कर सकता है, न ब्लास्फेमी कानून को छू सकता है इसलिए इसकी स्वतंत्रता और प्रभाव बहुत सीमित हैं।

राजनीतिक और धार्मिक दबाव
कानून मंत्री ने संसद में धार्मिक दलों को आश्वस्त किया कि यह बिल अहमदियों से जुड़े किसी भी मौजूदा कानून को प्रभावित नहीं करेगा, न ही सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को, इससे आयोग मूल रूप से उन अल्पसंख्यकों तक सीमित रह जाता है जो अपने “संवैधानिक गैर-मुस्लिम” दर्जे को स्वीकार करते हैं। धार्मिक पार्टियों विशेष रूप से JUI-F और PTI से जुड़े उलेमा गुटों ने इस कमजोर बिल का भी विरोध किया। उन्होंने किसी भी मजबूत अधिकार वाले प्रावधान को “इस्लामी ढांचे के खिलाफ” बताया।

आयोग की वास्तविक उपयोगिता कितनी?

आयोग, घटनाओं का रिकॉर्ड रख सकता है, रिपोर्टें जारी कर सकता है, अंतरराष्ट्रीय मंचों से संवाद कर सकता है लेकिन वह जांच नहीं कर सकता, कार्रवाई नहीं कर सकता, पुलिस या प्रशासन को मजबूर नहीं कर सकता। इतिहास बताता है कि पाकिस्तान की संस्थाएं जिनके पास इससे कहीं अधिक शक्तियाँ थीं भी धार्मिक दबाव के मामलों में असफल रही हैं।

( लेखक अजीत कुमार सिंह इंस्टीट्यूट फॉर कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट में वरिष्ठ फेलो हैं)

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