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भारत

भारत में सूफी संत और हमारे समाज का दक्षिणपंथी समूह

आज हमारे समाज में दो प्रकार के दक्षिणपंथी समूह दिखाई देते हैं: एक जो बाहरी है और हमारी दरगाहों, सूफी संतों, और बुज़ुर्गों को निशाना बनाता है; और दूसरा जो हमारे समाज के भीतर पनप रहा है, जो अपनी कट्टरता में वहाबी विचारधारा से प्रेरित है और बाहरी दक्षिणपंथियों की तरह ही खतरनाक है। यह आंतरिक समूह, जो हमारे अपने समाज का हिस्सा है, दरगाहों और सूफी परंपराओं का विरोध करता है और इन्हें इस्लाम से बाहर बताने की कोशिश करता है।

दरगाहों पर बढ़ते हमले और उनका प्रभाव

बाहरी दक्षिणपंथी समूह अक्सर हमारी दरगाहों को निशाना बनाते हैं, उनकी पवित्रता का अपमान करते हैं और इन्हें मिटाने का प्रयास करते हैं। इन समूहों का उद्देश्य धार्मिक स्थलों को नष्ट करके समाज में सांप्रदायिकता और असहिष्णुता फैलाना है। हमारे अपने समाज के भीतर पनप रहे वहाबी विचारधारा से प्रेरित आंतरिक दक्षिणपंथी समूह भी इन हमलों का समर्थन करता है और इसे धर्म के नाम पर सही ठहराने की कोशिश करता है, यह कहते हुए कि ‘दरगाहें हमारे मज़हब का हिस्सा नहीं हैं, इन्हें खत्म कर देना चाहिए।’

वहाबी कट्टरवाद का उदय और उसकी भूमिका

वहाबी विचारधारा ने हमारे समाज के भीतर एक खतरनाक दक्षिणपंथी समूह को जन्म दिया है, जो सूफी परंपराओं, दरगाहों, और बुज़ुर्गाने दीन के खिलाफ है। यह समूह दरगाहों को इस्लाम के सिद्धांतों से बाहर मानता है और इन्हें खत्म करने की कोशिश करता है। वहाबी कट्टरवाद हमारे समाज की धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट करने का प्रयास कर रहा है।

दरगाहों और सूफी संतों का महत्व

दरगाहें और सूफी संत हमारे समाज में शांति और सद्भाव बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दरगाहों का महत्व केवल इस्लामी परंपरा में नहीं, बल्कि भारतीय समाज में भी है, जहां विभिन्न धर्मों के लोग दरगाहों का सम्मान करते हैं और वहां से फायदा हासिल करते हैं। यह साझा सांस्कृतिक धरोहर हमारे समाज को कट्टरता से बचाती है और भाईचारे को मजबूत करती है।

वहाबी विचारधारा और आंतरिक दक्षिणपंथी समूह की खतरनाक सोच

हमारे समाज के भीतर पनपने वाला वहाबी विचारधारा से प्रेरित दक्षिणपंथी समूह, दरगाहों के खिलाफ नफरत फैलाता है और सूफी संतों को इस्लाम से बाहर बताने की कोशिश करता है। वे इस्लाम की एक संकीर्ण व्याख्या के तहत सूफी परंपराओं और बुज़ुर्गों का अपमान करते हैं, जबकि ये बुज़ुर्ग इस्लाम के प्रचार और मोहब्बत के प्रतीक हैं। यह समूह भूल जाता है कि इन बुज़ुर्गों ने अपनी पूरी जिंदगी इस्लाम के संदेश को फैलाने और अमन-शांति की स्थापना में गुजारी है।

इतिहास की अनदेखी: नफ़रत की जड़ें कहाँ से आईं?

यह सोचने की बात है कि यह नफ़रत क्यों और कहाँ से आई? ये विचारधारा उन बुज़ुर्गों के खिलाफ क्यों है, जिन्होंने हमारे पूर्वजों को इस्लाम का कलमा पढ़ाया और जिनकी वजह से हम आज मुसलमान कहलाते हैं? यदि आज हम दरगाहों पर हमलों का समर्थन करते हैं, तो कल यही विचारधारा हमारे मस्जिदों और घरों को भी निशाना बनाएगी।

वहाबी विचारधारा के खतरनाक परिणाम

वहाबी विचारधारा न केवल दरगाहों और सूफी परंपराओं का विरोध करती है, बल्कि समाज में कट्टरता और असहिष्णुता को भी बढ़ावा देती है। यह विचारधारा नफरत और विभाजन को बढ़ावा देती है, जिससे समाज में धार्मिक सद्भाव और एकता कमजोर होती है।

आला हज़रत की सीख: एक प्रेरणा

इमामे अहले सुन्नत आला हज़रत फ़ाज़िले बरेलवी की एक शायरी हमें याद रखनी चाहिए:

और तुम पर मेरे आक़ा की इनायत न सही
नज्दियो! कल्मा पढ़ाने का भी एह़सान गया
आज ले उनकी पनाह आज मदद मांग उनसे
फिर न मानेंगे क़ियामत में अगर मान गया

निष्कर्ष

हमें यह समझना होगा कि हमारे बुज़ुर्गों का सम्मान और उनकी शिक्षाओं का पालन हमारे समाज के लिए कितना महत्वपूर्ण है। वे न केवल हमारे धार्मिक मार्गदर्शक हैं, बल्कि हमारे समाज के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को भी मजबूत बनाते हैं। हमें इनकी विरासत को संजो कर रखना चाहिए और किसी भी प्रकार की कट्टरता का विरोध करना चाहिए, चाहे वह बाहरी हो या आंतरिक। वहाबी कट्टरवाद और दक्षिणपंथी समूहों के प्रभाव से हमारे समाज को बचाना हमारी जिम्मेदारी है। हमें अपने धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करना होगा।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक साहिल रज़वी पत्रकार एवं लल्लनपोस्ट के को-फाउंडर है )

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