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घरवालों ने स्कूल प्रशासन से पूछा स्कूल बदलें या यूनिफॉर्म प्रशासन ने कहा लड़की पढ़ने में बहुत अच्छी है,कोई दिक़्क़त नहीं सलवार-कुर्ता पहनकर आए

मैंने इंग्लिश मीडियम को-एड पब्लिक स्कूल में पढ़ाई की, ग्रेजुएशन आयुर्वेद कॉलेज से, जहाँ बैच में अकेली मुस्लिम लड़की थी, रूममेट्स ब्राह्मण, जैन, ठाकुर, महाराष्ट्रीयन रहीं, हॉस्टल और जब रूम लिया तब भी अकेली मुस्लिम थी, कभी किसी को मुझसे या मुझे किसी से प्रॉब्लम नहीं हुई।

स्कूल में 10th तक ट्यूनिक स्कर्ट्स थे, 11वीं से सलवार-कुर्ता। 3rd के बाद घरवालों ने स्कूल प्रशासन से बात की, स्कूल बदलें या यूनिफॉर्म। स्कूल ने यही कहा लड़की पढ़ने में बहुत अच्छी है,कोई दिक़्क़त नहीं सलवार-कुर्ता यूनिफॉर्म वाला पहनकर आए। स्कूल बदलने की नौबत नहीं आई।

आज का माहौल देखो तो यक़ीन नहीं होता, वह समय भी था जब छोटे शहर के धार्मिक पेरेंट्स अकेली लड़की को 250 किमी दूर अनजान शहर में उस कॉलेज में पढ़ने भेजते,जहाँ ब्राह्मण वर्चस्व है और दिन की शुरुआत धन्वन्तरि पूजन से होती है और उससे बड़ी बात,मैंने यूनिवर्सिटी टॉप किया, धर्म की वजह से बहस-विवाद होते थे कभी लेकिन कभी बुलिंग, टारगेट या हरासमेंट नहीं हुआ इस वजह से।

हॉस्टल मेस में पूरे सावन सोमवार साबूदाना खिचड़ी बनती, पूछने पर भी मैंने मना कर दिया था अलग से कुछ बनाने, वही खाती, वह भी एक टाइम। मुझे नहीं लगा मैं कोई एडजस्टमेंट कर रही हूँ, कंप्रोमाइज़ कर रही हूँ। सब फ्रेंड्स के साथ इट वाज़ फन। रूम पर कभी नॉनवेज नहीं बनाया, न लाई, बाहर का मैं खाती नहीं थी। दोस्त मज़ाक में बोलती भी थी फ़र्ज़ी मुस्लिम है मीट के बिन कैसे रह लेती है इतने दिन मैं भी कह देती बेयर ग्रिल्स से सर्वाइवल हैक्स सीखे हैं घासफूस पर ज़िंदा रहने के।

मेरी एक सीनियर रूममेट मॉडल थीं, एक्टिंग भी करती थीं रीजनल मूवीज़, सीरियल्स में। उनकी बर्थडे पार्टी में मैंने बुर्क़े में अटेंड की, किसी को समस्या नहीं थी, सब “ऐ शेख़, अपनी-अपनी देख” पर विश्वास रखते थे। कोई किसी को पिन-पॉइंट नहीं करता था, न आउटकास्ट फ़ील कराता था। विद्वेष, वैमनस्य, धर्म, सैलरी, उम्र सब नितांत निजी हुआ करते थे। इन सब में समय और ऊर्जा नहीं ख़र्च होती थी।

आज उन्हीं दोस्तों, शिक्षकों के पोस्ट्स/ट्वीट्स देखकर विश्वास नहीं होता कि ये वही लोग हैं। लेकिन ख़ुशी है कि कुछ साथी अभी भी उतने ही प्यारे और सपोर्टिव हैं। इस टॉपिक पर कुछ लिखना चाहती नहीं थी, लेकिन जिस तरह सत्ता ने स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल रखा है, यह ज़रूरी हो जाता है उन लोगों का शुक्रिया कहना, जो आज भी उतने ही प्यारे हैं, मुखर हैं और पहले से अधिक दृढ़ और मज़बूती से साथ खड़े हैं। बस यही लोग उम्मीद हैं।

लड़कियों को पढ़ लेने दो प्लीज़,जैसे भी हो। पहले ही कम अड़ंगे नहीं हैं। पढ़ लेंगी, साइंटिफिक टेम्परामेंट डेवलप कर लेंगी फिर सप्रेशन, ऑप्रेशन, स्लेवरी, कंडीशनिंग, पेट्रिआर्की सब ख़ुद निपट-सुलझ लेंगी बग़ैर किसी के चौधरी बने.

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक नाजिया खान राइटर हैं)

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