वर्तमान परिस्थिति पर आपसी संवाद के शीर्षक से शनिवार को एक महत्वपूर्ण संगोष्ठी जमीअत उलेमा हिन्द, नई दिल्ली के प्रधान कार्यालय के मदनी हॉल में आयोजित की गई, जिसमें समाज के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी हस्तियों, अर्थशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, विचारकों और प्रोफेसरों ने भाग लिया। संगोष्ठी में देश के सामने मौजूद साम्प्रदायिकता की चुनौती, सामाजिक ताने-बाने के बिखराव और इसके रोकथाम के विभिन्न पहलुओं की समीक्षा की गई और जमीनी स्तर पर काम करने और संवाद की आवश्यकता पर सहमति व्यक्त की गई।
सभी बुद्धिजीवियों ने माना कि साम्प्रदायिकता इस देश के स्वभाव से मेल नहीं खाती और न ही मातृभूमि के अधिकांश लोग ऐसी सोच के पक्षधर हैं, लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जो लोग सकारात्मक सोच के समर्थक हैं, उन्होंने या तो खामोशी की चादर ओढ़ ली है या उनकी बात समाज के अंतिम भाग तक नहीं पहुंच पा रही है, जिसकी वजह से जो लोग देश के सामाजिक ढांचे को बदल देना चाहते हैं या नफरत की दीवार खड़ी करके अपनी राष्ट्रविरोधी विचारधारा को सफल बनाना चाहते हैं, वह जाहिरी तौर पर हावी होते नजर आ रहे हैं। हालांकि यह वास्तविकता नहीं है। इसलिए समाज के बहुसंख्यक वर्ग को मौन रहने के बजाय कर्मक्षेत्र में आना होगा और भारत की महानता एवं उसके स्वाभाविक अस्तित्व को बचाने के लिए एकजुट एवं सर्वसम्मत लड़ाई लड़नी होगी।
अपने उद्घाटन भाषण में जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष और कार्यक्रम के सूत्रधार मौलाना महमूद असद मदनी ने बुद्धिजीवियों का स्वागत करते हुए सवाल किया कि ऐसी स्थिति में जब देश के एक बड़े अल्पसंख्यक वर्ग को उसके धर्म और आस्था की वजह से निराश करने या अलग-थलग करने की कोशिश की जा रही है, हमें इसके समाधान के लिए क्या आवश्यक कदम उठाने चाहिएं? मौलाना मदनी ने कहा कि जमीअत उलमा-ए-हिंद के बुजुर्गों ने गत सौ वर्षों से आधिकारिक तौर पर और दो वर्षों से अनौपचारिक रूप से देश को एकजुट करने की कोशिश की और देश की महानता को अपनी जान से ज्यादा प्रिय बनाया। जब देश के विभाजन की नींव रखी गई तो हमारे पूर्वजों ने अपनों से मुकाबला किया। देश के लिए अपमान सहा और आजादी के बाद राष्ट्रीय एकता के लिए अपने बलिदानों की अमिट छाप छोड़ी और तमाम कठिनाइयों के बावजूद हम आज तक अपनी डगर से हटे नहीं हैं।
वर्तमान स्थिति में भी हम संवाद के पक्ष में हैं, हमारी राय है कि सबके साथ संवाद होना चाहिए और एक ऐसा संयुक्त अभियान चलना चाहिए कि देश का हर धागा एक-दूसरे से जुड़ जाए।
सुप्रसिद्ध सामाजिक विचारक विजय प्रताप ने अपने विचार व्यक्त करते हुए आपसी संवाद पर जोर देते हुए कहा कि जमीअत उलमा-ए-हिंद ने जो बलिदान दिए हैं, वह व्यर्थ नहीं गए। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि भारत के विभाजन के अत्यंत साम्प्रदायिक वातावरण के बावजूद देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष आधार पर बनाया गया। इस्लामिक शिक्षाओं और विचारों का जो विकास भारत में हुआ, बड़े-बड़े इस्लामी विचारक यहां जन्मे, जिनके उल्लेख के बिना वैश्विक स्तर पर इस्लाम का जिक्र अधूरा और अपूर्ण है। इसके अलावा देश के विकास के जितने विषय हैं, उनमें मुसलमानों की देश के अन्य लोगों की तरह बड़ी भूमिका है। इसलिए हमें वर्तमान परिस्थितियों से निराश होने की जरूरत नहीं है, हर समुदाय के साथ ऐसी स्थितियां होती हैं और जो समुदाय जागरूकता का परिचय देता है, वह हालात से निपटने में सक्षम होता है।
अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार ने कहा कि देश में आर्थिक असमानता के कारण दक्षिणपंथी तत्वों को अपने विचारों को बढ़ावा देने का मौका मिल जाता है। उन्होंने कहा कि सरकार ने जो दावा किया है कि 13 करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा से ऊपर उठ गए हैं, यह पूरी तरह से निराधार है। असंगठित क्षेत्र के 94 प्रतिशत से अधिक लोग दस हजार से कम मासिक वेतन पाते हैं, जो गरीबी रेखा से कभी नहीं उबर सकते।
सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील संजय हेगड़े ने कहा कि हम एक अजीब दौर में हैं, आज लोग संविधान को बदलने की बात कर रहे हैं, इसलिए जरूरी है कि संविधान की रक्षा की जाए और यह तभी संभव है जब हम संविधान को सही अर्थों में लागू करें और संविधान को समाप्त करने वालों को यह संदेश दें।
दूसरे सत्र में स्थिति के समाधान पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रो. डॉ. सौरभ बाजपेयी ने कहा कि मुझे इतिहास के अध्ययन के दौरान जिन संस्थानों पर गर्व महसूस हुआ, उनमें से एक जमिअत उलमा-ए-हिंद भी है। इस संस्था के नेता हजरत मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने पाकिस्तान बनने का विरोध किया। उनके साथ इस देश के अधिकांश मुसलमान थे। यह बात सत्य से परे है कि 90 प्रतिशन मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को वोट दिया। वह आम मुसलमाना नहीं थे, बल्कि सामंत मुसलमान थे, जिनको ही वोट देने का अधिकार था। दिल्ली की जामा मस्जिद के पास पाकिस्तान समर्थकों और विरोधियों की एक सभा हुई। समर्थन करने वालों की सभा में केवल पांच सौ लोग थे और जो विरोधी थे, जिनका नेतृत्व जमीअत उलमा कर रही थी, उनकी सभा में दस हजार की भीड़ थी।
उन्होंने कहा कि जो कौम अपना इतिहास भुला देती है, वह खुद को मिटा देती है। भारत के अधिकांश मुसलमानों ने विभाजन का विरोध किया था, यह एक इतिहास है। एक तरफ केवल मुस्लिम लीग थी तो दूसरी तरफ जमीअत उलमा के साथ 19 मुस्लिम संगठन थे। इसलिए देश पर मुसलमानों का अधिकार उतना ही है जितना किसी और का। उन्होंने कहा कि आपसी संवाद तभी सफल होगा जब दोनों पक्ष अपनी विचारधारा और सोचने का तरीका सही कर लें।
सुप्रसिद्ध लेखिका रजनी बख्शी ने मौजूदा हालात में गांधीवादी अहिंसा आंदोलन की वकालत की और कहा कि अहिंसा का मतलब अत्याचार के खिलाफ चुप रहना नहीं है और न ही इसके लिए किसी को महात्मा बनने की जरूरत है, बल्कि हमें बुरे से बुरे लोगों में भी अच्छाई का भाव जागृत करना है और बुराई की वजह से किसी व्यक्ति से नफरत नहीं करनी है।
आईटीएम यूनिवर्सिटी ग्वालियर के संस्थापक चांसलर रमाशंकर सिंह ने कहा कि वर्तमान संघर्ष कोई साम्प्रदायिक नहीं बल्कि यह देश के अस्तित्व की लड़ाई है। हमें ऐसी स्थितियों से मुकाबला करने के लिए सभी वर्गों और संगठनों का महासंघ बनाना चाहिए। इस देश में साधु-संतों और सूफियों के साझा संदेश तैयार कर के नई पीढ़ियों तक पहुंचाएं और आजादी के नायकों और उनके बलिदान को हर वर्ग तक पहुंचाएं। हमारी लड़ाई जिस ताकत से है, वह बहुत संगठित है, उसका तंत्र सुबह की शाखा से शुरू होता है, वह नई पीढ़ियों के बीच पहुंचते हैं, उन्हें मानसिक रूप से प्रशिक्षित करते हैं और हमने जो खाली जगह छोड़ दी है, उसे वह अपने रंग से भरते हैं।
जाने-माने ईसाई नेता जॉन दयाल ने कहा कि आज संप्रदायिकता देश की व्यवस्था का हिस्सा बनती जा रही है, यहां अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होता है और फिर सजा भी उन्हें ही दी जाती है। देश के संविधान ने अल्पसंख्यकों के अधिकार तय कर दिए हैं, अगर यह अधिकार छीन लिए गए तो संवाद का क्या फायदा है?
सिख इंटरनेशनल फोरम के सदस्य सरदार दया सिंह ने कहा कि मुसलमान जो आज हालात का सामना कर रहे हैं, हमने पूर्व में भी ऐसे हालात देखे हैं, हम मुसलमानों के साथ खड़े हैं बल्कि हर प्रताड़ित व्यक्ति के साथ खड़े हैं।
अंत में जमीअत उलम-ए-हिंद के महासचिव मौलाना हकीमुद्दीन कासमी ने सभी अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन किया। ओवैस सुल्तान और मेहदी हसन ऐनी दवबंद ने मेहमानों का स्वागत किया और उनकी मेहमानदारी की। जमीअत उलमा-ए-हिंद के सचिव मौलाना नियाज़ अहमद फारूकी ने संगोष्ठी का संचालन किया। उन्होंने वर्तमान स्थिति पर बहुत प्रभावी प्रजेंटेशन दिया।
अपने विचार व्यक्त करने वाली अन्य हस्तियों में डॉ. इंदु प्रकाश सिंह, विजय महाजन, विजय महाजन, प्रो. रितु प्रिया जेएनयू, प्रो. एमएमजे वारसी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, डॉ. लेनिन रघुवंशी संस्थापक पीवीसीएचआर, कैलाश मीना आरटीआई कार्यकर्ता, भाई तेज सिंह, तबस्सुम फातिमा, मरीतोन जयसिंह शोधकर्ता, पुष्प राज देशपांडे, फादर निकोलस, जयंत जगियासोजी, अनुपम जी, अवी कठपालिया, हरीश मिश्रा बनारसवाले, डॉ. हीरालाल एमएलए, फादर निकोलस बराला, मोहनलाल पांडा, एडवोकेट सतीश टम्टा, फादर विजय कुमार नाइक, अभिषेक श्रीवास्तव विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।