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भारत

गाँधी को मारने का सीज़न आ गया, आओ आज गाँधी बुढ्ढे को फिर से क़त्ल करें: संदीप मनुधाने

एक आदमी ने जनवरी 1948 में भारत के महात्मा पर गोलियां चला कर इतिहास रचने का प्रयास किया। वो आदमी डरता था गाँधी से। लेकिन उसके हैंडलर्स उससे भी ज़्यादा ख़ौफ़ज़दा थे उस बूढ़े से, और इसीलिए हत्या की साज़िश में पूरी मदद की, और बाद में कन्नी काट ली जब फांसी का फंदा आया। तो सवाल ये है कि उस बूढ़े से इतना डर क्यों?

आगे बढ़ने से पहले एक सच जान लीजिये – भारत में 1920 से 1948 तक, हर 10 में से 8 लोग, मोहनदास गाँधी के पीछे चलते थे। हाँ, आपके दादा-दादी, नाना-नानी, परदादा-दादी, परनाना-नानी सब। तो आज जब आप यूथ महात्मा गाँधी को गाली देते हँसते हो, तो आप अपने पूर्वजों को वो गालियां दे रहे होते हो। अगली बार मज़ाक बनाते हुए ध्यान रखना। खैर, आगे पढ़ो।

पूरा हिन्दू महासभा गुट और पूरा आर.एस.एस. गुट मोहनदास गाँधी से ख़ौफ़ज़दा रहता था, और आज भी उतना ही ख़ौफ़ज़दा है (तभी रोज़ गालियां दिलवाते रहते हैं 2024 में भी)। उस डर का कारण था – महात्मा गाँधी से बड़ा और खतरनाक क्रांतिकारी भारत में 2000 सालों पैदा ही नहीं हुआ।

हा हा हा हा हा हा हा – वो कायर बुढ्ढा और क्रांतिकारी? दिमाग ख़राब तो नहीं हो गया तुम्हारा? हा हा हा हा हा। कायर बुढ्ढा! ही ही ही

अरे सुनो तो। वो गाँधी ही की बात कर रहा हूँ। बेहद खतरनाक क्रांतिकारी था।

कैसे? भैया ऐसे कि वो सबसे कमज़ोर, सबसे लाचार और सबसे दबे कुचले हिंदुस्तानी को ये विश्वास दिलाने में सफल हो गया कि बिना बन्दूक, गोली या बम के तुम अगर एक होकर सड़क पर आ गए और सत्य का आग्रह करने लगे, तो अंग्रेजी हुकूमत तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ पायेगी।

आँऐं ?

ज़रा सोचो – सबसे कमज़ोर हिंदुस्तानी आदमी और औरत, जिसने हज़ारों सालों से सिर्फ सर झुकाना सीखा, गाँधी उसको ये सिखा रहे थे कि यदि तुम करोड़ों लोग बिना हिंसा के एक साथ सड़क पर आ गए तो हुकूमत रोने लगेगी और झुकने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचेगा। और भारत के 2000 सालों के इतिहास में पहली बार – जी हाँ पहली बार – करोड़ों कमज़ोर हिंदुस्तानी एक साथ बाहर निकल आये। इससे बड़ी क्रांति हो सकती है भला? वो भी तब जब न फ़ोन थे, न मोबाइल और न इंटरनेट … कोई तड़क भड़क इंस्टा रील्स नहीं, लाल आँख (जयशंकर वाले) यूट्यूब शॉर्ट्स भी नहीं!

तो अब सोचो – ऐसे गाँधी से नफरत कौन करेगा?
नंबर 1 – अंग्रेजी हुकूमत /
नंबर 2 – हिन्दू और मुस्लिम समाज के सर्वोच्च जाति या कुल के नेता (जिनकी निर्बाध सामाजिक सत्ता को पहली बार चुनौती की आहट मिली) /
नंबर 3 – वो हिंदुस्तानी जो अंग्रेज़ों की सेवा में थे / और
नंबर 4 – सारे कायर जो न भगत सिंह की तरह गोली चला सकते थे, न बिना डरे सड़क पर आ सकते थे, बस चोरी छिपे षड़यंत्र कर सकते थे और झूठी कहानियां गढ़ सकते थे।

अँगरेज़ तो गए इंडिया से। तो आज तुम्हारे मन में गांधीजी के लिए गोबर भरने वाले बचे हुए गुटों के वंशज ही हैं। देखो उनको ध्यान से। सब दिखेगा।

नहीं नहीं मैं अब भी नहीं मानता – 2000 सालों में गाँधी सबसे खतरनाक क्रांतिकारी?

अरे भाई – मुझे बताओ – कब भारत की लगभग सारी जनता एक साथ किसी भी राजा के खिलाफ खड़ी हुई विद्रोह में? एक साथ?

1857 में? बिलकुल नहीं। वो एक सीमित युद्ध था जिसके कारक (factors) थे धार्मिक (गाय चर्बी वाले कारतूस) और सियासी (रियासतों का अधिग्रहण)। और 1857 में 90 % भारतीयों ने हिस्सा ही नहीं लिया।

मुग़लों के खिलाफ? बिलकुल नहीं। लगभग सारे राजा अपना अपना मनसब तय करवा कर मुग़लों की सेवा में लगे रहे सैकड़ों साल। कुछ लडे ज़रूर, लेकिन क्या आम जनता लाखों की तादाद में आई? नहीं।

दिल्ली सल्तनत के खिलाफ? बिलकुल नहीं। देश सैकड़ों राजसी रियासतों में बंटा हुआ था। सब अपनी अपनी देख रहे, आपस में लड़ रहे।

गुप्त साम्राज्य के खिलाफ? जब ब्राह्मण बनिया गठजोड़ का पीक गुप्त साम्राज्य में आया, तक 80 % आबादी चुपचाप पिटते हुए, मुफ्त कारसेवा देती हुई, राज्य की सेवा में लगी रहती (जिसे विष्टि परंपरा कहा गया)। क्रांति फ्रांति तो सोचना भी दूर की बात।

{ और पीछे जाना है? शक, कुषाण, इंडो-पार्थियन, इंडो-ग्रीक, या फिर आर्य आगमन? उसे अभी रहने देते हैं, क्योंकि वो बहुत बड़ा चैप्टर है। }

अंग्रेज़ों के खिलाफ? 1920 के पहले, कुछ सम्माननीय अपवादों को छोड़, लगभग सभी 550 राजाओं ने पूरा सरेंडर कर के, सहायक संधि कर ली थी, और ऐश करने में लग गए थे। काहे की क्रांति। कोई राजा 30 नग्न औरतों के साथ स्विमिंग पूल में रोज़ उतरने लगा, तो कोई 20 पत्नियों के साथ आराम करने लगा। कोई पूरे परिवार के साथ यूरोप घूमता रहता। कोई रोल्स रॉयस का बेडा बनाने में व्यस्त। बाकि अँगरेज़ सेना में सेवा देते, और तोपों की सलामी लेते, और गिनते रहते कि इस साले को मुझसे ज़्यादा तोपें कैसे? क्रांति व्रांति कुछ नहीं। और ध्यान से देखिये – इनके वंशज आपको गांधीजी को गालियां देते ही दिखेंगे। खेल बिगाड़ डाला तो इस गाँधी बुढ्ढे ने। कमीना।

तो भाई 1920 से गाँधी ने नया हथियार खोज निकाला – अहिंसक आंदोलन / सत्याग्रह / असहयोग। अब जिसे भी समाज पर कण्ट्रोल रखना है, समाज को दबाये रखना है, उसे तो इससे बहुत तकलीफ होगी ही। वो सारे लोग तब भी गाँधी को मारना चाहते थे और आज भी रोज़ मारने में लगे रहते हैं। आज भी। सोचो क्या दहशत है बुढ्ढे की। कितना आतंक। एक ऐसे आदमी का जिसने बोला “राम का नाम लो, सीना तान लो, आखें अंग्रेज़ों की आँखों में डालो, और विनम्रता से अपना हक़ मांगो। डरो मत। आगे बढ़ो। मैंने इनको चम्पारण में हराया था, हम सब मिलके इनको पूरे भारत में हरा देंगे।”

बाप रे बाप। 2000 सालों में पहला ऐसा पागल !!

बिना बम के विस्फोट! बिना गोली के आर पार!

मुस्कान से क़त्ल!

तो भारतीयों का पूरा डर जाता रहा। क्या आदमी आया औरत, क्या हिन्दू क्या मुसलमान, सब सड़क पर आ गए। बड़े बड़े आंदोलन हुए। अँगरेज़ हैरान परेशान। क्या करें? सबको गोली तो मार नहीं सकते। निहत्थे की ताक़त बहुत बड़ी होती है, जब वो एक संयमित भीड़ में होता है। क्रांतिकारी जब गोला बारूद चलाये, तब काम बहुत आसान होता है। अपने सैनिकों को छू कर दो। धांय धांय धांय धांय। मार डालो। हज़ारों जांबाज़ भारतीय क्रांतिकारियों के साथ यही हुआ। गाँधी जानते थे कि निहत्थे की ताक़त बहुत बड़ी होती है, जब वो एक संयमित भीड़ में होता है।अपने अनेकों एक्सपेरिमेंट साउथ अफ्रीका में किये थे। बहुत सबक मिले थे।

इसीलिए पहले दिन से – चम्पारण आंदोलन से लेकर 1920 के पहले नेशनल मूवमेंट में – नो वायलेंस प्लीज. नो गन्स, नो बॉम्ब्स, ओनली ट्रूथ एंड करेज।

अरे हां – गाँधी की ताक़त सबसे ज्यादा उसे पता थी जो गाँधी से ही नाराज़ हो कर कांग्रेस छोड़ कर चले गए थे, लेकिन आज़ाद हिन्द फ़ौज के पहले रेडियो ब्रॉडकास्ट में “गांधीजी फादर ऑफ़ थे नेशन” को याद किया, और गाँधी ब्रिगेड भी स्थापित की (और नेहरू ब्रिगेड भी)। (शायद अपने डीपी में तुमने उन्हीं की सुन्दर तस्वीर भी लगा रखी है)

तो भाई 1947 में अँगरेज़ भाग खड़ा हुआ। 1920 से 1947 तक बहुत आंदोलन हुए। “भारत छोडो आंदोलन” में 1942 से गांधीजी ने आत्मरक्षा और स्वराज्य प्राप्ति में हिंसा को पूर्णतः जायज़ ठहराया और अँगरेज़ गली गली दहल गए। (ये तुम्हें नहीं पता था न? बस वहीँ मूर्खों जैसा “एक गाल पर चांटा तो दूसरा गाल” वाला कुतर्क पकडे बैठे हो न अब तक?)

कुछ कायर हिंदुस्तानी अंग्रेज़ों की सेना में भर्ती करवाते रहे। “आंदोलनकारियों पर गोली चलाओ” की भीख मांगते रहे। “अंग्रेज़ों से कैसा बैर” गाते रहे।

खैर – कई शहीद हुए, कईओं के घर बुलडोज़ हुए, कई देशनिकाला दिए गए। सबके मिले जुले प्रयास से अँगरेज़ भागा। हम आज़ाद हो गए।

अब आज तो सत्ता में हैं, उनको ये पता है कि अगर इंडिया के बेरोज़गार युवा, पीड़ित महिलाओं और पिटते दलितों को ये फार्मूला पता लगा गया – “निहत्थे की ताक़त बहुत बड़ी होती है, जब वो एक संयमित भीड़ में होता है” तो बहुत भयानक प्रॉब्लम खड़ी हो जाएगी। निओ-लिबरल कैपिटलिस्ट इकॉनमी में जहाँ कुछ धन्ना सेठ सब कुछ लूटेंगे और बदले में सरकार को पूरा सपोर्ट देंगे, आप सामान्य युवा के लिए ज़्यादा कुछ है नहीं सरकार को देने को। सिवाय रंग बिरंगी तसवीरें, 20-25 साल आगे की मीठी बातें और दूसरे धर्मों को कूटने पीटने की अफीम के। और हाँ – इजराइल में मरने के लिए जॉब परमिट भी हैं अब तो।

अगर 10 करोड़ युवा एक साथ भारत की सड़कों पर शांतिपूर्वक उतर आया – जिसका हक़ संविधान में उसे है – और बिना हिंसा किये उसने मांग कर डाली कि “वो 20 करोड़ नौकरियां (2 crore x 10 years) कहाँ हैं जिसका वादा 2014 में हर भाषण में हुआ था? दो हमें – दस साल हो गए” – तो 10 – 15 – 30 दिन के बाद सरकार को झुकना ही पड़ेगा और पूरे अर्थतंत्र के पैटर्न को बदल कर जॉब जनरेशन की ओर मोड़ना होगा। कैपिटल प्रॉफ़िट्स का बड़ा हिस्सा लेबर कॉस्ट की ओर शेयर करना होगा। रेवड़ी रेवड़ी कहना बंद कर के, धन्ना सेठों के नंगे मुनाफे का बड़ा हिस्सा सोशल जस्टिस पर खर्चना होगा। PLIS में कॉर्पोरेट को बंट रहीं खरबों की रेवड़ियों के साथ अनिवार्य नई नौकरियों की शर्त बांधनी पड़ेगी। सान्याल और देबरॉय और पनगढ़िया को नौकरी से बर्खास्त कर, ज्योँ द्राज़ और जयति घोष और सक्सेना को लाना होगा।

तो भैया, 18 18 घंटे रोज़ मेहनत करने वाले अडानी अम्बानी महिंद्रा टाटा गोयनका, और 700 घंटे प्रति हफ्ते मेहनत करने वाला नारायण मूर्ति, क्या मूंगफली छीलेंगे? नहीं न।

इसलिए, आओ आज गाँधी बुढ्ढे को फिर से क़त्ल करें – हे राम!

क्योंकि उस बुढ्ढे ने 2000 साल में पहली बार सबको सिखाया था – “निहत्थे की ताक़त बहुत बड़ी होती है, जब वो एक संयमित भीड़ में होता है” … ये सीख आज के युवा तक न पहुँच जाये, आज की उस औरत तक न पहुँच जाये तो न्याय को तरस रही है, उस दलित तक न पहुँच जाये जो रोज पिट रहा है।

तो भाई – सारे गोडसे उठो, बूढ़े को फिर मारना है, झूठ की बन्दूक में नफरत की गोलियां भरो … तुमको व्हाट्सएप्प की, अमन चोपड़ा की, रुबिका की, रंगनाथन की, संपथ की, ऑप-इंडिया की और अमित मालवीय की घनघोर कसम है! इन्हें और इनके आकाओं को निराश मत करना।

(यह लेखक के अपने विचार हैं, लेखक संदीप मनुधाने विचारक हैं)

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