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भारत राजनीति सम्पादकीय

आज भारत में हाकिम तबक़ा हमारे दस्तरख़ान और बैडरूम के लिये हुक्म जारी करके हमारी आज़ादी को ग़ुलामी की बेड़ियाँ पहना रहे हैं

मुसलमानों की तारीख़ में करबला की घटना बहुत ही अहमियत रखती है। इसकी अहमियत और गम्भीरता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस घटना को गुज़रे हुए आज चौदह सदियाँ गुज़र चुकी हैं मगर इसका हर किरदार ज़िन्दा और हर ज़ख़्म ताज़ा महसूस होता है। ऐसा लगता है जैसे ये कल की ही घटना हो। इसकी एक वजह तो मुसलमानों का हर साल इस घटना की याद में महफ़िलें करके पूरी घटना को इस तरह बयान करना है कि जैसे वो हमारे आँखों के सामने हो रहा है और दूसरी वजह ये है कि दुनिया के किसी न किसी क्षेत्र में उस दिन से आज तक लगातार हुसैनी किरदार यज़ीदी किरदार के मुक़ाबले पर है।

प्यारे वतन भारत में तो हर दिन करबला की याद ताज़ा करनेवाली घटनाएँ होती रहती हैं। कहीं कोई साधू महात्मा हुसैन (रज़ि०) के नाना की शान में अपमानजनक शब्द कहता है, कहीं हुसैन (रज़ि०) के नामलेवा की लिंचिंग कर दी जाती है, कहीं ‘मुल्ले काटे जाएँगे’ के नारे लगाए जाते हैं। आदम और इब्लीस की जंग आदिकाल से अनन्त काल तक जारी रहेगी। इमाम हुसैन (रज़ि०) और यज़ीद के ये किरदार हमेशा ज़िन्दा रहेंगे। दुनिया में नेकी और बुराई के मुक़ाबले क़ियामत तक होते रहेंगे। इसलिये कि

सतीज़ा-कार रहा है अज़ल से ता इमरोज़।
चराग़े-मुस्तफ़वी से शरारे-बू-लहबी ॥

(हक़ और बातिल का मुक़ाबला हमेशा से इसी तरह होता चला आया है जिस तरह एक तरफ़ अबू-लहब के शरारे थे और दूसरी तरफ़ मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्ल०) के मुहब्बत के चराग़ थे।)

अलबत्ता ख़ैर और शर की इस जंग में मुस्तफ़वी चराग़ रखनेवालों का इम्तिहान है कि वो तेज़ व तुन्द हवाओं, हौलनाक आँधियों और तबाह कर देनेवाले तूफानों के बीच चराग़े-मुस्तफ़वी को किस तरह रौशन रखते हैं। हम देखते हैं कि जहाँ-जहाँ ईमानवालों ने अपने अन्दर हुसैनी किरदार को ज़िन्दा और बाक़ी रखा है वहाँ-वहाँ चराग़े-मुस्तफ़वी की लौ बुझने के बजाय और तेज़ हुई है। फ़लस्तीन में सत्तर साल से हक़ और बातिल के बीच जंग जारी है, मगर हक़ पर चलनेवालों की बहादुरी और जमाव के सामने बातिल सर झुकाता चला जा रहा है। अफ़ग़ानिस्तान के इलाक़े में भी हक़ पर चलनेवाले सत्तर साल से सुपर-पावर से मुक़ाबला कर रहे हैं और वो इस वक़्त फ़तह का झण्डा लहरा रहे हैं। दुनिया की सुपर-पावर को बोरिये पर बैठनेवालों ने जिस ज़िल्लत से हराया है वो मौजूदा तारीख़ का रौशन बाब है।

भारतीय करबला में एक तरफ़ हुसैन (रज़ि०) के नाम लेवा हैं और दूसरी तरफ़ हुसैनी नाम से नफ़रत करने वाले हैं। चूँकि दुनिया दारुल-अस्बाब (कार्य-कारण की दुनिया) है। इसलिये इस जंग में फ़तह उसी गरोह को होगी जो अपनी फ़िक्र की मज़बूती के साथ-साथ ज़ाहिरी अस्बाब और साधन भी रखता हो। इस पहलू से अगर जायज़ा लिया जाए तो भारत में बातिल तहरीकें ज़्यादा मज़बूत नज़र आती हैं। वो अपने मिशन के बारे में जितने गम्भीर हैं, उसके लिये जिस तरह त्याग और क़ुरबानियाँ दे रहे हैं और जितनी प्लानिंग के साथ आगे बढ़ रहे हैं, हमारे यहाँ इसकी कमी है। 33 करोड़ देवताओं के मानने वाले जिस तरह एक हैं, हम एक ख़ुदा को मानने वाले उससे ज़्यादा बिखरे हुए हैं। उनके यहाँ जिस स्तर की गम्भीरता है हमारे यहाँ उससे कहीं ज़्यादा गम्भीरता की कमी है, प्लांनिंग शब्द तो हमारी डिक्शनरी का हिस्सा ही नहीं है। इन हालात में हम किस तरह फ़तह की उम्मीद रख सकते हैं।
करबला की घटना में हज़रत हुसैन (रज़ि०) के किरदार को अगर ग़ौर से पढ़ा जाए तो आज के हालात में उसके अन्दर उम्मते-मुस्लिमा के लिये कई अहम् सबक़ मौजूद हैं जो आज के हालात में हमारी रहनुमाई करते हैं। पहला सबक़ यह है कि उम्मत को डिफ़ेंसिव होने और छूट के पहलुओं का बहाना करने के बजाय जमाव और इरादे की पुख़्तगी का रास्ता अपनाना चाहिये। आज़ादी के 75 साल बाद आज जिस ज़िल्लत के मक़ाम पर उम्मत खड़ी है उसमें हिकमत और मस्लिहत की आड़ में हमारे बुज़दिलाना फ़ैसलों का अहम् रोल है।

एक-एक करके मुसलमानों के हक़ों पर हमले होते रहे, इदारे ख़त्म किये जाते रहे, मुस्लिम बाहुल्य-इलाक़ों को नज़र-अन्दाज़ किया जाता रहा और हम हर बार एक क़दम पीछे हटते रहे। हमने किसी मक़ाम पर भी मज़बूती नहीं दिखाई, बल्कि हीलों और बहानों की आड़ में बुज़दिली को हिकमत और मस्लिहत और अल्लाह की मंशा और मर्ज़ी का ख़ूबसूरत नाम देकर इत्मीनान की साँस ली। जबकि हज़रत इमाम हुसैन (रज़ि०) ने अपनी बात और अपने इरादे में ज़रा लचक पैदा नहीं की, न ये देखा कि मेरी क़ुव्वत और तादाद क्या है और न किसी छूट से कोई फ़ायदा उठाया, बल्कि बातिल के सामने सीना तानकर खड़े हो गए जबकि वो ये भी जानते थे कि इस जंग में उनकी और उनके घरवालों की जान चली जाएगी।

उम्मते-मुस्लिमा का हर शख़्स अगर ये किरदार अपने अन्दर पैदा कर ले, ‘या-हुसैन’ का नारा लगानेवाले और उनके ग़म में सीना पीटकर लहूलुहान करनेवाले, दहकते अंगारों पर चलनेवाले अगर अमली ज़िन्दगी में यही जवाँ मर्दी दिखाने पर उतर आएँ तो कोई सेना और वाहिनी इनके मुक़ाबले पर नहीं ठहर सकती।

करबला की घटना का दूसरा अहम् सबक़ अपनी आज़ादी की हिफ़ाज़त का है। यज़ीद ने जिस बादशाहत का ऐलान किया था वो इन्सानों को इन्सान का ग़ुलाम बनानेवाली थी, वहाँ ज़मीर और अन्तरात्मा की आज़ादी को ग़ुलामी की बेड़ियों में क़ैद किया जा रहा था, ठीक उसी तरह आज भारत में हाकिम तबक़ा हमारे दस्तरख़ान और बैडरूम के लिये हुक्म जारी करके हमारी आज़ादी को ग़ुलामी की बेड़ियाँ पहना रहे हैं।

फासीवाद का ये हाकिमाना रवैया बहुत जल्द यहाँ की जनता की बड़ी तादाद को अपनी ग़ुलामी में ले लेगा और देश पर कुछ ही लोगों की हुक्मरानी का दौर शुरू हो जाएगा। इस मौक़े पर भी हुसैन (रज़ि०) की याद में मातम की मजलिसें सजानेवालों को अपने अन्दर हुसैनी किरदार पैदा करना चाहिये, इसलिये कि इमाम हुसैन (रज़ि०) का कथन है “इज़्ज़त की मौत ज़िल्लत की ज़िन्दगी से बेहतर है।”

यज़ीद की तरफ़ से बैअत करने की माँग उनके सुनहरी अलफ़ाज़ इतिहास में दर्ज हैं। “ख़ुदा की क़सम, अपना हाथ ज़िल्लत के हाथों में नहीं दूँगा और ग़ुलामों की तरह तुम्हारे आगे नहीं झुकूँगा” हज़रत इमाम हुसैन (रज़ि०) ने जो कहा उसको करके दिखाया और उम्मत को ये रास्ता दिखाया कि वो अपनी आज़ादी को हर क़ीमत पर बाक़ी रखें, फिर उनके नामलेवा किस तरह अपने लिये ज़िल्लत और ग़ुलामी को पसन्द कर रहे हैं। उनकी तरफ़ से कोई आवाज़ मज़बूत इरादे के साथ क्यों नहीं सुनाई देती?

करबला का हादिसा कोई रस्मी चीज़ नहीं है कि हर साल उसको याद करने की केवल वे रस्में अदा की जाएँ जो बाप दादा से चली आ रही हैं। इतिहास केवल पढ़ने और पढ़कर सर धुनने का नाम नहीं है। इमाम हुसैन (रज़ि०) और आले-हुसैन की बहादुरी केवल बयान करने की हद तक नहीं है। इमाम हुसैन (रज़ि०) के मरसिये और शोक गीत केवल शाइरी का हिस्सा नहीं कि सुनकर मज़ा उठा लिया जाए।

आले-हुसैन (रज़ि०) की शहादत का ग़म ताज़ा रखने का मक़सद ये नहीं है कि हम एक ख़ास तारीख़ को रो-रोकर बयान करें और आँसू गिराकर ख़ामोश हो जाएँ, बल्कि ये वाक़िआत और ये किरदार हमारे दिल में हश्र पैदा करने के लिये हैं। हमारे हौसलों को जोश देने और हमारे लहू को गर्म रखने के लिये हैं। अगर मुहर्रम के महीने की दिल दहलाने वाली करबला की घटना भी हमारे अन्दर दबी चिंगारी को शोला नहीं बनाती तो अपनी ग़ुलामाना हालत में किसी बदलाव का इन्तिज़ार मत कीजिये, इसलिये कि बदलाव ‘या-हुसैन’ के नारों से नहीं, हुसैनी किरदार पैदा करने से आता है, दुनिया आपके अन्दर उसी किरदार को तलाश कर रही है।

नाम लेना ही नहीं काफ़ी अज़ादारे-हुसैन।
ढूँढती है आज दुनिया हममें किरदारे-हुसैन॥

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक कलीमुल हफ़ीज एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष हैं)

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