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हमें अपनी मस्जिदों और मदरसों के लिए किसी सरकारी सहायता की जरूरत नहीं: मौलाना अरशद मदनी

कुल हिंद राब्ता मदरिस इस्लामिया की बैठक के बाद अध्यक्ष जमीअत उलमा-ए-हिन्द मौलाना अरशद मदनी ने आज यहां पत्रकारों के साथ बातचीत करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि हम आधुनिक शिक्षा के कदापि विरोधी नहीं हैं, हम भी चाहते हैं कि हमारी कौम के बच्चे इंजीनर, वैज्ञानिक, वकील और डाक्टर बनें, बढ़चढ़ कर प्रतियोगी परीक्षा में हिस्सा लें और सफलता प्राप्त करें, लेकिन हम इसके साथ साथ यह चाहते हैं कि सबसे पहले हमारा बच्चा धर्म और असकी मान्यताओं को सीख ले इसलिए कि जिस तरह कौम को डाक्टर, वकील, बैरिस्टर और इंजीनर की जरूरत है, जिंदगी में हर जगह उसी तरह हमारी कौम को बेहतर से बेहतर मुफ्ती और बेहतर से बेहतर धार्मिक विद्वानों की जरूरत है जो मदरसों से ही पूरी हो सकती हैं. केवल हमें ही नहीं अन्य धर्मों के मानने वालों को भी धार्मिक लोगों की जरूरत होती है, यही कारण है कि हम मदरसों की प्रणाली को आगे बढ़ाते हैं।

उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में मदरसों विशेषकर दारुल उलूम की भूमिका और इसकी स्थापना के उद्देश्यों को विस्तार से बयान किया और कहा कि दारुल उलूम की स्थापना के उद्देश्य में केवल शिक्षा नहीं बल्कि देश की आजादी भी थी और इसके लिए मदरसों के ज़िम्मेदारों ने स्वतंत्रा संग्राम में व्यावहारिक भूमिका निभाइ परन्तु स्वतंत्रा की प्राप्ति के बाद उलमा राजनीति से बिलकुल अलग हो गए और उन्होंने देश की सेवा के लिए ही अपनी गतिविधियां बाकी रखीं।

उन्होंने स्पष्ट किया कि धार्मिक व्यक्तियों के कंधे पर धर्म की ज़िम्मेदारी है, मदरसों में इमाम, मोअजि़्ज़न, मुफ्ती और क़ाज़ी तैयार होते हैं जो मुसलमानों के विभिन्न धार्मिक कार्यों में सेवाएं देते हैं, बिलकुल उसी तरह जिस तरह देश के अन्य धर्म के लोग शादी विवाह, मृत्यु के बाद तेरहवीं, चालीसवीं और मंदिरों में पुजारियों की होती है।

इसके साथ ही मौलाना मदनी ने यह भी कहा कि हमें अपनी मस्जिदों और मदरसों के लिए किसी सरकारी मदद की जरूरत नहीं और न ही मदरसों की संबद्धता सहायता के लिये किसी सरकारी बोर्ड से स्वीकार है।

उन्होंने ऐतिहासिक हवाले से यह भी कहा कि दारुल उलूम देवबंद की स्थापना के समय ही यह निर्णय लिया गया था कि धर्म से ऊपर उठकर मानवता के आधार पर मामले तै किए जाएंगे, इसी वजह से पुरानी रिपोर्टों से पता चलता है कि गैर मुस्लिम लोग भी मदरसों में दाखिला लेते थे, इसलिए मदरसों का अस्तित्व देश के विरोध के लिए नहीं उसके निर्माण एवं विकास के लिए है. मदरसों का डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास इसका गवाह है।

मौलाना मदनी ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि वैसे भी मदरसों के दरवाज़े तो हमेशा से सब के लिए खुले हैं, उनके अंदर छिपाने जैसी कोई चीज़ है ही नहीं, मौलाना मदनी ने स्पष्ट करते हुए कहा कि मदरसों में केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है और इसका अधिकार हमें देश के संविधान ने दिया है, संविधान ने हमें अपने शिक्षण संस्थान की स्थापित करने और उन्हें चलाने का पूर्ण अधिकार भी दिया है।

मौलाना मदनी ने कहा कि यह इल्ज़ाम निराधार है कि मदरसों में हिंसा की प्रेरणा दी जाती है और इस्लाम के सिवा किसी दूसरे को जीने का अधिकार नहीं देने की शिक्षा दी जाती है, आप किसी भी मदरसे में किसी भी समय जा सकते हैं वहां धार्मिक पुस्तकों और शिक्षा प्राप्त करने वालों के अलावा कुछ भी नहीं मिलेगा।

ऐतिहासिक रूप से यह बात सच है कि यह हमारे उलमा ही थे जिन्होंने उस समय देश को गुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने का सपना देखा जब पूरी कौम सो रही थी। उसके लिए हमारे उलमा ने कारावास की यात्नाएं ही नहीं झेलीं बल्कि अपनी अमूल्य जानों का बलिदान भी दिया, आज हमारे उन्ही उलमा द्वारा लगाए गए इन दरख़्तों को जड़ से काट देने की साजिशें हो रही हैं, उनकी औलादों को गद्दार और देश द्रोही करार दिया जा रहा है और उन संस्थानों को आतंक का अड्डा बताया जा रहा है, उन्होंने कहा कि वो लोग जो काॅलिजों और यूनिवर्सिटियों से पढ़ कर निकले देश की लाखों हज़ार करोड़ की दौलत समेट कर देश से फरार हो चुके हैं, देश के आम नागरिक गरीबी और महंगाई में दब कर मौत से बदतर जिंदगी गुज़ार रहे हैं और यह लोग देश की संपत्ति लूट कर विदेशों में ऐश कर रहे हैं, क्या यह देशद्रोही नहीं हैं? और क्या यह पता लगाने का प्रयास नहीं होगा कि उनमें कितने मुसलमान हैं? सच तो यह है कि उनकी गर्दनों तक कानून के हाथ अब तक नहीं पहुंच हैं।

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