बिल्किस बानों की कहानी हम सभी को सोचने पर मजबूर करती हैं। आखिर बलात्कारियों और हत्यारों के साथ खड़ा होना, उन्हें मालाएं पहना कर सम्मानित करना कौन सा राष्ट्रवाद है?
एक माँ के सामने उसके बच्चे की हत्या कर उसका गैंगरेप करने जैसा जघन्य अपराध करने वाले दरिंदे क्या माफी के काबिल हैं? उन्हें छोड़े जाने पर हुए जश्न की तस्वीरों ने दुनिया में क्या संदेश दिया है क्या सरकारों को इस बात का अंदाजा है?
एक माँ होने के नाते मैं बिल्किस और उसके संघर्ष पर सोचने के लिए मजबूर हो जाती हूँ। मृत्यु की पीड़ा भी बहुत छोटी पड़ जाती है, जब एक माँ के सामने उसके बच्चे के साथ हिंसा हो, उसकी हत्या हो और मांगने पर भी उसे उसके हिस्से का न्याय ना मिले और उसपर एक ऐसी सरकार जो मानवता की धज्जियाँ उड़ाते हुए आपकी गरिमा को तार तार कर दे।
बिल्किस बानों कमजोर थी, उसके खिलाफ खड़ी ताक़तों का क़द उससे कहीं बड़ा था, पर वो लड़ी और लड़ कर एक ऐसी जीत हासिल की जो मिसाल बन गई। पर क्या यह सही मायने में उसकी जीत है? क्या यह वाकई अंतिम न्याय है?
बिल्किस के अपराधियों को छोड़ा जाना मेरे और मेरी जैसी लाखों महिलाओं के लिए स्तब्ध कर देने वाला था। यह सरकार का संदेश था कि न्याय को पलट कर एक खौफनाक हादसे के आरोपियों को भी क्षमा दी जा सकती है। एक पीड़िता के संघर्ष और उसके धैर्य की और कितनी परीक्षा ली जा सकती है?
और उसके साथ खड़े लोगों को भी कटघरे में खड़ा किया जाता है। आज हमने एक ऐसा समाज बना दिया है कि बिल्किस के समर्थन में बोलने के लिए भी हौसले की ज़रूरत है, क्योंकि इस समाज में अपराधियों का साथ देना ज्यादा आसान है।
अपराधियों का साथ देने में आपको सोशल मीडिया पर गाली नहीं सुननी पड़ेगी, आपके परिवार पर कोई घटिया कमेंट नहीं करेगा, अन्याय का पक्ष लेने पर आपको मानसिक रूप से प्रताड़ित नहीं करेगा।
बिल्किस के आरोपियों को छोड़ना समाज के एक वर्ग को संदेश है, संदेश की उनके होने ना होने से फर्क नहीं पड़ता। संदेश की उन्हें न्याय से वंचित रखा जा सकता है। संदेश की कमज़ोरों को सरकार कभी भी अपने बूट के तले कुचल सकती है। संदेश की ताक़तवरों की दुनिया में कमजोर न्याय की अपेक्षा नहीं कर सकता और मूक होकर तमाशा देखता मीडिया हमेशा ताकतवरों के दरबार में सिर झुकाए उनकी खुशामद में रहता है।
इसलिए आज द्रौपदी को शस्त्र खुद उठाने होंगे, ख़ुद लड़नी होगी अपनी लड़ाई और ख़ुद लेना होगा अपने हिस्से का न्याय. हां, जिनकी आँखों के आंसू अभी सूखे ना हों और ज़मीर अभी मरा ना हो, वो आवाज जरूर उठाते रहेंगे. उनकी आवाज सुनी जाये, या ना सुनी जाये, इसकी परवाह किए बगैर।
(यह लेख पत्रकार रोहिणी सिंह के ट्विटर से उठाया गया हैं)