इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बुधवार को उत्तर प्रदेश के रामपुर में 2007 में सीआरपीएफ कैंप पर हुए आतंकी हमले के मामले में दोषी ठहराए गए पाँच मुस्लिम आरोपियों को बरी कर दिया। अदालत ने इसे “न्याय की गंभीर विफलता” करार दिया और कहा कि अभियोजन पक्ष आतंकवाद से जुड़े आरोपों को साबित करने में “पूरी तरह असफल” रहा है।
न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा और राम मनोहर नारायण मिश्रा की खंडपीठ ने चार आरोपियों की मौत की सज़ा और एक की आजीवन कारावास की सज़ा को रद्द कर दिया। अदालत ने केवल शस्त्र अधिनियम (Arms Act) के तहत 10 साल की सज़ा और ₹1 लाख का जुर्माना बरकरार रखा।
अपने 185 पन्नों के फैसले में अदालत ने कहा कि जाँच में ऐसी गंभीर खामियाँ थीं जो “मामले की जड़ तक पहुँच गईं।” अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि इस त्रुटिपूर्ण जाँच के लिए ज़िम्मेदार पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।
बरी किए गए आरोपियों में मोहम्मद शरीफ, सबाहुद्दीन, इमरान शहजाद, मोहम्मद फ़ारूक और जंग बहादुर ख़ान शामिल हैं — जिन्होंने लगभग 17 साल जेल में बिताए।
31 दिसंबर 2007 को हुए रामपुर सीआरपीएफ कैंप हमले में कई जवान शहीद हुए थे। 2019 में निचली अदालत ने पाँचों आरोपियों को फाँसी या उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी, जिसे अब उच्च न्यायालय ने पलट दिया है।
बचाव पक्ष के वकीलों एम.एस. खान, अनिल बाजपेयी और सिकंदर खान (जमीयत उलमा महाराष्ट्र, अरशद मदनी समूह की कानूनी सहायता समिति से) ने अदालत में दलील दी कि पूरा मामला विरोधाभासी गवाहियों और नष्ट किए गए साक्ष्यों पर आधारित है। उन्होंने यह भी कहा कि गोलीबारी के दावों के बावजूद किसी आरोपी को गोली नहीं लगी थी।
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा, “यह सच्चाई और न्याय के लिए एक ऐतिहासिक दिन है। 17 दर्दनाक सालों के बाद आखिरकार न्याय की जीत हुई।” उन्होंने यह भी बताया कि संगठन आर्म्स एक्ट के तहत बची हुई सज़ा के खिलाफ अपील करेगा।
इस फैसले ने भारत में यूएपीए (UAPA) जैसे आतंकवाद विरोधी कानूनों के इस्तेमाल को लेकर फिर से बहस छेड़ दी है। मानवाधिकार संगठनों और कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे कानूनों का दुरुपयोग अक्सर अल्पसंख्यकों और राजनीतिक असहमति रखने वालों को निशाना बनाने के लिए किया जाता है।
मानवाधिकार अधिवक्ताओं ने इस मामले को “न्यायिक प्रणाली की खामियों का प्रतीक” बताया है, जहाँ मुकदमे से पहले की लंबी कैद, कमजोर सबूत और प्रक्रियागत त्रुटियाँ लोगों की ज़िंदगियाँ बर्बाद कर देती हैं।
कानूनी विशेषज्ञों ने केंद्र सरकार से सभी लंबित यूएपीए मामलों की स्वतंत्र समीक्षा की माँग की है, यह तर्क देते हुए कि रामपुर का यह फैसला भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में गहरी संरचनात्मक समस्याओं को उजागर करता है — जहाँ “दोषी होने की धारणा” अक्सर “निर्दोष माने जाने के अधिकार” पर हावी हो जाती है।


