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एहसान फरामोशो के दौर में अपने नायकों को याद करें: आज़ादी के 75 सालों में मुसलमानों ने ही खुद अपने समाज की ऐतिहासिक शख्सियतों को भुला दिया है

दरअसल आज़ादी के 75 सालों में दूसरे को तो छोड़िए खुद मुसलमानों ने ही अपने समाज की ऐतिहासिक शख्सियतों को भुला दिया है।

पिछले 75 सालों में मुसलमानों ने या तो रोज़ी-रोटी के लिए और या फ़िर ज़मीन के दो गज़ नीचे और सात आसमान के ऊपर से अधिक इतना बड़ा कुछ नहीं सोचा, ना किया जिससे किसी की औकात ना बचे कि वह देश के निर्माण में मुस्लिम समाज के महापुरुषों की पहचान मिटाने के लिए उनपर आक्रमण कर सकें.. जैसे कि कल फातिमा शेख पर हुआ।

दरअसल 2014 से यह पूरा प्रयास मुसलमानों और उनके समाज के उर्दू नाम धारी महापुरुष लोगों और उर्दू नाम की जगहों का नाम चुन चुन कर मिटाने का है और मुसलमानों की इस मामले में खामोशी उन्हें सफ़ल करती है‌।

मशहूर शायर मुनव्वर राना ने देश की ऐसी ही एक शख्सियत के लिए लिखा था ……

           जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
           वहीं हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं.

           यकीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद, 
          हम अपना घर-गली अपना मुहल्ला छोड़ आए हैं...

जिस दौर में बाबा साहेब डा भीमराव अम्बेडकर को तालाबों से पानी पीने पर अछूत कह कर मारा पीटा जाता रहा हो उसी दौर में बाबा साहेब को मौलाना हसरत मोहानी अपने घर दावत पर बुलाते थे और साथ में एक ही मेज़ पर बैठकर खाना खाते थे।

इन्हीं मौलाना हसरत मोहानी के लिए बाबा साहेब डाक्टर भीमराव अम्बेडकर ने कहा था

“वही एकमात्र ऐसे नेता हैं जो समानता का ढोंग करने के बजाय अपने हर आचरण में उसे बरतते हैं”

यही कारण है कि डाक्टर अंबेडकर के साथ ऐसी फोटो उस दौर के किसी और नेता के साथ नहीं मिलती, फिर चाहे नेहरू हों या पटेल।

दरअसल महापुरुष बनते नहीं सरकारों द्वारा बनाए जाते हैं , बने महापुरुष सरकारों द्वारा ही मिटाए जातें हैं। यही काम आज सावरकर, दीन दयाल उपाध्याय और मुखर्जी जैसे लोगों को महापुरुष बना कर किया जा रहा है जिनका स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान कुछ भी नहीं बल्कि मौलाना हसरत मोहानी के सामने तो नगण्य है।

आज मौलाना हसरत मोहानी को कौन जानता है? कोई नहीं। यही कारण है कि 1 जनवरी को उनके जन्मदिन पर किसी ने भी उन्हें याद नहीं किया…

आप भी पूछेंगे कि कौन हसरत मोहानी? जिन्होंने 1921 में अपनी क़लम से पहली बार कालजयी नारा दिया ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ जो समूचे क्रांतिकारी आंदोलन की आज तक ऊर्जा बना हुआ है।

शहीद भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने आठ अप्रैल, 1929 को उसी “इंकलाब ज़िंदाबाद” नारे को लगाते हुए बहरे सत्ताधीशों के कानों तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए सेंट्रल असेंबली में बम फेंके और बाद में राजगुरु व सुखदेव के साथ भगत सिंह ने बेखौफ होकर फांसी के फंदे को चूम लिया था…

उस मौलाना हसरत मोहानी को जिन्होंने उस दौर में महात्मा गांधी को चैलेंज किया……

दरअसल उन्नाव के मोहान कस्बे में 1 जनवरी 1875 में जन्मे मौलाना हसरत मोहानी देश की स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े चेहरे थे जिन्होंने पहली बार “मुकम्मल आज़ादी” का नारा दिया था जिसका महात्मा गांधी ने विरोध किया…

उनके छात्र जीवन में ही हुई डौडिया खेड़ा के राजा राव रामबक्श सिंह की शहादत का उन पर ऐसा असर हुआ कि वह आजादी के इंकलाबी सिपाही बन गए और कॉलेज से निष्कासन समेत कई क्रूर दंड भोगे। प्रारंभिक शिक्षा पूरी हो गई तो भी इंकलाब का रास्ता बदलना गवारा नहीं किया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंच गए….

जब देश में महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू का कहीं आता पता नहीं था और यह लोग विदेशी हवाओं में ऐश की ज़िंदगी जी रहे थे तब 1903 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में शिक्षा हासिल करने गये मौलाना हसरत मोहानी ने ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ नाम का उर्दू पत्र निकाला जिसमें ब्रिटिश हुक्मरानों की कट्टर आलोचना हुआ करती थी और इसी पत्रिका से उन्होंने आजादी के दीवाने साहित्यकारों व नेताओं का इस देश में पहली बार खुला मंच बना दिया।

1907 में उनकी एक टिप्पणी से चिढ़ी गोरी सरकार ने उन्हें दो साल की कैद-ए-बामशक्कत की सजा दिलाई तो उन्हें परेशान करने के लिए जेल में उनसे प्रतिदिन एक मन गेहूं पिसवाया जाता था।

फिर भी उन्होंने जेल से विचलित हुए बिना लिखा

     मश्क़ ए सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी, 
      इक तुर्फ़ा तमाशा है ‘हसरत’ की तबीयत भी"  

ब्रिटिश हुकूमत की आंखों में खटकने के कारण 1914 और 1922 में उन्हें फिर जेल जीवन जीना पड़ा और वह अपनी ज़िंदगी में कुल 6 साल तक जेल में रहे और उसी जेल की कोठरी में उन्होंने लिखा

         "चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है"

एक बार रमज़ान की पहली तारीख को उन्हें जेल हुई और उन्होंने जेल से ही लिखा

          कट गया कैद मे माहे रमज़ाँ भी हसरत 
            न तो सामाने सहर था न इफ़्तारी का

एक समय दिल्ली का बल्लीमारान इलाके में रहने वाले हसरत मोहानी तब लेखन में खूब मशगूल थे और नई दिल्ली में संसद भवन के सामने स्थित जामा मस्जिद में गर्म तकरीरें किया करते थे।

वह दुनियावी अर्थ में मौलाना नहीं थे बल्कि वह उन चंद मुस्लिमों में से थे, जिन्होंनेे कांग्रेस को अपनाया फिर भी उसमें होने और बने रहने की उनकी अपनी शर्तें थीं। वह बहुत सख्त मिजाज और धुन के पक्के थे। इतने कि कई बार वे गांधी और कांग्रेस की नीतियों के विरोध में तनकर खड़े हो जाते थे।

मौलाना हसरत मोहानी ने 1921 में अहमदाबाद कांग्रेस में मुकम्मल आजादी (पूर्ण स्वराज्य) का प्रस्ताव ले आए. चूंकि तब तक “मुकम्मल आजादी” कांग्रेस के सपने में ही नहीं थी, इसलिए कांग्रेस ने उसे स्वीकार करने से मना कर दिया।

यहां तक कि महात्मा गांधी ने तो “मुकम्मल आज़ादी” को ‘गैरजिम्मेदारी की बात’ तक बता डाला था..

जब मौलाना हसरत मोहानी ने लिखा

            गांधी की तरह बैठ के क्यों कातेंगे चर्खा, 
          लेनिन की तरह देंगे न दुनिया को हिला हम!

यहां जानना जरूरी है कि कांग्रेस के सबसे बड़े नायक महात्मा गांधी के विरोध के चलते मुकम्मल आजादी का उनका प्रस्ताव आगे तो नहीं बढ़ पाया, लेकिन उसे एक तिहाई वोट मिले थे।

फिर आठ साल बाद ही सही, 26 दिसंबर, 1929 को कांग्रेस को “पूर्ण स्वराज्य” का प्रस्ताव पास करना और 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्वराज्य दिवस घोषित करना पड़ा था।

कहने का अर्थ यह है कि कांग्रेस तब भी सुस्त थी आज भी सुस्त है…..

मौलाना हसरत मोहानी कांग्रेस के उन गिनती के नेताओं में थे, जो महात्मा गांधी से अपनी असहमतियां छिपाते नहीं थे। असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो सारी विदेशी वस्तुओं के वहिष्कार के महात्मा के आह्वान के विपरीत मोहानी चाहते थे कि सिर्फ ब्रिटेन की वस्तुओं का बहिष्कार किया जाए, क्योंकि लड़ाई अंततः ब्रिटिश साम्राज्यवाद से ही है। लेकिन कांग्रेस ने उनकी यह बात भी नहीं ही मानी।

वह चाहते थे कि स्वतंत्रता के आंदोलनकारियों पर अहिंसक रहने की पाबंदी न लगाई जाए बल्कि इसके उलट उन्हें परिस्थिति व जरूरत के अनुसार शस्त्र और साधन चुनने व कदम उठाने को आजाद रखा जाए।

देश को स्वतंत्रता मिली और 1946 में जब संविधान सभा का गठन हुआ तो हसरत मोहानी को भी शामिल किया गया और बाबा साहब अंबेडकर के साथ मिलकर उन्होंने हिन्दुस्तान को संवारने के लिये संविधान बनाने में सहयोग किया…

भारत के बंटवारे का प्रबल विरोध करने वाले मौलाना हसरत मोहानी ने पाकिस्तान जाने की पेशकश ठुकरा दी और खुद के बारे में यह कहते हुए 13 मई 1951 को लखनऊ में आखिरी सांस ली कि

          "दरवेशी ओ इंक़िलाब है मसलक मेरा, 
             सूफी मोमिन हूं इश्तिरारी मुस्लिम।

जिस डाक्टर अंबेडकर के हाथों का छुआ पानी कोई पीना पसंद नहीं करता था मौलाना हसरत मोहानी उस दौर में उनके करीबी दोस्त हुआ करते थे, एक टेबल पर बैठ कर साथ में खाना खाया करते थे।

याद करिए हसरत मोहानी को नहीं तो एक दिन फातिमा शेख की तरह उनके अस्तित्व पर भी हमला होगा और एक टुकड़ा खोर बंडल कहेगा कि “हसरत मोहानी उसकी पैदावार हैं”

सहेजिए, फैलाईए , शेयर करिए क्योंकि ऐसी शख्सियत संघ के खाते में होती तो वह गांधी के बराबर इन्हें खड़ा कर चुके होते. जिन्हें हम मुसलमानों ने ही भुला दिया…

(यह लेख मौहम्मद ज़ाहिद की फेसबुक वॉल से लिया गया है)

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