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गाज़ा पर किए जा रहे हमले अब किसी सैन्य टकराव की श्रेणी में नहीं आते, बल्कि पूरी तरह से नागरिक आबादी को निशाना बनाकर किया जा रहा नरसंहार है

ग़ाज़ा में चल रहे इज़राइली हमलों ने एक बार फिर पूरी दुनिया को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या मानवाधिकार, नैतिकता और न्याय जैसी संकल्पनाएँ केवल बयानों तक ही सीमित हैं? जब एक निहत्थी आबादी पर सबसे आधुनिक हथियारों से हमला किया जाता है, अस्पतालों को निशाना बनाया जाता है, पत्रकार मारे जाते हैं, और मासूम बच्चे मलबों के नीचे दबकर दम तोड़ देते हैं, तब अगर विश्व शक्तियाँ चुप्पी साधे रहती हैं या केवल “संवेदना” जताकर अपना दायित्व निभा लेती हैं, तो यह इंसानियत के साथ सबसे बड़ा धोखा, और सबसे बड़ा मज़ाक़ है।

गाज़ा पर इज़रायल द्वारा किए जा रहे हमले अब किसी सैन्य टकराव की श्रेणी में नहीं आते। यह पूरी तरह से नागरिक आबादी को लक्ष्य बनाकर किया जा रहा एक नरसंहार है। यूनाइटेड नेशंस की रिपोर्टों के अनुसार, अक्टूबर 2023 से अब तक पचास हज़ार से अधिक नागरिक, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएँ और बच्चे हैं, मारे जा चुके हैं। स्कूल, मस्जिदें, चर्च, और शरणस्थल तक सुरक्षित नहीं बचे। जब ग़ाज़ा में मासूम बच्चे मारे जा रहे हैं, अस्पताल बमबारी का निशाना बन रहे हैं और लाखों लोग भोजन, पानी और दवा के बिना तड़प रहे हैं, तब इन देशों के नेता केवल “दोनों पक्षों से संयम” की अपील कर रहे हैं। यह भाषा दरअसल इज़रायल को राहत देने वाली कूटनीति है, जो ज़ालिम और मज़लूम को एक तराजू में तौलती है।

तुर्की और सऊदी अरब, जो खुद को मुस्लिम जगत का नेता समझते हैं, उन्होंने में इज़रायल से संबंध सामान्य करने की दिशा में तेज़ी से काम किया है। यूएई और बहरीन पहले ही अब्राहम समझौते के ज़रिये इज़रायल को वैधता प्रदान कर चुके हैं। मिस्र, जिसने एक समय ग़ाज़ा की सीमा पर हमदर्दी दिखाई थी, आज राफ़ा क्रॉसिंग बंद करके घायलों और जरूरतमंदों को बाहर निकलने से रोक रहा है। इन देशों की विदेश नीति अब उम्मत के विचार से नहीं, बल्कि तेल अवीव के हितों से संचालित हो रही है। इनके लिए फिलिस्तीन अब एक भावनात्मक कार्ड है, जिसे जब चाहें भुनाया जाए — लेकिन ज़मीन पर कोई वास्तविक समर्थन न दिया जाए।

ग़ाज़ा के मुद्दे पर अरब शासकों की गिरगिट-नीति
इज़रायल के खिलाफ सबसे शर्मनाक चुप्पी मुस्लिम देशों की है। सऊदी अरब, यूएई, मिस्र और बहरीन जैसे देश, जिन्होंने इज़रायल से खुलकर समझौते कर रखे हैं, वे ग़ाज़ा पर बमबारी के वक्त “शांति” की अपील करके इज़रायल के साथ अपने कारोबारी रिश्तों को बचा रहे हैं। इनकी नीतियाँ यह दर्शाती हैं कि फ़िलिस्तीन उनके लिए अब केवल एक भावनात्मक नारा है, वास्तविक सरोकार नहीं। इनके राजघराने अपने तख़्तो ताज की हिफ़ाज़त के लिए इज़रायली हितों के साथ समझौता करने को तैयार हैं, भले ही इसके बदले में ग़ज़ा जलता रहे।

ब्रिटेन ने हाल ही में बयान दिया कि “ग़ाज़ा में पीड़ा की स्थिति अब असहनीय हो चुकी है”। परंतु क्या यह बयान पर्याप्त है? क्या यही पश्चिमी नेतृत्व की मानवीय ज़िम्मेदारी है कि वह केवल ‘असहनीय’ कहकर अपना पल्ला झाड़ ले?

यूरोपीय संघ की ‘चुनिंदा नैतिकता’
यूरोपीय संघ में अब यह आवाज़ उठ रही है कि “इज़रायल के साथ साझेदारी समझौते की पुनः समीक्षा की जाए।” यह मांग एक सकारात्मक शुरुआत हो सकती है, यदि इसमें वास्तविक इच्छाशक्ति हो। लेकिन अतीत का अनुभव बताता है कि यूरोप अक्सर बयानबाज़ी तक सीमित रहता है। वह इज़रायली उत्पादों पर प्रतिबंध नहीं लगाता, न ही उसके युद्ध अपराधों पर कोई ठोस कार्रवाई करता है। उलटे कई यूरोपीय देशों ने ग़ाज़ा में राहत भेजने वाले संगठनों पर ही निगरानी बढ़ा दी है। यह कैसी साझेदारी है जहाँ एक पक्ष बेगुनाहों का कत्लेआम करे और दूसरा सिर्फ “निंदा” करता रहे?

आज तथाकथित मुख्यधारा का पश्चिमी मीडिया इज़रायली बयानबाज़ियों को आँख मूँदकर दोहरा रहा है। ग़ाज़ा के बच्चों की लाशें, मलबे में दबे परिवार, और बमबारी की खौफनाक तस्वीरें ‘हमें’ कम दिखाई जाती हैं, और अधिक दिखाया जाता है कि “इज़रायल को सुरक्षा की ज़रूरत है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पश्चिमी मीडिया अपनी भूमिका निभा रहा है याइज़रायल के युद्ध अपराधों को वैधता दे रहा है?

यायर लैपिड का छलावा और युद्ध-विराम की ‘पारदर्शी चाल’
इज़रायल के विपक्षी नेता यायर लैपिड ने हाल ही में बयान दिया कि उन्होंने “युद्ध समाप्त करने की एक व्यापक योजना अमेरिका को सौंप दी है”। यह सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन इसका अर्थ वही है जो इज़रायल पिछले दशकों से करता आया है। पहले तबाही मचाओ, फिर ‘शांति योजना’ पेश करो, ताकि अंतर्राष्ट्रीय दबाव को कम किया जा सके और समय खरीदकर नए हमले की तैयारी हो सके।

इज़रायली राजनीति में शांति योजनाएँ दरअसल एक सैन्य रणनीति बन चुकी हैं, जिसका लक्ष्य दुनिया की आँखों में धूल झोंकना है। फिलिस्तीनियों के लिए इन योजनाओं का अर्थ होता है, कुछ और जमीन गंवाना, कुछ और अधिकार खो देना, और हर बार एक नया “स्थायी संघर्षविराम” जो कभी स्थायी नहीं होता। इज़रायल जो कर रहा है वह एक सुनियोजित नरसंहार है, और जो चुप हैं, वे उसके साझेदार हैं।

अमेरिका, जो स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और मानवाधिकारों का रक्षक मानता है, वह आज इज़रायल को हथियारों की आपूर्ति कर रहा है और वहीं दूसरी ओर ‘संयम’ और ‘शांति’ की अपील भी करता है। यह दोहरी नीति केवल और केवल इज़रायल के अपराधों को ढकने का एक तरीका है। अमेरिकी कांग्रेस के एक सदस्य ने सीनेटर मार्को रूबियो से पूछा, “ग़ाज़ा को मानवीय सहायता क्यों नहीं पहुँच रही?” यह सवाल इस पूरी त्रासदी के मूल में छिपे पाखंड को उजागर करता है।

ग़ाज़ा की सीमाओं पर चौकसी कर रही इज़रायली सेना ने खाने-पीने की सामग्री, दवाइयों, ईंधन और एंबुलेंसों तक को निशाना बनाया है। संयुक्त राष्ट्र की मानें तो 90% आबादी पीने के पानी से वंचित है, और अस्पतालों में ऑपरेशन तक नहीं हो पा रहे हैं।

ईरानी के परमाणु ठिकानों पर हमले की इज़रायली चाल

इज़रायल पर यूरोपीय देशों का दबाव लगातार बढ़ रहा है, अगरचे वह दबाव केवल बयानबाज़ी की हद तक ही सीमित है। यूरोप के कई देश हाल के हफ्तों में इज़रायल की नीतियों, खासकर ग़ाज़ा और फ़िलिस्तीन पर हो रहे हमलों के कारण उसकी आलोचना कर रहे हैं। कई यूरोपीय नेताओं ने खुलकर नेतन्याहू सरकार की निंदा की है। यह आलोचना भले ही कूटनीतिक बयानों तक सीमित हो, लेकिन इज़रायली नेतृत्व के लिए यह एक चिंताजनक संकेत है क्योंकि यह वैश्विक समर्थन में गिरावट का परिचायक है।

इस दबाव को कम करने के लिए नेतन्याहू ने एक नई चाल चलते हुए ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले की धमकी दी है। हालांकि, नेतन्याहू अच्छी तरह जानते हैं कि, ईरान और अमेरिका के बीच वार्ता अभी तमाम नहीं हुई है। अमेरिका ने ईरान को अगले दौर की वार्ता के लिए आमंत्रित भी किया है, लेकिन ईरान ने अभी तक कोई जवाब नहीं दिया। जब तक ईरान-अमेरिका वार्ता जारी है तब तक अमेरिका इज़रायल को हमले की इजाज़त नहीं देगा। ऐसे में इज़रायल द्वारा ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले की बात, केवल गीदड़ भभकी और यूरोपीय देशों के बयानों से ध्यान भटकाने की एक चाल है।

इज़रायल की इस नीति से यह साफ होता है कि वह केवल सैन्य शक्ति नहीं, बल्कि रणनीतिक प्रोपगैंडा के ज़रिए भी अपने विरोधियों को दबाने की कोशिश करता है। ईरान पर हमला करने की धमकी, केवल एक आक्रामक मुद्रा दिखाने का ज़रिया है, ताकि वह खुद को एक ‘रक्षात्मक’ और ‘ख़तरे में घिरा देश’ के रूप में पेश कर सके और यूरोपीय देशों की आलोचना से ध्यान भटका सके। इस पूरी स्थिति में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पश्चिमी मीडिया और वैश्विक ताकतें इस इज़रायली चाल को कितनी गंभीरता से लेती हैं और क्या वे इस प्रोपगैंडा से प्रभावित होती हैं या नहीं। भविष्य में यह तय करेगा कि क्या इज़रायल की “धमकी” वास्तव में कोई सैन्य कार्रवाई में बदलेगी या यह सिर्फ एक अस्थायी कूटनीतिक हथकंडा साबित होगी।

(यह लेखक के अपने विचार है, लेखक रिज़वान हैदर मिडिल ईस्ट मामलों के जानकार एवं पत्रकार है)

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