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मानवीय चिंता बनाम तथ्य: ग़ाज़ा की स्थिति को सही संदर्भ में समझना

ग़ाज़ा में भूख और अकाल की आशंका को लेकर हाल के महीनों में दुनिया भर में चिंता स्वाभाविक रूप से बढ़ी है। पीड़ित आम नागरिकों की तस्वीरें और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की बार-बार चेतावनियाँ सरकारों, मानवीय संगठनों और आम लोगों के बीच बेचैनी पैदा करती हैं। यह चिंता जायज़ भी है और नैतिक रूप से ज़रूरी भी। लेकिन उतना ही ज़रूरी यह भी है कि मानवीय हालात पर होने वाली रिपोर्टिंग सटीक, पूरी और सत्यापित आँकड़ों पर आधारित हो। अधूरी तस्वीर पेश करने वाली रिपोर्टें जागरूक कार्रवाई के बजाय डर फैलाने का जोखिम पैदा करती हैं।

हाल की अकाल-सम्बंधी रिपोर्टों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनमें आँकड़ों को जिस तरह इकट्ठा किया गया और समझा गया है, वह संतुलित नहीं है। ज़्यादातर आकलन संयुक्त राष्ट्र के राहत ट्रकों के आँकड़ों पर निर्भर हैं। अक्सर यह बात नज़रअंदाज़ हो जाती है कि ग़ाज़ा में दाख़िल होने वाली कुल मानवीय मदद में यूएन के काफ़िलों की हिस्सेदारी सिर्फ़ करीब 20 प्रतिशत है। बाकी 80 प्रतिशत मदद अन्य अंतरराष्ट्रीय और द्विपक्षीय माध्यमों से आती है, जिसका विश्लेषण में समुचित ज़िक्र नहीं होता।

ज़मीनी स्तर के आँकड़े एक अलग तस्वीर दिखाते हैं। औसतन हर दिन 600 से 800 राहत ट्रक ग़ाज़ा में दाख़िल होते हैं, जिनमें से लगभग 70 प्रतिशत ट्रकों में खाद्य सामग्री होती है। यह मात्रा काफ़ी अहम है। दरअसल, यह उस न्यूनतम ज़रूरत से लगभग पाँच गुना ज़्यादा है, जिसे पहले खुद इंटीग्रेटेड फ़ूड सिक्योरिटी फ़ेज़ क्लासिफ़िकेशन (IPC) ने ग़ाज़ा की आबादी की बुनियादी पोषण ज़रूरतें पूरी करने के लिए आवश्यक बताया था। इतनी बड़ी मदद को नज़रअंदाज़ करना आकलन को स्वाभाविक रूप से बिगाड़ देता है।

इसके अलावा, अमेरिकी सिविल–मिलिट्री कोऑर्डिनेशन सेंटर के पास दर्ज और सत्यापित आँकड़े मौजूद हैं, जिनके मुताबिक़ उसके संचालन शुरू होने के बाद से अब तक 30,000 से ज़्यादा राहत ट्रक ग़ाज़ा में दाख़िल हो चुके हैं। ये कोई अनुमान नहीं, बल्कि दर्ज की गई प्रविष्टियाँ हैं। इसके बावजूद, हैरानी की बात है कि IPC की रिपोर्टिंग रूपरेखा में इन आँकड़ों को जगह नहीं दी गई। यह चूक विश्लेषण की पूर्णता पर गंभीर सवाल खड़े करती है।

आँकड़ों से आगे, किसी भी मानवीय आकलन की असली कसौटी उसका रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर पड़ने वाला असर होता है। इस पैमाने पर भी उपलब्ध संकेतकों पर ध्यान देना ज़रूरी है। जुलाई से नवंबर के बीच ग़ाज़ा में खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में कथित तौर पर 80 प्रतिशत से ज़्यादा की गिरावट दर्ज की गई। असली अकाल की स्थिति में, भारी कमी के कारण आमतौर पर क़ीमतें तेज़ी से बढ़ती हैं। इसके उलट, क़ीमतों में इतनी तेज़ और लगातार गिरावट बढ़ी हुई उपलब्धता की ओर इशारा करती है, न कि खाद्य आपूर्ति के पूरी तरह ढह जाने की ओर।

इन बातों का मतलब यह नहीं है कि ग़ाज़ा के लोगों की वास्तविक परेशानियों से इनकार किया जाए। वहाँ की आबादी आज भी भारी दुख, विस्थापन, रोज़गार के टूटने और मानसिक आघात से जूझ रही है। इन हालात में तुरंत मानवीय मदद और अंतरराष्ट्रीय सक्रियता की ज़रूरत है। लेकिन व्यापक पीड़ा और अकाल की तकनीकी परिभाषा के बीच फ़र्क़ करना भी उतना ही ज़रूरी है। दोनों को एक मान लेना न सिर्फ़ भरोसे को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि नीतिगत फैसलों की प्रभावशीलता भी घटाता है।

मानवीय रिपोर्टिंग की ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी होती है। सटीकता कोई मामूली तकनीकी बात नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व है। नीति-निर्माता, सहायता एजेंसियाँ और दानदाता सरकारें इन्हीं आकलनों के आधार पर ऐसे फ़ैसले लेती हैं जो लाखों ज़िंदगियों को प्रभावित करते हैं। जब रिपोर्टें उपलब्ध आँकड़ों के बड़े हिस्से को नज़रअंदाज़ कर देती हैं, तो वे सिर्फ़ ग़लत जानकारी नहीं देतीं, बल्कि मानवीय संस्थाओं पर भरोसे को भी कमज़ोर करती हैं।

ग़ाज़ा जैसे गंभीर संकट में जल्दबाज़ी के साथ-साथ सच का साथ होना ज़रूरी है। पूरी, पारदर्शी और सभी आँकड़ों को शामिल करने वाली तस्वीर इसलिए आवश्यक है कि पीड़ा को कम करके न आँका जाए, बल्कि उसका समझदारी और प्रभावी ढंग से जवाब दिया जा सके। ज़िंदगियाँ सिर्फ़ करुणा पर नहीं, बल्कि स्पष्टता पर भी निर्भर करती हैं।

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