जो कांग्रेस हालिया समय में मुसलमानों की हमदर्द बनने का ढोंग कर रही है उसी के शासन काल में बिहार के भागलपुर में 24 अक्टूबर 1989 को वो बदतरीन दंगा हुआ जिसने हजारों परिवारों की जिंदगियों को लील लिया था।
अक्टूबर महीने में एक जुलूस निकला, रामशिला जुलूस। जुलूस के रूट पर प्रशासन ने मुहर लगाई और पुलिस का एक बड़ा दस्ता जुलूस के साथ में था। 24 तारीख को तय वक्त पर जुलूस निकला और जुलूस मुस्लिम बहुल तातारपुर इलाके में पहुंचा। कहते हैं कि जुलूस ने वहां पर भड़काऊ नारे लगाए। ‘बच्चा-बच्चा राम का, बाकी सब हराम का’ कि तभी दो समूहों में कहासुनी होने लगी और इसके बाद तुरंत दंगा शुरू हो गया।
शाम तक अफ़वाह फैल गई कि हिंदुओं को मारा गया है। किसी ने कहा, परवत्ती में एक कुएं के अंदर लाशें मिलीं हैं, टुकड़ों में कटी हुईं। इस एक अफ़वाह ने चिंगारी में घी का काम किया और पूरे इलाक़े में दंगा भड़क गया। दो महीने तक भागलपुर जिले में बेहिसाब हिंसा हुई। सैकड़ों लोग मारे गए, 50,000 से ज्यादा लोग बेघर हुए। 250 के आसपास गांवों पर हिंसा ने असर डाला। 27 तारीख को दंगा रोकने के लिए सेना बुलाई गई, बीएसएफ को भी बुलाया गया।
बिहार के भागलपुर जिले में लौगांय गांव पड़ता है। उस रोज़ इस गांव में एक खेत खोदा गया। खेत में लहलहाती गोभी उग रही थी लेकिन खेत गोभी के लिए नहीं खोदा गया था। वहां छोटे-छोटे लाल रिबन निकले थे, बच्चों के बालों में लगाए जाने वाले। रिबन के साथ सर भी थे और शरीर भी। कुछ और जगहों से भी लाशें निकल रही थी। कुल 110 लाशें थी, इनमें 52 छोटे-छोटे बच्चे भी थे। लौगांय में 25 परिवार रहते थे, 4000 की दंगाई भीड़ ने लगभग सभी को मार डाला था।
पहले लाशों को एक तालाब में डाला गया, जब लाशों की बदबू तेज़ होने लगी तो उन्हें निकाल कर अलग-अलग जगह गाड़ दिया गया। कुछ को एक खेत में दफ़ना के ऊपर से गोभी के बीज डाल दिए गए। और ये मंजर सिर्फ़ लौगांय का नहीं था। दो महीनों तक भागलपुर में चले इन दंगों में हज़ार से ज़्यादा लोगों की जान चली गई थी और ये आंकड़ा भी सिर्फ़ सरकारी है।
जांच रिपोर्टों ने पाया कि न केवल पुलिस दंगे रोकने में पूरी तरह नाकामयाब रही, बल्कि कई मौकों पर पुलिस ने दंगाइयों की मदद की। शिकायत मिलने पर भी आंख मूंदकर बैठे रहे। कई ऐसे मौके आए जब स्थानीय पुलिस ने सेना और बीएसएफ को गुमराह किया और जान-बूझकर उन्हें भटकाया था।
दंगों का एक असर ये हुआ कि बिहार से कांग्रेस का सफ़ाया हो गया। मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा बड़े कद के नेता थे लेकिन दंगों के बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। कांग्रेस ने डैमिज कंट्रोल करने की कोशिश की और सिन्हा की जगह ललित नारायण मिश्र के छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र को CM बनाया गया।
कांग्रेस को लगा कि इतने भर से मुसलमान उसे माफ कर देंगे मगर ऐसा नहीं हुआ। मुस्लिम कांग्रेस का परंपरागत वोटर था मगर इस दंगे के बाद स्थितियां बदल गईं।
(यह लेख अंसार इमरान ने लिखा है, लेखक रिसर्चर है)