कोरोना महामारी के संकट के बीच कल यानी रविवार को बंगाल समेत पांच राज्यों में वोटों की गिनती हुई। जिस राज्य की चर्चा सबसे ज़्यादा रही वो था पश्चिम बंगाल। पश्चिम बंगाल में सबकी निगाहें टिकी हुई थी कि आखिर यहां किसकी सरकार बनती है। हो भी क्यों न, मौजूदा समय में देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने बंगाल के चुनाव में अपना सब कुछ झौंक दिया था। भाजपा की बेचैनी और जीतने की लालसा जा अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि जब देश में कोरोना महामारी का प्रकोप चरम पर था तब भी भाजपा तमाम नियमों की अनदेखी कर चुनाव प्रचार में लगी हुई थी।
तमाम कोशिशों के बावजूद भी भाजपा बंगाल जीतने में नाकाम रही। ममता बनर्जी ने भारी बहुमत से चुनाव जीत लिया है। हालांकि ममता बनर्जी खुद जिस सीट से चुनाव लड़ रही थी वो सीट बचाने में नाकामयाब रही लेकिन उनकी पार्टी ने 210 से ज़्यादा सीटें जीत कर ये साबित कर दिया कि बंगाल की बादशाहत अभी उन्ही के सिर है।
तमाम पैंतरे अपनाने के बावजूद भी भाजपा 100 सीट भी नहीं जीत सकी। भाजपा 77 सीटें ही जीत पाई जो कि बहुमत के आंकड़े का आधा मात्र है। हालांकि भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ा ज़रूर है लेकिन वे ममता के वोटों में सेंध नहीं लगा सकी।
आईये हम जानते हैं उन पांच प्रमुख कारणों को जिनके कारण ममता बंगाल फतेह करने में कामयाब रहीं।
1. बंगाल का सेक्यूलर और उदार कल्चर
इसमें कोई दोराय नहीं कि भाजपा की राजनीति की गाड़ी साम्प्रदायिक धुर्वीकरण के कारण चल रही है। इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि भाजपा हिंदी भाषी क्षेत्र के उन्हीं राज्यों में अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई है जहां का माहौल ज़्यादा साम्प्रदायिक है। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार और गुजरात ही वो राज्य हैं जहां से भाजपा को ज़्यादा वोट मिलते हैं। वहीं अगर हम दक्षिण भारत को देखें तो उधर भाजपा की स्तिथि कुछ ज़्यादा अच्छी है नहीं।
इन हिंदी भाषी राज्यों के मुकाबले में पश्चिम बंगाल व्यवहारिक रूप से ज़्यादा सेक्यूलर है। ऐसा नहीं है कि बंगाल के लोग धर्म के प्रति रूचि नहीं रखते हैं। चाहे वो हिन्दू धर्म के लोग हों या फिर मुस्लिम धर्म के लोग दोनों धर्मों के लोग अपने अपने धर्म में गहरी रूचि रखते हैं।
आपने सुना भी होगा कि बंगाल का दुर्गापूजा बहुत मशहूर है। इन सब के बावजूद भी बंगाल में आपको आपसी भाईचारा देखने को मिलेगा।
यही कारण है कि बंगाल में भाजपा की साम्प्रदायिक धुर्वीकरण की राजनीति कामयाब नहीं हो पाई।
लव जिहाद जैसे मुद्दों का भी नकारात्मक असर बंगाल में पड़ा, क्योंकि बंगाल का कल्चर शुरू से ही काफी उदार रहा है। इस तरह की संकीर्ण सोच वाली राजनीतिक दल बंगाल के कल्चर को काफी नुकसान पहुंचा सकता था। इसका अंदाज़ा बंगाल के वोटरों को पहले ही हो गया था।
2. ममता बनर्जी का व्यक्तित्व या उनका व्यक्तिगत प्रभाव
इसमें कोई दोराय नहीं है कि ममता बनर्जी का व्यक्तिगत प्रभाव और उनके आक्रमक रवैये का खासा प्रभाव इस चुनाव में देखने को मिला है। एक तरफ मोदी जैसे कद्दावर नेता और दूसरी तरफ ममता का सीधा सीधा मुकाबला देखने को मिला और बंगाल के लोगों ने ये साबित कर दिया कि बंगाल के लिए ममता ही बेहतर हैं।
आगर हम ममता बनर्जी की राजनीतिक जीवन को देखें तो वो भी बहुत प्रभावशाली रहा है। अपने छात्र जीवन से ही सक्रिय राजनीति करती आरही हैं। बंगाल के लिए एक योद्धा के रूप में देखी जाती हैं।
उनके व्यक्तिगत जीवन का भी काफी असर चुनाव में देखने को मिला है। ममता बनर्जी उन चुनिंदा नेताओं में से हैं जो बहुत ही सादा जीवन जीती हैं। आपने उनको हमेशा ही एक सफेद साड़ी में देखा होगा। साधारण गाड़ी में चलती हैं। और हमेशा जनता के बीच रहती हैं। कहीं भी कभी भी पहुंच जाती हैं बिल्कुल एक आम नागरिक की तरह।
बंगाल में मुश्किल से ही कोई ऐसा इंसान मिलेगा जो व्यक्तिगत रूप से दीदी को पसंद न करता हो। और ये एक बहुत बड़ा कारण रहा है कि बंगाल में ममता को भारी बहुमत से जीत हासिल हुई है।
3. प्रशांत किशोर जैसे दिग्गज राजनैतिक सलाहकार का साथ
आज के समय में प्रशांत किशोर को कौन नहीं जानता है। उनके बारे में ये कहा जाता है कि सत्ता की चाभी उन्ही के हाथों से होकर किसी नेता तक जाती है। 2014 के बाद से ही प्रशांत किशोर विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए काम कर चुके हैं और उनको सत्ता तक पहुंचा चुके हैं। चाहे वो केजरीवाल हो या नीतीश कुमार। कई दिग्गज नेताओं को अपने राजनीतिक समझ के कारण सत्ता तक पहुंचा चुके हैं।
इस बार वे ममता बनर्जी के लिए काम कर रहे थे और उन्होंने ममता को सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका अदा की है।
एक समय ऐसा था जब ममता बनर्जी चुनावी सभाओं में भी अपना आपा खो देती थीं, अनाप शनाप बोल देती थी। कार्यकर्ताओं को पब्लिक के सामने डांट देती थी। लेकिन प्रशांत किशोर ने उनके इस आक्रमक रवैये को बदला और उनको शांत और शालीन रहना सिखाया।
इसका काफी असर उनके बाद के चुनावी रैलियों में भी देखने को मिला और इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा।
ममता बनर्जी का चुनावी सभा में चंडी पाठ पढ़ना और मंदिर जा कर भगवान के दर्शन करना भी प्रशांत किशोर के राजनीतिक स्ट्रैटजी का हिस्सा था। जिसका काफी फायदा चुनाव में देखने को मिला।
4. किसान आंदोलन और कोरोना महामारी को नहीं संभाल पाने के कारण भाजपा का पतन
पिछले एक साल से कोरोना न सिर्फ देश के लिए खतरनाक साबित हो रहा है बल्कि भाजपा के लिए भी काल बनकर आया है। कोरोना महामारी का दूसरा वेव खतरनाक रूप ले चुका है जिसने भाजपा की राजनीति का पर्दाफाश कर दिया। संक्रमण को रोकने में नाकाम मोदी सरकार की अव्यवस्था ने भाजपा की परंपरागत साम्प्रदायिक राजनीति से लोगों का ध्यान हटाया। लोगों के अंदर अस्पताल और बुनियादी सुविधाओं के प्रति जागरूकता पैदा हुई। जिसका नुकसान भाजपा को बंगाल चुनाव में झेलना पड़ा।
भाजपा की हार एक प्रमुख कारण किसान आंदोलन भी रहा है। पिछले एक सालों में भाजपा सरकार का तानाशाही रवैया आंदोलन में बैठे किसानों के प्रति रहा है उसका भी खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा है। चाहे वो किसानों की मांगों को नहीं मानना हो या फिर आंदोलनकारी किसानों को बदनाम करने की सरकार की कोशिश हो। इसका भी असर बंगाल की जनता पर पड़ा है। राकेश टिकैत का बंगाल जाकर भाजपा के खिलाफ रैली करना भी ममता के लिए बहुत फायदेमंद रहा।
5. मुस्लिम वोटों का बंटवारा न होना
पांचवां और सबसे अहम कारण है मुस्लिम समुदाय का एक मुश्त वोट ममता बनर्जी के खाते में जाना। चुनाव से पहले ये कयास लगाए जा रहे थे कि असदुद्दीन ओवैसी और अब्बास सिद्दीकी की पार्टी बंगाल में ममता बनर्जी का खेल बिगाड़ सकती है। लेकिन वहां के मुसलमानों ने समझदारी दिखाते हुए एक तरफा ममता बनर्जी का साथ दिया। एक अनुमान के अनुसार मुसलमानों का 80 फीसदी वोट ममता बनर्जी को मिला है। यही कारण है कि बंगाल से ममता बनर्जी की पार्टी TMC से 41 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब हुए हैं।