Journo Mirror
सम्पादकीय

किसान आंदोलन में पांच लाख नहीं बल्कि 1 अरब लोग भी इकट्ठे हो जाएं तो भी उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने से कोई नहीं रोक सकता

“मुसलमानों के सिवा अखिलेश यादव के पास बचा कौन है? बीजेपी अयोध्या में राम मंदिर बनवा रही है। अगर अखिलेश यादव और मायावती हिंदुओं का वोट लेना चाहते/चाहती हैं तो अखिलेश वादा करें वो ‘मथुरा’ की मस्जिद तोड़कर मंदिर बनवाएंगे और मायावती वादा करें सरकार बनने के बाद ‘बनारस’ की मस्जिद तोड़कर मंदिर बनवाएंगी। तब उन्हें हम (हिन्दू) वोट देंगे। अगर बीजेपी सरकार में नहीं आती तो हमें (हिंदुओं) भी वैसे ही देश छोड़कर जहाज़ के चक्के पर बैठकर भागना पड़ता जैसे अफ़ग़ानिस्तान के लोग भाग रहे हैं”।

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के किसी गांव की अभी एक वायरल वीडियो देख रहा था। जिसमें एक महिला पत्रकार गांव के सैकड़ों लोगों को इकट्ठा करके उनसे आगामी उत्तर प्रदेश 2022 के असेंबली इलेक्शन पर सवाल कर रही थी। उस भीड़ में बैठा एक शख़्स ऊपर लिखी बात को कह रहा था।

इसमें बहुत ज़्यादा कोई हैरत वाली बात नहीं है। हो सके उसकी कहीं हुई बातों को पढ़कर आपको हंसी आये। आप इसको मज़ाक़ में उड़ा दें लेकिन दरअसल यही हक़ीक़त है। जिसे हम क़बूल नहीं करना चाहते हैं। अक्सरियत में जिसकी अक्सरियत है वो यही चाहता है और उसी अक्सरियत की इस मुल्क पर हुकूमत है।

जिस अक्सरियत ने बाबरी मस्जिद पर आतंकी हमले करके हमारी मस्जिद को शहीद किया था। जो गाय, दाढ़ी, टोपी, जय श्रीराम के नाम पर मुसलमानों की लिंचिंग करता है। जो मुस्लिम मुक्त भारत बनाना चाहते हैं। इसी अक्सरियत को नाम-निहाद सेक्युलर, लिब्रल दोग़लों की जमाअत ‘मुट्ठीभर’ कहकर उनका बचाव करती आयी है। जबकि मैं बार बार कहता हूं वह अक्सरियत हैं मुट्ठीभर नहीं हैं। बल्कि सच ये है कि देश में अदल-इंसाफ़ पर अड़े रहने वाले लोग मुट्ठीभर हैं।

आपको लगता है किसान आंदोलन में इकट्ठी हुई पांच लाख की भीड़ इस सोच को तोड़ पाएगी? किसान आंदोलन में पांच लाख नहीं बल्कि 1 अरब लोग भी इकट्ठे हो जाएं तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनने से कोई रोक नहीं सकता। उस किसान आंदोलन में शामिल लोग भी भाजपा को वोट करेंगे।

क्या कोरोना काल में आपने नहीं देखा भूके, प्यासे, नंगे पांव मज़दूर, ग़रीब-बेबस लोग जब शिद्दत वाली धूप में सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घरों को जा रहे थे तब देशभर में जगह जगह मुसलमान रोज़ा रखकर उनकी मदद कर रहा था। खुद भूक-प्यास में अटे मुस्लिम नौजवान तपती धूप में सड़कों पर निकलकर उनकी मदद कर रहे थे। भूले तो नहीं हैं न?

उन प्रवासियों में क़सीर तअदाद बिहार-यूपी के लोगों की थी। लेकिन जब उसी बिहार में कुछ ही महीने बाद असेंबली इलेक्शन हुआ था तो भाजपा प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। क्या बिहार में भाजपा को वोट देने वाले लोग आसमान से नाज़िल हुए थे? जी नहीं ये वही लोग थे जो कोरोना काल में भूक-प्यास से सड़कों पर गिर-पड़ रहे थे, जिनकी मौतें हो रही थीं।

अक्सरियत इस इलेक्शन को अवाम/अपनी ज़रुरियाती मुद्दों से जोड़कर नहीं देख रही है। बल्कि अक्सरियत को देश में होने वाला हर इलेक्शन ‘हिन्दू धर्म’ का युद्ध लग रहा है। उन्हें ना महंगाई से मतलब है, ना पेट्रोल-डीज़ल से मतलब है, ना ही उन्हें ऑक्सीजन से मरने वाले हज़ारों लोगों की अम्वात याद रहने वाले हैं। ना उन्हें सड़क, बिजली, पानी, हस्पताल से मतलब है। ना उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, स्कूल-कॉलेज और ना बेरोज़गारी से मतलब है। उन्हें मतलब है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ इस बात से कि मुसलमान पिटता रहे, मुसलमानों की लिंचिंग होती रहे, मुसलमान जय श्रीराम बोलता रहे, मुसलमान दाढ़ी ना रखे, मुसलमानों के धार्मिक स्थलों, ईबादतगाहों पर हमले होते रहें। वग़ैरह, वग़ैरह।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक शाहनवाज अंसारी सोशल एक्टिविस्ट हैं)

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