गुजरात हाईकोर्ट ने 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले में सोमवार को तीन दोषियों को बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि पहचान परेड नहीं कराए जाने और अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत गवाह की गवाही में खामियों के कारण दोष सिद्ध नहीं हो सका है।
न्यायमूर्ति गीता गोपी की एकल पीठ ने 2006 में दोषी करार दिए गए सचिनभाई हसमुखभाई पटेल, अशोकभाई जशभाई पटेल और अशोक बनारसी भरतभाई गुप्ता की अपीलों को स्वीकार करते हुए उन्हें दोषमुक्त करार दिया।
अदालत ने स्पष्ट किया कि आरोपियों की पहचान परेड (TIP) नहीं कराई गई थी, और अभियोजन पक्ष के मुख्य गवाह (PW3) ने यह नहीं बताया कि उन्होंने आरोपियों को कैसे पहचाना। इसके अलावा, गवाह यह भी स्पष्ट नहीं हो सका कि 100 से अधिक लोगों की भीड़ में किसने क्या किया।
कोर्ट ने कहा, “जब आरोपी गवाह के लिए अजनबी हो और कोई पहचान परेड न हो, तो केवल कोर्ट में की गई पहचान पर्याप्त नहीं मानी जा सकती।”
उच्च न्यायालय ने जोर देकर कहा कि सिर्फ भीड़ में मौजूद होना गैरकानूनी जमावड़े (IPC धारा 149) के तहत आपराधिक ज़िम्मेदारी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है। प्रत्येक आरोपी की व्यक्तिगत भूमिका और मंशा का स्पष्ट प्रमाण आवश्यक है।
अदालत ने टिप्पणी की, “PW3 ने यह नहीं बताया कि उसने आरोपियों को कैसे पहचाना या उनमें से किसने दुकान जलाने में क्या भूमिका निभाई।” कोर्ट ने आगे कहा कि यदि आरोपियों पर घातक हथियारों से लैस होकर दंगा करने का आरोप है, तो गवाह को हथियारों की पहचान भी करनी चाहिए थी।
आपको बता दें कि, यह मामला 1 मार्च 2002 को गुजरात के आणंद जिले के लोटिया बागोद इलाके में हुए दंगों से जुड़ा है। अभियोजन के अनुसार, आरोपी एक भीड़ का हिस्सा थे जिसने स्थानीय दुकानों को आग के हवाले कर दिया था। इन पर IPC की धाराओं 143, 147, 148 और 149 के तहत आरोप लगाए गए थे।
2002 के गुजरात दंगों में, गोधरा कांड के बाद वीएचपी, आरएसएस और भाजपा से जुड़ी हिंदू भीड़ ने मुसलमानों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा की थी, जिसमें लगभग 3,000 मुसलमानों की हत्या, 20,000 से अधिक घरों और व्यवसायों की तबाही और 360 से ज्यादा मस्जिदों का विध्वंस हुआ था।
इस हिंसा को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी गंभीर आरोप लगे थे, जिनमें कहा गया था कि उन्होंने पुलिस को पीछे हटने के निर्देश दिए, जिससे दंगाइयों को खुली छूट मिल गई।