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क्या मुनव्वर राना होना आसान हैं?: वसीम अकरम त्यागी

मुनव्वर राना, उर्दू अदब का एक ऐसा नाम जिसने अपनी शायरी से नई राहें चुनीं, उनकी शायरी में महबूब के हुस्न के क़सीदे नहीं बल्कि समाज के उन मुद्दों ने जगह पाई जिनके बारे में शायरी में बात ही नहीं पा रही थी। उनकी शायरी में महबूब की ज़ुल्फों की तारीफें नहीं बल्कि कान छिदवाती ग़रीबी ने जगह पाई।

मुनव्वर राना ने अपनी शायरी में लफ्ज़-ए- मां का इस्तेमाल कर उर्दू ग़ज़ल को एक नया विषय दे दिया, और फिर यूं हुआ कि हर शायर ने इसे प्रयोग किया। मां पर लिखे गए उनके अशआर ने उन्हें एक अलग पहचान दिलाई। हालांकि शुरूआत में इस नई राह बनाने के लिए मुनव्वर राना की आलोचना भी हुई तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि जब एक मामूली शक्ल की औरत मेरी महबूबा हो सकती है तो फिर मेरी महबूब वो मां क्यों नहीं हो सकती जिसने मेरी पैदाइश में ख़ुदा का किरदार अदा किया है।

मोहब्बत करते जाओ बस यही सच्ची इबादत है
मोहब्बत मां को भी मक्का मदीना मान लेती है।

यह मुनव्वर राना के कलम का ही कमाल था, जिसने उर्दू ग़ज़ल में मां जैसे अज़ीम ओहदे को लाकर स्थापित कर दिया। उन्होंने अपनी शायरी से समाज और सियासत को जैसा आईना दिखाया है, उसने उन्हें बड़ा शायर बनाकर, उन महान शायरों की क़तार में शामिल कर दिया जिनकी लिखे अशआर इंक़लाब को जन्म देते हैं। मुनव्वर को पढ़ते हुए हबीब जालिब, साहिर, लुधियानवी, फैज़ अहमद फैज़, क़तील श़िफ़ाई जैसे महान शायरों की याद आती है। उत्तर प्रदेश के रायबरेली में पैदा हुए मुनव्वर राना ने कलकत्ता में परवरिश पाई, उन्होंने सिर्फ बी.कॉम तक ही पढ़ाई की।

उन्होंने शायरी को पेशा नहीं बनाया, बल्कि शायरी को समाज के आईने के तौर पर अवाम की अदालत में रख दिया। खेत, खलिहान, घर, आंगन, इंसानी ज़िंदगी से वाबस्ता ऐसा ऐसा शायद ही कोई विषय रहा हो जिस पर मुनव्वर राना ने अशआर ना लिखे हों। कुछ लोग मुनव्वर राना को सिर्फ इसलिए जानते हैं, कि उन्होंने मां पर अशआर लिखे हैं, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। मुनव्वर राना ने समाज के हर उस मसले पर अशआर कहे हैं, जिससे इंसानी ज़िंदगी दोचार होती है।

सांप्रदायिकता, सियासत की चालाकियां, सियासी साज़िशें, शहरों की मतलबपरस्त ज़िंदगी, और गांव की रवादारी इन सबको मुनव्वर राना ने अपनी शायरी में जगह देकर एक अलग मुक़ाम हासिल किया। जब उन्होंने कहा-

तुम्हारे शहर में मैय्यत को सब कांधा नहीं देते
हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं।

शहर और गांव की ज़िंदगी की यह एक ऐसी सच्चाई है, जिससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। मुनव्वर ने इसे शायरी में ढ़ाला, और आसान अल्फ़ाज़ में गांव और शहर की जीवन शैली को सबके सामने रख दिया। और सिसायत! मुनव्वर राना को पढ़कर लगता है कि उनकी सियासत के साथ कभी निभ ही नहीं सकती। अपनी शायरी से उन्होंने जिस तरह सियासत पर हमले किये हैं, वे बताते हैं कि शायरी, भटकी हुई सियासत को रास्ता तो ज़रूर दिखा सकती है लेकिन उसके साथ नहीं चल सकती।

शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती
मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊं।

ये संसद है, यहां आदाब थोड़े मुख़्तलिफ होंगे
यहां जम्हूरियत झूठे को सच्चा मान लेती है।

सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है,
कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है!
ग़लत बाज़ार की जानिब चले आए हैं हम शायद
चलो संसद में चलते हैं, वहां भी सेल लगती है।

इस तरह के अशआर मुनव्वर राना ने मुशायरे के मंच से अवाम की अदालत में रखे तो उन्हें हाथों हाथ लिया गया। तालियों की गड़गड़ाहट, और वाह-वाह की आवाज़ों ने बता दिया कि यह शायर अवाम के दिल दिमाग़ में पल रहे सवालों को ज़ुबां दे रहा है।

मुनव्वर राना के कलम का कमाल है कि उन्होंने मामूली अल्फाज़ को उठाकर ऐसी ग़ज़ल लिख दी जो मुहावरा बन गई। जब उन्होंने लिखा

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में आई।
ज़रा सी बात है लेकिन हवा को कौन समझाए
दीये से मेरी मां, मेरे लिए काजल बनाती है।

एक वक्त था जब अक्सर महिलाएं अपने बच्चों के लिए दीये से काजल तैयार किया करती थीं। लेकिन जब मुनव्वर राना ने इस शायरी में जगह दी, तो श्रोताओं को लगा कि यह तो उनके ही घर की सच्चाई बताई जा रही है, इससे मुनव्वर राना अवाम के और क़रीब होते चले गए। अवाम को भी लगा कि इस शायर की शायरी वाक़ई अलग है, यह शायरी सिर्फ कल्पनाओं का समुंद्र नहीं है, बल्कि इंसानी जिंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त है। समाज में बढ़ती सांप्रदायिकता की मुनव्वर राना ने हमेशा पुरज़ोर मुख़ालिफ़त की, जब उन्होंने लिखा

ये देखकर पतंगें भी हैरान हो गईं
अब तो छतें भी हिंदू मुसलमान हो गईं।

इस तरह की शायरी से उन्होंने सांप्रदायिक ताक़तों, और उनकी बातों में आकर सांप्रदायिक कोढ़ से ग्रस्त हो जाने वाले लोगों को बताने की कोशिश की, सांप्रदायिकता समाज के लिये कितना ख़तरनाक होती है। मुनव्वर सिर्फ यहीं नहीं रुके बल्कि इससे भी आगे जाकर उन्होंने लिखा-

कहीं मंदिर कहीं मस्जिद की तख्ती हम लगा बैठे
बनाना था हमें इक घर मगर क्या हम बना बैठे।
परिंदों में नहीं होती है, ये फिरकापरस्ती क्यों?
कभी मस्जिद पे जा बैठे, कभी मंदिर पे जा बैठे।

ऐसी अशआर लिखर उन्होंने साबित कर दिया कि समाज में सांप्रादियकता फैलाने वाले इंसानों को कमसे बेज़ुबान परिंदों से ही सीख लेना चाहिए। मुनव्वर अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका लेखन इतना प्रासंगिक है कि जब तक समाज में, ग़रीबी, लाचारी, बेबसी, जैसे अल्फाज़ का वजूद है तब तक मुनव्वर राना प्रासंगिक रहेंगे। भारत के बंटवारे पर विस्थापन के दर्द को बयां करती उनकी ‘मुहाजिरनामा’ बताती रहेगी, कि जब बंटवारा सिर्फ ज़मीन का नहीं होता, बल्कि रिश्तों का भी होता है, और रिश्तों में भी सिर्फ इंसानी रिश्तों का ही नहीं, शहर, गांव की पगडंडियों के रिश्तों, खेत खलिहान से जुड़ों रिश्तों का भी बंटवारा होता है, और जब यह बंटवारा होता है तो ज़िंदगी दर्द के समुंद्र में नहा जाती है। मुनव्वर राना की शायरी सियासत से समाज को मिले ज़ख्मों पर मरहम तो नहीं रखती, लेकिन कमसे कम करार ज़रूर देती है।

अब मुनव्वर राना हमारे बीच नहीं हैं, उनके लिखे अशआर, उनका लेखन समाज को रास्ता दिखाता रहेगा। जब-जब मुनव्वर राना को पढ़ा जाएगा तो खुद अहसास हो जाएगा कि मुनव्वर राना होना आसान नहीं है। शायद यह बात वह खुद भी जानते थे, इसीलिये तो खुद ही गए।

बादशाहों को सिखाया है क़लंदर होना
आप आसना समझते हैं मुनव्वर होना।

अपनी शायरी, अपनी बेबाक, हक़बयानी से सियासत और समाज को आईना दिखाने वाले इस सदी के महान शायर मुनव्वर राना को नम आंखों से विदाई।

(यह लेखक के अपने विचार हैं, लेखक वसीम अकरम त्यागी स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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