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भारत सम्पादकीय

मुसलमान अपनी समस्याओं के साथ-साथ सामान्य मानवीय मुद्दों पर भी बात करें

हालात हमेशा एक जैसे नहीं रहते और हमारा देश तो कई सौ साल में कई रंग देख चुका है। मुग़ल सल्तनत के पतन के बाद ब्रिटिश राज और उसके बाद तहरीके-आज़ादी और फिर जश्ने-आज़ादी। आज़ाद भारत में हर दस साल बाद देश के हालात बदलते रहे और अब तो हर दिन बदल रहे हैं। यही देश है जहाँ हर व्यक्ति को हर तरह की आज़ादी थी, मर्ज़ी का खाना खाया जाता था, अपनी पसंद के ख़ुदा की इबादत की जाती थी।

यही देश है जहाँ अब फासीवाद ने कुछ तबक़ात की आज़ादी पर रोक लगा दी है और लोग अपनी मर्ज़ी से हँस भी नहीं सकते। बदलते हुए हालात में जो क़ौमें अपने काम करने के तरीक़े को भी बदल लेती हैं वो हालात का बेहतर तौर पर सामना करती हैं और जो क़ौमें जोश और जज़्बात में आकर बे-हिकमती का रास्ता अपनाती हैं वो पतन का शिकार होती हैं। बदक़िस्मती से भारतीय मुसलमानों की गिनती दूसरे क़िस्म की क़ौम में होती है।

मुझे लगता है कि अफ़गानिस्तान की स्थिति पर हमारे बड़ों ने जिस जल्दबाज़ी के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त की है, वह ठीक नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों के बजाय देश में प्रतिदिन कितनी ही ऐसी घटनाएं होती हैं जिन पर हम अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं या हमें उन पर विचार व्यक्त करने चाहिए। सारी दुनिया के मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं। उनका यह रिश्ता ईमान की बुनियाद पर क़ायम है। इसी रिश्ते की बुनियाद पर सारी दुनिया के मुसलमान अपने ईमानी भाइयों की ख़ुशी और ग़म को महसूस करते हैं और उसका इज़हार करते हैं। यही कुछ सूरते-हाल अफ़ग़ानिस्तान की भी है।

तालिबान की वतन वापसी और अपने देश की हुकूमत पर कंट्रोल हासिल करने के बाद हिन्दुस्तानी मुसलमानों को भी ख़ुशी हुई है। हालाँकि यह ख़ुशी तालिबान की वापसी पर कम और अमेरिका की हार पर ज़्यादा थी। लेकिन भारतीय मीडिया को कुछ मुसलमानों का ये ख़ुशी का इज़हार भी पसंद न आया और उसने सारे मुसलमानों पर ही ताने कसने शुरू कर दिये। हालाँकि भारतीय मीडिया और साम्प्रदायिक राजनेताओं का यह रवैया संविधान और नैतिकता के मुताबिक़ नहीं है।

जिस देश के लोग किसी दूसरे देश में मेयर और गवर्नर बनने पर ख़ुशी का हक़ रखते हों, उन्हें दूसरों को भी यह हक़ देना चाहिये कि वे अपने ईमानी भाइयों की ख़ुशी और ग़म में अपने जज़्बात शामिल कर सकें। मगर जब देश के हालात इतने ख़राब हों कि हमारी आह भी रुसवाई की वजह बन जाए तो हिकमत का तक़ाज़ा यह है कि हम भी अपने जज़्बात को शब्दों में बयान करने से बचें। कम से कम विचार व्यक्त करने में सब्र से काम लें।

मुझे यक़ीन है कि यही भारतीय मीडिया एक दिन देश में तालिबान हुकूमत के ज़िम्मेदारों का स्वागत करेगा। इसी देश में दस साल पहले सद्दाम हुसैन के हक़ में हमने रैलियाँ और जुलूस निकाले और उनके लिये दुआएँ माँगी और हमें किसी क़िस्म की परेशानी नहीं हुई। इसलिये कि उस वक़्त देश में साम्प्रदायिक ताक़तें हुकूमत में नहीं थीं, पत्रकारिता पर गोदी मीडिया की ग़िरफ़्त नहीं थी।

मैं समझता हूँ कि मौजूदा हालात में हमें अपने देश और समाज के इशूज़ पर तो ज़रूर संविधान के मुताबिक़ अपने विचारों को व्यक्त करना चाहिये, लेकिन किसी दूसरे देश के हालात पर टीका-टिप्पणी से बचना चाहिये, ख़ास तौर से सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टों से बचना चाहिये जिससे बुराई पैदा करने वालों को मौक़ा हाथ आए। यह हमारे लिये ज़रूरी नहीं है कि हम हर घटना पर ज़रूर कुछ बोलें या अपना पक्ष रखें।

मुसलमानों के बारे में आमतौर पर कहा जाता है कि उन्हें केवल अपने मुद्दों में ही दिलचस्पी होती है और वो भी भावनात्मक मुद्दों में। उन्हें सामान्य मानवीय मुद्दों में कोई दिलचस्पी नहीं है। हमारी यह छवि इसलिए बनती है क्योंकि हम केवल अपने मुद्दों को उठाते हैं। यह इस हद तक सच है कि हर क़ौम अपने मुद्दों को उठाती है। अगर मुसलमान अपने मुद्दों को उठाते हैं तो कुछ भी ग़लत नहीं है। लेकिन ख़ैर-ए-उम्मत के रूप में, हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम दूसरे लोगों के मुद्दों या आम मानवीय मुद्दों पर बात करें।

उदाहरण के लिए, देश में महंगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार हर दिन नए रिकॉर्ड बना रहे हैं। लेकिन हमारी तरफ़ से कोई आवाज़ नहीं आती। हर हफ़्ते कोई न कोई लड़की रेप के बाद मारी जा रही है, लेकिन हमारी आवाज़ उतनी ज़ोर से नहीं सुनी जा रही, जितनी होनी चाहिए। ख़ासतौर पर हमारे धार्मिक संगठन चुप रहते हैं। जबकि मुस्लिम होने के नाते यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम इसके ख़िलाफ़ लिखें, प्रदर्शन करें, सोशल मीडिया पर सक्रिय रहें।

ऐसा मत सोचिए कि आपकी आवाज़ केवल एक आवाज़ है। यह हमारी आवाज़ सदा बा-सहरा साबित होगी। राम भक्त गोपाल, जिसने जामिया मिलिया के प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई और बाद में हरियाणा में भी उसने अभद्र भाषा का उपयोग किया और आपने सोशल मीडिया पर उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो उसे गिरफ़्तार कर लिया गया, भले ही ज़मानत दे दी गई, ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।

गुड़िया बाल्मीकि के बलात्कार के बाद, मुस्लिम पक्ष कुछ सक्रिय हुआ तो, पीड़ित वर्ग ने उनका स्वागत किया और उनके दिल नरम हो गए। हमारी हैसियत मुसलमान के साथ साथ भारतीय नागरिक की भी है। एक भारतीय नागरिक होने के नाते हमें भारतीय लोगों को पेश आने वाले मुद्दों को समझने और उन पर बोलने की आवश्यकता है।

आख़िरी बात यह है कि हमें आम मानवीय मुद्दों पर आवाज़ उठाने के साथ ही कुछ व्यावहारिक कदम भी उठाना चाहिए। वर्तमान स्थिति में देश में न केवल मुसलमानों पर अत्याचार होता है बल्कि ग़ैर-मुस्लिम समाज के कई वर्ग भी इसमें शामिल हैं। उत्पीड़ितों को उत्पीड़न से बचाना हमारी धार्मिक ज़िम्मेदारी भी है। ये उत्पीड़ित वर्ग हर राज्य में हैं। वर्तमान सरकार की व्यवस्था में उत्पीड़ितों की तलाश करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप उन्हें हर गली-नुक्कड़ पर देखेंगे। बस अपनी आँखें खुली रखने की आवश्यकता है।

मैं चाहता हूँ कि हमारे बुद्धिजीवी, लेखक, राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता और विशेष रूप से हमारे धार्मिक नेता इस्लाम और मुसलमानों के साथ-साथ देश के सभी लोगों के मुद्दों पर भारतीय संविधान के अनुसार अपने विचार स्पष्ट करें और उनके समाधान के लिए कदम उठाएँ। भावनाओं को भी बुद्धि और मसलिहत के आलोक में व्यक्त किया जाना चाहिए, ताकि हम अच्छे मुसलमान होने के साथ-साथ अच्छे भारतीय नागरिक भी साबित हो सकें।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष हैं)

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