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सम्पादकीय

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर शोध छात्र ‘स्नेहाशीष वर्धन’ का ये लेख ज़रूर पढ़िए।

पत्रकारिता के स्वरूप पर लगातार हमले हो रहें हैं, होना भी चाहिए। हिंदी भाषी क्षेत्रों में अखबारों पर विशेष बहस हो रही है। हिंदी पत्रकारिता दिवस की शुभकामनाओं के संदेश सुबह से सोशल मीडिया पर तैर रहें हैं। सबने पहले हिंदी भाषा के साप्ताहिक अखबार उदन्त मार्तण्ड और उसके कानपुर निवासी तत्कालीन कलकत्ता में अधिवक्ता, सम्पादक और प्रकाशक पंडित जुगल किशोर शुक्ल के बारे में चर्चा की गई।
लेकिन कभी आपने सोचा कि प्रत्येक मंगलवार को साप्ताहिक रूप से छपने वाली ये अखबार आखिर बंन्द क्यों हो गयी?
इसके पीछे तत्कालीन अंग्रेज सरकार की कोई दमन नहीं थी क्योंकि ये अखबार किसी राष्ट्रवादी साहित्य के रूप में प्रकाशित नहीं होती थी तो ये अंग्रेजों के नजर में भी नहीं चढ़ी थी। वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट अर्थात् क्षेत्रीय भाषा के लिए तब कोई कानून भी नहीं आयी थी।
कलकत्ता तब अंग्रेजों की राजधानी हुआ करती थी।
इसीलिए आपने नोटिस किया होगा कि सभी अखबार वहीं से निकलते थे और कलकत्ता आर्थिक रूप से बहुत विकसित भी था। सम्भवतः इसी कारण अब भी वहां शैक्षणिक रूप से बौद्धिक लोग अब भी नजर आते हैं या अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में बंगाल की अहम भूमिका नजर आती है। व्यापार में भी समृद्धि थी जो कालांतर में कम्युनिस्टों के गलत श्रम कानूनों और यूनियन बाजी की भेंट चढ़ गई। दिल्ली आसपास से कहीं बेहतर व्यापारिक क्षेत्र कलकत्ता आसपास थी।
हां तो वापस आते हैं कि आखिर ये ‘समाचार सूर्य’ अर्थात उदन्त मार्तण्ड अखबार बंद कैसे हो गयी?
तो देखिए दिक्कत क्या थी:

* उनको विज्ञापन नहीं मिलते थे मतलब ये समझ लीजिए कि अखबार ही विश्व में एक ऐसी वस्तु है जो अपने लागत मूल्य से कम में बिक्री की जाती है।
अब जब विज्ञापन मिलेंगे नहीं तो अखबारी कागज, स्याही, कर्मचारी और कार्यालय का खर्च कहाँ से आएगा?
* कुशल प्रबंधन की कमी रही होगी क्योंकि उनके पास जज्बा तो था लेकिन अखबार का सर्कुलेशन एक मसला था। कलकत्ता में हिंदी अखबार पढ़ेगा कौन? बांग्लाभाषी इलाका और जो हिंदीभाषी आते भी थे तो वें मजदूरी और रोजगार के लिए आते थे तो उन्हें अखबार से बहुत मतलब रहता नहीं था।
* डाक के माध्यम से इसे हिन्दीभाषी क्षेत्र में भेजने का महंगा डाक खर्च भी वहन करना मुश्किल था। तो सोचिये आखिर कम बिक्री और पाठकों के बिना अखबार चलाना कितना मुश्किल होता होगा।
क्योंकि पहले इंटरनेट का जाल तो था नहीं कि किसी और के पोर्टल से खबर काट के कहीं और शब्दों को बदलकर लगा लें पत्रकार।
अब आइये इसको वर्तमान हालात से जोड़ते हैं।
जब भी हम अखबार या मीडिया पर बात करते हैं तो बारबार मीडिया पर दोष लगा देते हैं पक्षपात का, तो आप ये जान लीजिए कि अभी भी विज्ञापनों के भरोसे ही खबरें आपकी सुबह के नाश्ते या चाय के टेबल पर आ पाती हैं और ये सबसे बड़े विज्ञापनदाता आज भी सरकार और व्यापारिक घरानें ही हैं। फिर आते हैं लोकल नेता या व्यक्तिगत तौर पर विज्ञापनदाता।

अब आप सोचिये कि हमारे आपके जैसे लोग जो अखबारों को उठाने से पहले उसकी विचारधारा पर लंबी बहस कर देते हैं वो इन अखबारों के लिए कितने महत्वपूर्ण होंगे।फिर ये मिशन या जज्बा वाला मामला तो अब रहा नहीं, ये अब रोजगार देने वाला एक क्षेत्र हो चुका है। इसको व्यापारिक घरानें खरीदने लगें क्योंकि जो पत्रकार मिशन के साथ आये थे वो पैसे जुटा नहीं पाएं जो जुटा पाएं वो सरकार से मिल जुलकर विज्ञापन लेकर ही कमा पाएं, तो वें सरकारी भोंपू बनकर एक निश्चित पैसे की आमद करते रहें।
इसके साथ वें बड़ी मछली बनकर छोटी मछलियों को निगलते रहें। अब कुछ मीडिया संस्थान जो विज्ञापन नहीं प्राप्त कर सकें वें व्यापारिक घरानों के लिए एक व्यवसाय का जरिया बन गए।
अब भला वें जब घाटे के संस्थान थे तो व्यापारी लोग इसे खरीद कर मुनाफा कमाने की मंशा से प्रबंधन सम्भाल लिए।
विश्वविद्यालयों में इसके रेग्युलर नहीं बल्कि व्यावसायिक पाठ्यक्रम इंट्रोड्यूस किये गए। महंगे फी स्ट्रक्चर के साथ महंगे संस्थान (कुछ पुराने केंद्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़कर) अब मिशन वाले पत्रकार नहीं बल्कि 8 से 12 घंटे टेबल पर बैठकर टाइप करने वाले और 8 से 12 घंटे में 5-10 खबर लाने वाले एम्प्लॉयी बनाने की फैक्ट्री चल पड़ी। जिनको न तो अच्छी शाब्दिक पकड़ बनाने को साहित्य पढ़ने को मिला और न ही वर्तनी की शुद्धि जांचने वाले शिक्षक और संस्थान बस जैसे तैसे वें इस पाठ्यक्रम में आ जाते हैं और फिर रेस में बिना मंजिल की जानकारी के दौड़ने लगते हैं।
तुर्रा तो ये है कि बिना डिग्री, बिना ट्रेनिंग हाथ में चोंगा लिए और कलम नोट पैड लिए लोग खबरनवीस बनकर शहरों में दौड़ने लगें।
कुछ सेटिंग गेटिंग से टिक गए, कुछ इतनी दूर फेंके गए कि कुछ व्यापार कर लिए तो कुछ अपना सेकेंड बिजनेस कर लिए।
पत्रकारिता प्रशासन से पहचान, नेताओं से मित्रता, संस्थाओं से उगाही और आम जनता पर धौंस बनकर सामने आने लगी।
अब आज हिंदी पत्रकारिता दिवस पर जब हम पंडित जुगल किशोर शुक्ल और उदन्त मार्त्तण्ड की बात करते हैं तो उसके बंद होने के कारणों की समीक्षा करके वर्तमान पत्रकारिता के स्वरूप से जोड़कर भी सोचना चाहिए। माजरा समझ आएगा और पत्रकारिता का स्वरूप भी।
खैर स्वतन्त्र पत्रकारिता के 189 देशों के रैंकिंग में 142 वें स्थान पर आने वाले भारत के बारे में विदेशी मीडिया द्वारा कहा जाता है कि मोरक्को, रूस और भारत में पत्रकारिता सबसे खतरनाक काम है। वैसे में जब हमारा पड़ोसी बांग्लादेश जो न्यूनतम प्रति व्यक्ति आय में हाल में ही भारत से आगे निकला और चीन जिसके बारे में आप जानते ही हैं, हमसे प्रेस स्वतन्त्रता में पीछे हैं…वैसे में हमें अपनी पत्रकारिता के लिए सरकारी सब्सिडी से मिलने वाले अखबारी पन्ने और स्याही के लिए सरकार पर आश्रित होना ही पड़ेगा या जुनून में पत्रकारिता करने पर उदन्त मार्तण्ड की तरह कुछ हफ्ते छपकर बंद होना ही पड़ेगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं। लेखक  ‘स्नेहाशीष वर्धन’ दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय,गया में शोध के छात्र हैं)

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