संसद में “वंदे मातरम्” को लेकर छिड़ी बहस पर जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि मुसलमानों को किसी के वंदे मातरम् पढ़ने या गाने पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन इस्लामी आस्था के अनुसार, मुसलमान केवल एक अल्लाह की इबादत करता है और किसी अन्य की पूजा नहीं कर सकता।
मदनी ने कहा कि वंदे मातरम् की कविता की कुछ पंक्तियाँ देश को देवी के रूप में प्रस्तुत करती हैं, जो मुसलमानों के बुनियादी धार्मिक विश्वासों के विपरीत है।
उन्होंने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 25 सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता देता है और किसी को भी उसके विश्वास के विरुद्ध कुछ करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का भी हवाला दिया जिसमें नागरिकों को राष्ट्रगान या किसी भी गीत को गाने के लिए मजबूर न किए जाने की बात कही गई है।
मदनी ने कहा: “वतन से मोहब्बत और उसकी पूजा दो अलग बातें हैं। मुसलमानों की देशभक्ति पर सवाल उठाना सरासर नाइंसाफी है।”
उन्होंने बताया कि 1937 में रवींद्रनाथ टैगोर ने भी वंदे मातरम् के केवल पहले दो अंतरों को राष्ट्रीय गीत मानने की सलाह दी थी, जिसे कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने स्वीकार किया था। इसलिए पूरे गीत को जबरन थोपना ऐतिहासिक तथ्यों को नकारने जैसा है।
मदनी ने इस मुद्दे को चुनावी राजनीति से जोड़ने की आलोचना करते हुए कहा कि देश की आर्थिक चुनौतियाँ गंभीर हैं, लेकिन संसद में उन पर चर्चा नहीं की जा रही है।
अंत में उन्होंने अपील की कि संवेदनशील धार्मिक मुद्दों को राजनीति का जरिया न बनाया जाए, बल्कि आपसी सम्मान और एकता को मजबूत करने के लिए काम किया जाए।

