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जब बुल्डोजर के ज़रिए ही इंसाफ करना है तो फिर न्यायपालिका पर ताला क्यों नहीं लगा देते?

मध्य प्रदेश के जावरा में मंदिर में गोवंश के टुकड़े फेंके जाने की वजह से लगातार बवाल हो रहा है. पुलिस ने चार मुस्लिम लड़कों को आरोपी बनाते हुए गिरफ्तार भी कर लिया है। उससे भी बड़ी बात जन भावना को शांत करने के नाम पर सभी युवकों के घरों पर बुलडोज़र की करवाई भी कर दी गयी है।

मामला ये नहीं है कि कौन आरोपी है और उसके खिलाफ क्या करवाई होगी मामला तो ये है कि दोष सिद्ध होने से पहले ही बुलडोज़र के नाम पर घर तोड़ देना न्यायपालिका को ठेंगा दिखाने के समान है। अगर किसी आरोप में न्याय करने का काम भी पुलिस और प्रशासन का है तो फिर अदालतों पर ताला लगा देना चाहिए।

आज जिस शाहरुख़ के घर को तोड़ा गया है उस घर की रजिस्ट्री उसकी माँ के नाम पर है और साथ में उसके दो भाई भी अपने परिवार के साथ उसी घर में रहते हैं। ऐसे ही नौशाद का घर भी उसकी दादी के नाम पर है जिसमें 5 भाई और परिवार रहता है।

क्या किसी आरोपी के किसी अपराध की सजा उसके परिवार को दी जा सकती है उसमें भी तब जब वो आरोप अभी साबित नहीं हुआ है!

सबसे बड़ा सवाल ये है कि जो हिन्दुत्वादी संगठन और प्रशासन बुलडोज़र की करवाई के लिए अपनी पीठ थपथपा रहा है क्या उसने सच में इन घरों को इसी अपराध की वजह से गिराया है।

इसका जवाब है नहीं, नगर पालिका का जो नोटिस आनन फानन में इनके घरों में चिपकाया गया है उसमें साफ़ लिखा है कि आपकी एक दुकान नाले के ऊपर बनाई गयी है इसलिए बुलडोज़र की ये कार्यवाई की जा रही है।

अगर प्रशासन सच में हिन्दुत्वादी संगठनों के दबाव में ये बुलडोज़र चला रहा है तो वो अपने नोटिस में भी साफ़ लिखे कि हमारी प्रथम दृष्टि में ये व्यक्ति आरोपी पाया गया है इसलिए इसके गुनाहों (जो अभी सिद्ध नहीं) की सजा इसके परिवार को देते हुए इनके घर पर बुलडोज़र चला रहे है।

गोकशी के आरोप में आनन फानन में गिरफ़्तारी और बुलडोज़र की कार्यवाई के बाद किसी व्यक्ति का निर्दोष साबित होने का मामला पहले भी देखने को मिल चुका है।

उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में पुलिस ने नवाब को गोकशी के आरोप में जेल भेजा था मगर कुछ समय के बाद वो निर्दोष साबित हुआ था। हैरानी की बात तो ये है कि उसने ही गोकशी की सूचना देकर पुलिस की सहायता की थी। पुलिस ने उल्टे उसे ही गोकशी का आरोपी बनाकर जेल भेज दिया था। एसएसपी हेमंत कुटियाल ने जांच कराई तो सच्चाई सामने आई। उन्होंने नवाब को जेल भेजने वाले दरोगा को निलंबित कर उसके खिलाफ विभागीय जांच के आदेश दिए थे।

ऐसे ही कथित गोकशी के आरोप में बुलंदशहर पुलिस ने जिन चार लोगों सर्फ़ुद्दीन, नन्हे, साजिद और आसिफ़ को गिरफ़्तार किया था। खुद पुलिस की जांच में ही वे सभी बेकसूर साबित हुए थे। मामले के 17 दिन बाद पुलिस ने यू-टर्न लेते हुए चारों आरोपियों को निर्दोष बताने के साथ ही रिहा करने की तैयारी शुरू कर दी थी और इस सिलसिले में पुलिस उन बेगुनाहों की रिहाई के लिए कोर्ट का रुख भी किया था। इस मामले के असली मुख्य आरोपी बजरंग दल के योगेश राज और शिखर अग्रवाल को पुलिस लंबे समय तक गिरफ्तार ही नहीं कर पायी थी।

मुद्दे की बात ये है कि किसी भी अपराध को अदालत में साबित होने के बाद सजा देने का क़ानूनी प्रावधान है मगर पुलिस द्वारा खुद ही जज साहब बन कर इन्साफ करने की होड़ समाज को कब पुलिस स्टेट में तब्दील कर देगी किसी को कानों कान भनक भी नहीं लगेगी।

जन भावनाओं का सम्मान होना समाज के सौहार्द के लिए बेहद जरूरी है और असमाजिक तत्वों के खिलाफ करवाई भी जरूरी है मगर उसको साबित न्यायपालिका करेगी न कि प्रशासन और पुलिस!

(यह स्टोरी अंसार इमरान ने लिखी है)

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