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अमेरिका की दोहरी नीति: भारत से शांति की अपील, ग़ाज़ा पर चुप्पी

भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा पर जारी तनाव एक बार फिर उस समय बढ़ गया जब पाकिस्तान ने बीते कल भारत के कई सैन्य ठिकानों को निशाना बनाने की कोशिश की। लेकिन भारतीय सेना की मुस्तैदी और आधुनिक सुरक्षा प्रणाली के चलते पाकिस्तान के ये सभी प्रयास विफल हो गए। भारतीय वायुसेना और थलसेना के संयुक्त प्रयास से न केवल सभी मिसाइल और ड्रोन हमलों को समय रहते रोका गया, बल्कि पाकिस्तान को उसकी रणनीति में भी भारी शिकस्त का सामना करना पड़ा।

पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर से लेकर पंजाब, राजस्थान और गुजरात तक लगभग 15 जगहों पर हमले की कोशिश की। इसमें श्रीनगर, पठानकोट, अमृतसर, बठिंडा, लुधियाना, जैसलमेर, कच्छ और भुज जैसे संवेदनशील इलाकों को टारगेट बनाया गया था। लेकिन भारत की ‘इंटीग्रेटेड एयर डिफेंस सिस्टम’ और ‘काउंटर-यूएएस ग्रिड’ (ड्रोन विरोधी प्रणाली) ने समय रहते सभी खतरों को पहचान लिया और उन्हें निष्क्रिय कर दिया।

भारतीय सेना की यह सफलता सिर्फ तकनीकी नहीं, बल्कि रणनीतिक भी है। यह पाकिस्तान को एक सख्त संदेश है कि भारत अब सिर्फ जवाबी कार्रवाई तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि हर हमले को पहले ही नाकाम करना उसकी प्राथमिकता है। इस घटना ने यह साबित कर दिया कि भारत अब हर मोर्चे पर सतर्क है और देश की सुरक्षा से कोई भी समझौता नहीं किया जाएगा।

भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव के बीच अमेरिका ने शांति की अपील की — यह एक ऐसा रुख है जो कूटनीतिक संतुलन की मिसाल के तौर पर देखा जा सकता है। लेकिन यही अमेरिका, जब बात ग़ाज़ा या सीरिया में इज़रायल द्वारा किए जा रहे हमलों की होती है, तो उसकी ज़ुबान पर खामोशी छा जाती है या फिर वह उसे “आत्मरक्षा” का नाम दे देता है। सवाल यह है कि क्या अमेरिका की शांति की परिभाषा केवल उसके राजनीतिक और सामरिक हितों के अनुसार बदलती है?

ग़ाज़ा में हज़ारों नागरिकों की जानें चली जाती हैं, बच्चों के शव मलबे से निकाले जाते हैं, अस्पतालों और मस्जिदों पर बमबारी होती है — फिर भी अमेरिका इस पर न तो सीज़फायर की अपील करता है और न ही इज़रायल की कार्यवाही को “आक्रामकता” कहता है। वहीं भारत द्वारा पाकिस्तान पर की गई सैन्य कार्यवाही पर तुरंत संयम की सलाह दी जाती है। यह दोहरा रवैया वैश्विक न्याय की अवधारणा पर सवाल खड़ा करता है।

सीरिया में भी इज़रायली हवाई हमले आम हो चुके हैं। वहां की संप्रभुता का उल्लंघन लगातार हो रहा है। फिर भी अमेरिका या उसके सहयोगी देशों की ओर से न तो कड़ी निंदा होती है और न ही संयुक्त राष्ट्र में कोई ठोस प्रस्ताव लाया जाता है। इसके उलट, कई बार इन हमलों को “सुरक्षा ज़रूरत” बताकर जायज़ ठहराया जाता है।

अमेरिका की यही नीति उसे वैश्विक दक्षिण के बीच अविश्वसनीय बना रही है। भारत-पाक तनाव पर शांति की अपील करना तभी सार्थक होता जब वह ग़ाज़ा में भी समान दृष्टिकोण अपनाता। एक तरफ़ शांति की दुहाई, दूसरी तरफ़ नरसंहार पर समर्थन – यह दोगली नीति निंदनीय है। दुनिया को अब अमेरिका की इस कथित “अंतरराष्ट्रीय नैतिकता” को बेनकाब करना होगा। शांति की बात तभी विश्वसनीय होगी जब वह सभी के लिए हो चाहे वो एशिया हो या पश्चिम एशिया।

दरअसल, अमेरिका का यह दोहरा मापदंड उसकी विदेश नीति की पुरानी रणनीति का हिस्सा है, जहां उसके मित्र देशों को खुली छूट और विरोधियों को नसीहतें मिलती हैं। लेकिन इस रवैये से अंतरराष्ट्रीय समुदाय की विश्वसनीयता और वैश्विक न्याय की भावना को गहरा आघात पहुँचता है। क्या अमेरिका वास्तव में शांति चाहता है, या केवल उस शांति की बात करता है जिससे उसके हितों को नुकसान न हो? यह सवाल आज सिर्फ़ भारत-पाक या ग़ाज़ा-सीरिया तक सीमित नहीं है, बल्कि समूची दुनिया की न्यायप्रिय जनता के लिए एक चेतावनी है।

भारत का संदेश साफ़ “सावधानी” का समय ख़त्म, अब “कार्रवाई” का वक़्त है

भारत ने यह साफ कर दिया है कि अब “सावधानी” का समय खत्म हो चुका है — अब “कार्रवाई” का वक्त है। प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री दोनों ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि देश की संप्रभुता से खेलने वालों को करारा जवाब मिलेगा — वो चाहे सीमा पर हों या सीमा के पार। पाकिस्तान वर्षों से आतंकवाद को एक रणनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करता आ रहा है, लेकिन अब धैर्य का समय समाप्त हो चुका है। भारत अब पाकिस्तान के किसी भी नापाक हमले पर ख़ामोश नहीं बैठेगा, बल्कि उसे ऐसा जवाब देगा कि, वह उन तमाम देशों के लिए उदाहरण बन जाएगा, जो भारत को कमज़ोर करने या समझने का ख़्वाब देख रहे हैं।

आज भारत आतंकवाद को जड़ से खत्म करने की नीति पर काम कर रहा है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी पाकिस्तान की नापाक हरकतों को बेनक़ाब कर चुका है। भारत का संदेश साफ है, अगर पाकिस्तान एक बार हमला करेगा, तो जवाब दस गुना ताक़त से मिलेगा। यह सिर्फ़ जवाब नहीं, चेतावनी भी है, अब भारत को कमजोर समझने की भूल पाकिस्तान को बहुत भारी पड़ेगी।

(यह लेखक के अपने विचार है, लेखक अशरफ ज़ैदी पत्रकार है)

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