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सम्पादकीय

भागलपुर नरसंहार की 33वीं बरसी: चश्मदीद मलका बेगम के अनुसार, दंगाइयों ने मुझे मरा हुआ समझकर छोड़ दिया था लेकीन मैने अपनी आंखों से अपने माँ-बाप की हत्या होते हुए देखी

24 अक्टूबर 1989 को शुरू हुआ मुस्लिम विरोधी भागलपुर दंगा, हिन्दोस्तान की आज़ादी के बाद बिहार की तारीख़ का सबसे बड़ा दंगा था. यही वो दंगा था जिसके बाद लालू प्रसाद यादव सियासी तौर पर काफ़ी मज़बूत हुए, इसी दंगे के बाद राजद का मुस्लिम-यादव समीकरण बना, इससे इंकार नही किया जा सकता कि इस दंगे के दौरान लालू प्रसाद यादव ने बेहतर काम किया था। यही वजह थी कि बिहार में जो कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक था वो कांग्रेस से टूटकर राजद के साथ जुड़ गया और फिर M+Y समीकरण तैयार हुआ।

यही वजह रही कि 1990 में जनता दल से लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने और 1989 के बाद बिहार से कांग्रेस का सफ़ाया हो गया, फिर कांग्रेस कभी सत्ता में नही आ पाई।

1989 में भागलपुर दंगा जब हुआ था तब बिहार में कांग्रेस की सरकार थी सत्येंद्र नारायण सिन्हा मुख्यमंत्री थे, केंद्र में भी कांग्रेस की सरकार थी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे।
ये बताने का मक़सद सिर्फ ये है कि हिन्दोस्तान के किसी भी सूबे में जब भी नरसंहार हुआ वो कांग्रेस की शासन में हुआ। हमारे मुल्क में 12 से ज़्यादह बड़े मुस्लिम नरसंहार हुए जिसमें तक़रीबन 10 नरसंहार बाक़ायदा कांग्रेस की देखरेख में हुआ, जिसे आप मुस्लिम विरोधी या सरकारी नरसंहार भी कह सकते हैं।

कहा जाता है भागलपुर दंगे में मुसलमानों के ख़िलाफ़ 2 जातियों ने सबसे ज़्यादा उपद्रव किया था, “यादव और गंगोता”… इस दंगे में 93% मुसलमानों की हत्या हुई थी।

इस मुस्लिम विरोधी दंगे की शिकार और चश्मदीद मलका बेगम बताती हैं कि “भागलपुर दंगे के बाद हालात बहुत बदतरीन थे, मेरे गांव “चंधेरी” में दंगाइयों ने क़रीब 60 मुसलमानों को मार दिया था, मैंने अपनी आंखों से अपने माँ-बाप की हत्या होते हुए देखा है, मुझे दंगाइयों ने मरा हुआ समझकर छोड़ दिया था, मैं एक तालाब में दर्जनभर से ज़्यादह लाशों के साथ घंटो पड़ी रही, मैं जिस तालाब में पड़ी थी वो तालाब मेरे अपनों के खून से सुर्ख़ हो चुकी थी”

1989 में हुए भागलपुर दंगों के बाद से ही 1992 में बाबरी मस्जिद के खिलाफ आंदोलन तेज़ हुआ था, ये वही दौर था जिसके बाद पूरे देश मे हर तरफ हिंसा फैली हुई थी, अगर कांग्रेस सरकार ने भागलपुर दंगों पर कंट्रोल कर लिया होता तो शायद 1992 में हुए बाबरी की शहादत/मुम्बई दंगे को रोका जा सकता था, लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ।

भागलपुर दंगे से कुछ वक़्त पहले की बात थी मुहर्रम था, उस मौके पर भागलपुर का तत्कालीन एसएसपी “के एस द्विवेदी” ने अपने एक भाषण में कहा था. “भागलपुर को हम दूसरा कर्बला बना देंगे, इसी भाषण में एसएसपी “के एस द्विवेदी” ने मुसलमानों के नरसंहार की बात भी कही थी”

इस बयान के बारे में मालूम चलने के बाद भागलपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी ने “के एस द्विवेदी” से माफ़ी मांगने को कहा था, लेकिन वो एसएसपी इतना ताक़तवर था और हिंदूवादी संगठनों में उसकी इतनी मज़बूत पैठ थी कि बिहार के मुख्यमंत्री तो छोड़िए देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी उसका ट्रांसफर तक नही करवा पाए थे, वहां के लोगों का कहना था अगर “द्विवेदी” हट जाता तो बहुत से लोगों की जान बच सकती थी।

तत्कालीन मुख्यमंत्री सिन्हा ने उस वक़्त लिखा था. “हटाना चाहता था लेकिन हटा नही पाया, मजबूर था”

आज भागलपुर नरसंहार की 33वीं बरसी है। लेकिन 33 साल गुज़र जाने के बाद भी इंसाफ़ के नाम पर एक पत्ता तक नहीं हिला। लालू प्रसाद यादव की दंगों के वक़्त काम की सराहना का मतलब ये नहीं हुआ कि वह बरी हैं। इस नरसंहार के बाद जिन लोगों पर दंगा कराने का आरोप था उन लोगों को लालू ने बाक़ायदा सियासी शरण दिया। उन्हें अपनी गोद में बिठाया। जबकि भागलपुर नरसंहार के बाद लालू 15 साल बिहार की सत्ता पर क़ाबिज़ रहे।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक शाहनवाज अंसारी सोशल एक्टिविस्ट हैं।)

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